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भाषाई मुकाबले में हिंदी की क्षमता पहचानिए

06:49 AM Sep 14, 2024 IST
भाषाई मुकाबले में हिंदी की क्षमता पहचानिए
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डॉ. संजय वर्मा

हमारे देश के छात्र कोई ऊंची पढ़ाई करने जब विदेश जाते हैं तो ज्यादातर मामलों में उनके सामने पहली शर्त उस देश की भाषा सीखने की होती है। कनाडा जाएंगे, तो अंग्रेजी से पहले फ्रेंच, रूस-यूक्रेन जाएंगे तो रूसी, चीन-जापान जाएंगे, तो मंदारिन या जापानी भाषा में इतने कौशल की मांग की जाती है ताकि उस भाषा में वे संबंधित पढ़ाई कर सकें। इसके लिए भाषा सिखाने से जुड़े पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं, जो वहां दाखिला पाने से पहले अच्छे अंकों या ग्रेड के साथ पूरे करने होते हैं। इसका एक पहलू यह भी है कि ज्यादातर देशों ने अपनी मातृभाषा या उस भाषा को कामकाज की अपनी आधिकारिक भाषा बना रखा है, जो उन देशों की बहुसंख्यक आबादी बोलती-समझती है। इसके लिए वे खुद कोई समझौता नहीं करते, लेकिन विदेश से आने वाले छात्रों और कारोबार या राजनयिक संबंधों के तहत वहां आने-जाने वालों को उनकी भाषा सीखने का समझौता करना होता है।
विडंबना है कि भारत के संबंध में ऐसा नहीं है। ब्रिटिश गुलामी से निजात पाने के इतने लंबे अरसे के बाद भी यहां अंग्रेज़ी ही सर्वमान्य भाषा बनी हुई है। हिंदी अथवा किसी अन्य स्थानीय भाषा को जानने-समझने की जरूरत विदेशियों से यहां किसी भी उद्देश्य के साथ आने पर नहीं की जाती है। इस पर विसंगति यह है कि देश के भीतर ही ज्यादा सरकारी व निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी के लिए अंग्रेज़ी तो हर तरह से स्वीकार्य है, लेकिन जो हिंदी देश के बड़े भूभाग पर बोली, जानी और समझी जाती है, उसे दोयम माना जाता है।
हम इस भाषायी पिछड़ापन पर तब कोई शर्म नहीं महसूस करते, जब इसरो के सूर्ययान आदित्य एल-1 के सूरज के करीब पहुंचने का जश्न मना रहे होते हैं। चंद्रयान-3 के चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने पर शाबाशी लूट रहे होते हैं। गगनयान की तैयारियों का गौरव के साथ बखान कर रहे होते हैं। आश्चर्य है कि आदित्य, चंद्रयान, गगनयान- ये सारे शब्द (संस्कृत निष्ठ) हिंदी की देन हैं। लेकिन इनसे जुड़ी सफलताओं का जिक्र अक्सर अंग्रेज़ी में ही होता है। दुनिया को अपनी उपलब्धियों के बारे में बताना हो, तो अंग्रेज़ी के इस्तेमाल से गुरेज़ नहीं होना चाहिए। पर हमारा पड़ोसी चीन ऐसा नहीं करता। इस्राइल ऐसा नहीं करता। जापान ऐसा नहीं करता। हमारा स्वाभाविक दोस्त रूस ऐसा नहीं करता। विश्व स्तर पर राजनीतिक संदेश देने या किसी उपलब्धि का बखान करने के लिए ये सारे मुल्क अंग्रेज़ी के बजाय उस भाषा का चुनाव करते हैं, जिनसे उनके देश की पहचान जुड़ी है।
दुनिया में भारत अब पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। पिछले वर्ष (2023 में) जी-20 का सफल आयोजन कर भारत ने दिखा दिया है कि कभी गरीब कहे जाने वाले इस देश की आज की तारीख में क्या वैश्विक हैसियत है। एक से बढ़कर एक उपलब्धियां हैं जो जंबूद्वीपे भारतखंडे कही जाने वाली विविधताओं में एकता का आह्वान करने वाली भारतभूमि का गौरवगान करती हैं और तमाम दुनिया को प्रेरणा देती हैं। पर जब बात इसी भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी की आती है, तो कई मलाल एक झटके में हमें कुछ सोचने को विवश कर देते हैं। एक तरफ हिंदी को भारत में राष्ट्रभाषा का व्यावहारिक दर्जा नहीं मिलना चिंता में डालता है, तो दूसरी तरफ यह सवाल भी उठता है कि जनसंख्या और वैश्विक प्रभुत्व के बल पर यदि चाइनीज (मंदारिन), स्पेनिश, अरैबिक, फ्रेंच को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिल सकता है, तो हिंदी को यह सम्मान मिलने में क्या समस्या है।
