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बालमन से विध्वंस की धुंध साफ करने का वक्त

06:36 AM Sep 13, 2024 IST

दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’

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पिछले दिनों बिहार के सुपौल से एक दहकती हुई खबर आयी- ‘बैग में पिस्तौल लेकर स्कूल पहुंचा नर्सरी का बच्चा, तीसरी कक्षा के छात्र पर चलाई गोली।’ कानपुर के बिधनू थाना क्षेत्र की गंगापुर कालोनी की एक हालिया खबर है कि यहां प्रयाग विद्या मंदिर में 10वीं के छात्र ने कक्षा में सहपाठी की चाकू से गोदकर हत्या कर दी। ऐसे समाचार हमें बेचैन कर देते हैं, जहां बच्चे या किशोर किसी हिंसा अथवा गंभीर अपराध की दिशा में अग्रसर होते दिखते हैं। मन में स्वाभाविक सवाल उठता है कि जिस बालमन में रंग-बिरंगी कल्पना और जिज्ञासाओं का निवास होना चाहिए, वहां अपराध की दखलअंदाजी क्यों? मानते हैं कि किशोरावस्था की ओर बढ़ते बच्चों में तेजी से हार्मोनल परिवर्तन होते हैं। इस स्थिति में फिल्मों और टेलीविजन में दिखाए जाने वाले दृश्य उनके दिमाग में बैठ जाते हैं और वे उसी तरह प्रतिक्रिया देने लगते हैं। बालहिंसा के प्रकरण भी ऐसे किसी दृश्य के नकल के दुष्परिणाम होते हैं।
दरअसल, ऐसी घटनाओं के पीछे और भी कई उलझे मनो-सामाजिक द्वंद्व होते हैं। पहले किशोरावस्था की दिशा में बढ़ते बच्चों में हार्मोनल परिवर्तन की आयु 12 वर्ष के आसपास शुरू होती थी, तब किन्हीं बच्चों में ‘एनिमल इंस्टिंक्ट्स’ प्रबल हो जाया करते थे। ये गुस्सैल, आक्रामक, चिड़चिड़े और आत्मनियंत्रण में कमजोर होते थे। मगर अब जो निष्कर्ष सामने आ रहे हैं, उनके अनुसार झंझावात की अवस्था डेढ़-दो वर्ष पहले ही आने लगी है। इसका कारण है- प्रकृति से कटा कृत्रिम जीवन, भौतिकवाद से उपजी जीवनशैली, रेडीमेड खानपान, बच्चों में बढ़ता अकेलापन और सूचना विस्फोट।
सुपौल वाली घटना का बच्चा तो मात्र पांच साल का है। संभवतः यह उन बच्चों में से हो सकता है जो अपना अधिक समय टीवी के आगे या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बिता रहे हैं। इस श्रेणी में निम्नवर्ग के बच्चे भी शामिल हैं। इनके परिवार में स्मार्टफोन भले ही न हो, लेकिन अपने मध्यवर्गीय मित्रों के बीच यह भी मोबाइल में उपलब्ध वयस्क कंटेंट या क्राइम थ्रिलर का मजा लेने में पीछे नहीं रहते हैं। फिल्म, टीवी के क्राइम पर आधारित धारावाहिक और वीडियो गेम की मारधाड़ और खूनखराबे को बार-बार देखने वाला बच्चा हिंसा के प्रति संवेदनशून्य हो जाता है और हिंसात्मक कृत्य उसके लिए आनंद की सामग्री बन जाते हैं।
