महाग्रंथ के जरिये देश को एकता के सूत्र में पिरोया
धीरज बसाक
संस्कृत के प्रथम कवि महर्षि वाल्मीकि भारतीय प्रज्ञा के आदि मनीषी हैं। उनका भारत की संस्कृति और दार्शनिक परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। वह भारत की समूची काव्य परंपरा के नायक हैं, सिर्फ किसी एक भाषा के कवि भर नहीं है। उनके द्वारा रचित रामायण दरअसल भारत की काव्य परंपरा का आधार है। इस महाकाव्य ने भारत में अनगिनत कविताओं और काव्य परंपराओं की नींव रखी है। यह महाकाव्य विश्व साहित्य का सबसे पुराना और सबसे महत्वपूर्ण कविता ग्रंथ है। उन्होंने इस महाकाव्य की श्लोक छंद में रचना की है, उन्हीं के साथ इस काव्य रचना परंपरा की शुरुआत हुई। अपने इस महाकाव्य के जरिये उन्होंने काव्य रचना का एक ऐसा मानदंड स्थापित किया, जिससे आगे चलकर उसी परंपरा में महाभारत और रघुवंशम जैसे महाकाव्यों की रचना हुई।
आगामी 17 अक्तूबर को उनकी जयंती मनायी जायेगी। इस दिन हम महर्षि वाल्मीकि का सम्मान से याद करते हैं, जिन्होंने भारतीय समाज में अपने रामायण महाकाव्य के जरिये नैतिकता का मानदंड स्थापित किया है। रामायण महाकाव्य की सबसे खास विशेषता यह है कि यह हमें बुराई पर अच्छाई की जीत का भरोसा दिलाता है। भारत की नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षाओं का रामायण महाकाव्य आधार है। वाल्मीकि जयंती के अवसर पर विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये इस आदि कवि की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया जाता है ताकि लोग अपने जीवन में नैतिक हो सकें। महर्षि वाल्मीकि को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे रत्नाकर और बाला शाह। उन्हें संस्कृत के आदि कवि यानी प्रथम कवि का दर्जा दिया जाता है और इस नाते वह संस्कृत काव्य परंपरा के संरक्षक हैं। उनकी जयंती के अवसर पर देशभर में जहां उनकी शिक्षाओं पर सेमिनार और संगोष्ठियां होती हैं, वहीं सड़कों में उनकी शोभा यात्रा यानी जुलूस निकाले जाते हैं।
उनका जीवन हमेशा प्रेरित करता है। अपनी निष्ठा और संकल्प से कैसे वह महर्षि बन गये, यह बात हर जानने वाले को चुंबकीय ढंग से आकर्षित करते हैं। उनके अंदर कितनी संवेदना रही होगी कि वह कालांतर में एक सरस कवि और महर्षि बन जाते हैं। उनके इस कायांतरण ने भारत में लाखों लोगों को कविताएं लिखने के लिए प्रेरित किया है। हालांकि, उनके बारे में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। कुछ लोगों के मुताबिक वह एक साधारण व्यक्ति थे, जबकि कुछ संदर्भ उन्हें जन्मजात ऋषि भी मानते हैं। लेकिन जो भी है, उनका जीवन बेहद प्रेरक है। इसी वजह से वह भारतीय काव्य परंपरा के साथ भारत की नैतिक और सांस्कृतिक परंपरा के भी नायक हैं। महर्षि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण विश्व साहित्य का भी सबसे पुराना ग्रंथ है। माना जाता है कि पूरी दुनिया में उन्हीं के इस महाग्रंथ के जरिये काव्य परंपरा की नींव पड़ी।
उनके इस आदि ग्रंथ का इसलिए भी सबसे ज्यादा महत्व है कि उन्होंने दुनिया के पहले काव्य ग्रंथ में ही धार्मिक और नैतिकता की एक ऐसी कसौटी प्रतिपादित कर दी कि जिसके बाद कोई दूसरी कसौटी नही रची जा सकी। उनका यह महाग्रंथ सिखाता है कि परिस्थितियां कितनी ही प्रतिकूल हों, लेकिन इंसान को अपने आदर्शों का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। रामायण के सभी पात्र चाहे वह खुद भगवान राम हों, उनके लघु भ्राता लक्ष्मण हों, पत्नी सीता हों या इस ग्रंथ में आये दूसरे पात्र। सभी धर्म और कर्तव्य का पालन करते हैं। उनके द्वारा दिया गया यह महान काव्य ग्रंथ विश्व समाज को दिखाया गया नैतिक पथ है। उन्होंने तपस्या के बल पर जो ज्ञान अर्जन किया, वह अपने आपमें एक ऐसा प्रेरक तत्व है, जो हर किसी को विषम परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करता है।
महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य रामायण सिर्फ धार्मिक ग्रंथ ही नहीं है बल्कि इसमें जीवन के गहरे दार्शनिक सूत्र और आध्यात्मिक सिद्धांत भी समाहित है। उनका यह असाधारण महाकाव्य कर्म और भाग्य को पूरे महत्व के साथ आपस में पिरोता है। गीता से बहुत पहले महर्षि वाल्मीकि ने दुनिया को यह संदेश दिया था कि हमें अपना कर्तव्य करना चाहिए, परिणाम की फिक्र नहीं करनी चाहिए, यह उसे भगवान पर छोड़ देना चाहिए। रामायण के अंतिम हिस्से में स्वयं भगवान श्रीराम को मोक्ष की प्राप्ति के रूप में देखा जाता है। इस तरह उनका यह ग्रंथ मोक्ष को जीवन के अंतिम लक्ष्य के रूप में स्थापित करता है, जो कि भारतीय दर्शन का आधार है।
महर्षि वाल्मीकि के महाग्रंथ रामायण ने देश को सांस्कृतिक एकता में बांधा है। चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम। देश के सभी क्षेत्रों में उनके इस महानग्रंथ को भरपूर सम्मान मिला है। उनके इस काव्य ग्रंथ ने भारतीय समाज को एक मजबूत डोर से बांधा है। शायद यही वजह है कि रामायण साहित्यिक कृत ही नहीं बल्कि हिंदू धर्म का महान ग्रंथ माना जाता है। इसलिए कहना चाहिए वह महान विचारक, दार्शनिक और समाज सुधारक भी थे। सिर्फ कवि या साहित्यकार नहीं थे, सही मायनों में वह भारतीय प्रज्ञा के आदि मनीषी थे। इ.रि.सें.