मन के जाल हजार
मन के जाल में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं। न तो मन ज्ञान दे सकता है, न अस्तित्व दे सकता है। मन तो सिर्फ झूठ दे सकता है। मन की जो सुनता है, वह झूठ में उतर जाता है। मन कुछ भी नहीं दे सकता।
एक पुरानी कहानी है, एक आदमी ने बड़ी भक्ति की। देवता प्रसन्न हो गए। तो देवता ने उस आदमी को एक शंख दिया। शंख की खूबी यह थी कि जो तुम उससे मांगो, मिल जाए। कहो एक महल, तो तत्क्षण महल तैयार हो जाए। कहो सुस्वादु भोजन, तत्क्षण थाली लग जाए। बड़ा कीमती शंख था। वह आदमी बड़ा आनंदित हुआ। बड़े महलों में, बड़े सुख से रहने लगा।
फिर एक दिन एक धर्मगुरु यात्रा करते हुए उस महल में रुका। उसने भी इस शंख के बाबत बात सुनी। लालच आ गया। उसके पास भी एक शंख था। उस शंख का नाम महाशंख था। धर्मगुरु ने इस आदमी को कहा कि तुम क्या शंख के पीछे पड़े हो! मैंने भी भक्ति की बहुत। मैंने महाशंख पाया। इस महाशंख की बड़ी खूबी है। तुम मांगो एक महल, यह देता है दो।
उस आदमी का लोभ जागा। उसने कहा कि बताओ! उसने महाशंख निकाला। बड़ा शंख था। उस धर्मगुरु ने उसे नीचे रखा और कहा कि भाई, एक महल बना दे। उसने कहा, एक क्यों? दो क्यों नहीं?
जंच गयी बात। उस आदमी ने अपना शंख धर्मगुरु को दे दिया। महाशंख ले लिया। फिर बहुत खोजा उस गुरु को, उसका पता न चला। क्योंकि वह महाशंख सिर्फ बोलता था। तुम कहो, दो, तो वह कहे, चार क्यों नहीं? तुम कहो, चार, तो वह कहे, आठ क्यों नहीं? मगर बस, इसी तरह बात चलती थी। लेने-देने का कोई काम ही न था। वह बिल्कुल महाशंख था।
मन महाशंख है। जो कुछ मिलता है परमात्मा से, मन तो सिर्फ कहता है, इतना क्यों नहीं? और ज्यादा क्यों नहीं? मन तो बातचीत है। मन तो एक झूठ है। मन से कुछ भी नहीं घटता।
और तुम परमात्मा को छोड़ कर मन को पकड़ बैठे हो। वह दोहरे की बात करता है। उससे लोभ जगता है। लेकिन कभी तुम सोचो, मन ने कभी कुछ दिया? मन से कुछ मिला?
-ओशो (साभार)