आज के बचपन की स्थितियों को लेकर जब हम अपने आसपास गंभीरता से दृष्टिपात करते हैं, तो बच्चों का पूरा माहौल ही संवेदनाओं से कटा हुआ मिलता है। शिक्षा यांत्रिक हो चुकी है; यह बच्चों को तेज दिमाग वाला रोबोट बनाने में लगी है। अध्यापक के सामने भारी-भरकम पाठ्यक्रम पूरा करने की जिम्मेदारी है और विद्यार्थी के सामने इसे याद करने की चुनौती...! छात्र-अध्यापक के बीच होने वाले अनौपचारिक संवाद समाप्तप्राय हैं। पारिवारिक परिवेश में आए बदलाव भी बच्चे पर गलत असर डाल रहे हैं। पहले बच्चे अपना अधिकतर समय परिवार के सदस्यों के बीच बिताते थे। माता-पिता, दादा-दादी से उनका सघन संवाद हुआ करता था। उन्हें भरपूर प्यार मिलता था तो गलती पर डांट भी! किन्तु अब ऐसा नहीं है।
रवींद्रनाथ ठाकुर का कथन है ‘बच्चों का सम्पूर्ण मानसिक और शारीरिक विकास प्रकृति की गोद में ही संभव है।’ इस कथन के पीछे बच्चों के मन में संवेदनात्मक और नैतिकता का भाव भरने का विचार था। बच्चे प्रकृति से कोमलता और उदारता सीखते हैं। पहले पारिवारिक जीवन में कई परंपराएं थीं, जो बच्चों को परिवेश से जोड़ती थीं। रसोई में सिंकने वाली पहली रोटी गाय की और आखिरी रोटी कुत्ते को दी जाती थी। बुजुर्ग चींटियों के बिल के आसपास आटा डालते थे। झारने-बीनने के बाद जो मरियल अनाज बचता था, उसे चिड़ियों के चुगने के लिए पेड़ के नीचे डालने की परंपरा थी। छोटे बच्चों के लिए इसमें भरपूर रोचकता थी। इससे वे गाय, कुत्ता, चींटी, चिड़िया से ही नहीं, बल्कि धीरे-धीरे ढेर सारे जीव-जंतुओं, वनस्पति, नदी, पहाड़, झरने से जुड़ते थे। इनको लेकर वे ढेर सारी कल्पनाएं करते थे। उनकी कल्पनाएं बेसिर-पैर की होती थीं, लेकिन यह उनके दिमाग को झाड़-पोंछकर साफ और सक्रिय रखती थीं।
आज कहा जाने लगा है कि दुनिया तर्क, विज्ञान, सूचना और वास्तविकता पर टिकी है। यथार्थ के नाम पर कल्पना, किस्से-कहानियों और कविता को भी खारिज कर दिया गया है। कल्पनाविहीन सृजनात्मकता की दुनिया में नैसर्गिकता का अभाव है। परिणामतः हर दिन ऐसा कुछ घटित हो रहा है, जो हमें चौंकाता है। बचपन जीवन की सबसे चुहलभरी अवस्था हुआ करता था। खाना-पीना, खेलकूद, बेफिक्री, हल्के-फुल्के झगड़े, फिर सुलह, दोस्तों संग मस्ती— यही होता था बचपन...! मगर अब लगता है, बचपन आता ही नहीं।
आज का बचपन शुरू से ही दौड़ में शामिल हो जाता है। कम उम्र से पढ़ाई का दबाव, आगे रहने की चुनौती, हॉबी क्लासेज जैसे उपक्रमों के बीच बालजीवन की स्वाभाविकता ही समाप्तप्राय हो गई है। जबकि बचपन की उमंगों भरी हरकतें ही एक मजबूत व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। मजबूत व्यक्तित्व आक्रामक, गुस्सैल और हिंसक नहीं होता। बल्कि वह सृजनशील होता है और सृजनात्मकता कल्पना की देन होती है।
बचपन को कृत्रिम बेड़ियों से मुक्त करके सहज भाव से जीने दें, जिसमें पढ़ाई के साथ खेलकूद और यारी-दोस्ती की मस्ती हो, साथ ही प्रेम भरे स्नेहिल अहसास भी! बस इतने से ही बच्चों के मन में घर करती विध्वंस की धुंध साफ होने लगेगी।

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