हमें ये तथ्य गौरवान्वित करते हैं कि भारत कई भाषाओं और लिपियों से समृद्ध देश है। यहां कई सारी भाषाएं बोली जाती हैं। फिर भी देश के आधे से ज्यादा हिस्से को हिंदी भाषा ही जोड़ती है। भले ही अंग्रेजी का प्रचलन बढ़ गया हो लेकिन हिंदी अधिकतर भारतीयों की मातृभाषा है। हालांकि भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला है लेकिन राजभाषा के तौर पर हिंदी की खास पहचान है। भारत के साथ ही विदेशों में बसे भारतीयों को भी हिंदी भाषा ही एकजुट करती है। हिंदी हिंदुस्तान की पहचान भी है और गौरव भी। हिंदी को लेकर दुनियाभर के तमाम देशों में बसे भारतीयों को एक सूत्र में बांधने के लिए विश्व हिंदी दिवस (10 जनवरी) मनाया जाता है। राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी दिवस का आयोजन 14 सितंबर को होता है। दो अलग-अलग तारीखों पर हिंदी दिवस मनाने की वजह शायद इसीलिए पड़ रही है कि कहीं तो कोई हिंदी के अस्तित्व को स्वीकार करे। हालांकि, इसका एक तथ्य यह है कि राष्ट्रीय हिंदी दिवस भारत में हिंदी को आधिकारिक दर्जा मिलने की खुशी में मनाते हैं, वहीं विश्व हिंदी दिवस दुनिया में हिंदी को वही दर्जा दिलाने के प्रयास में मनाया जाता है।
यूं वैश्विक पटल पर देखें तो सिनेमा और दूसरे अनेक डिजिटल मंचों पर भी हिंदी स्वाभाविक गति से बढ़ती नजर आ रही है। अमेजॉन जैसी ई-कॉमर्स कंपनी हिंदी के महत्व को समझते हुए अपनी वेबसाइट पर हिंदी का विकल्प भी दे चुकी है। सोशल मीडिया के अनेक मंचों- जैसे कि यूट्यूब-फेसबुक और ब्लॉगिंग में हिंदी छाई हुई है। चैटजीपीटी और जेमिनी समेत एआई के कुछ टूल अब हिंदी में लिखे गए कूट संकेतों (प्राम्प्ट) को समझने और उनके मुताबिक जवाब देने लगे हैं। हालांकि, हिंदी को रोजगार की भाषा बनने के रास्ते में जो बाधाएं हैं, कहा जा सकता है कि इस मामले में हिंदी ने काफी तरक्की कर ली है। लेकिन यह एक बड़ा सच है कि जब तक भारत के सरकारी कार्यालयों, निजी संस्थानों और संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक मंचों पर हिंदी को अहमियत नहीं मिलती, तब तक हिंदी को वह गौरव और सम्मान नहीं मिल सकता – जिसकी असल में वह हकदार है।
शायद इसकी शुरुआत हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के अभियानों को उनकी परिणति तक पहुंचाने से की जा सकती है। लेकिन इससे जुड़ी सच्चाई यह है कि ऐसे अनगिनत प्रयासों को राजनीतिक स्वार्थ साधने वाली भाषा के विरोध की परंपरा ने कुंठित कर दिया है। हालांकि केंद्र सरकारें चाहतीं तो, वह उसका एक रास्ता हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के रूप में भी चुन सकती हैं।
निश्चय ही हिंदी को भारतीय संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया है और देवनागरी को इसकी लिपि के रूप में स्वीकार किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 343(1) में इस उल्लेख के साथ अंग्रेज़ी (रोमन) भाषा को भी सरकारी कामकाज में इस्तेमाल की अनुमति दी गई है। पर यहां ध्यान रखना होगा कि हमारे संविधान में कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। इसके स्थान पर 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया गया है, जिसका तात्पर्य है कि केंद्र अथवा राज्य सरकार स्थान के अनुसार 22 में से किसी को भी अपनी आधिकारिक भाषा चुन सकती है। हिंदी, असमी, कन्नड़, उर्दू, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु, बोडो, डोगरी, बंगाली और गुजराती- इन आधिकारिक 22 भाषाओं में से चयन का अधिकार राज्यों को हासिल है। इन राज्यों में गुजरात ने सभी 22 भाषाओं को समान अधिकार देने की बात वर्ष 2010 में की थी, पर विडंबना है कि देश के सरकारी कार्यालयों और न्यायालयों में सर्वत्र अंग्रेजी का ही बोलबाला है। अंग्रेजी हुकूमत के दो सौ साल में भारतीयों के अंदर गुलामी की जो मानसिकता विकसित हुई, वह अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व के रूप में आज तक कायम है। इसका खमियाजा हिंदी के साथ-साथ देश की क्षेत्रीय भाषाओं को भी भुगतना पड़ रहा है। हैरानी इस बात को लेकर है कि ऐसे हिंदी के विरोधी खुशी-खुशी अंग्रेजी की गुलामी तो स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन देश में हिंदी राष्ट्रभाषा बन सके- इस विचार को फूलने-फलने नहीं देते हैं।

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लेखक एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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