जीतते-जीतते हारने का यह मलाल
सहीराम
कहावत तो यही है जनाब कि जो जीता वही सिकंदर। हारने वाले को क्या कहते हैं पता नहीं। उसका नाम कभी किसी ने रखा नहीं। कहते हैं जीत के सौ बाप होते हैं। हारने वाले का कोई माई-बाप नहीं होता। हौसलाअफजाई के लिए आने वाले फैंस भी आखिर तक भाग लेते हैं। देशभक्त तक कटाक्ष करने लगते हैं कि अपने को तुर्रम खां समझा था क्या! हारने वाले को सिर्फ अपने आंसुओं का ही सहारा होता है। फिर भी अच्छी बात यह रही कि प्रधानमंत्री ने हमारी हारने वाली क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों को सांत्वना दी और गले लगाया। प्रतियोगिताओं में एक सांत्वना पुरस्कार भी होता है जिसे जलकुकड़े अक्सर आंसू पोंछ पुरस्कार कहा करते हैं।
खैर, हमारी क्रिकेट टीम के फाइनल में हारने से पहले उसकी जीत ही जीत थी। सो जीतने का विकट विश्वास था। कुछ लोग इसे ओवर कॉन्फिडेंस कह सकते हैं। क्रिकेट प्रेमियों में उत्साह था, जिसे अतिउत्साह भी कहा जा सकता है। इसीलिए नीली जर्सियां ही जर्सियां थीं। हारने के बाद अब कुछ लोग उसमें भी घोटाला ढूंढ़ सकते हैं कि किसने सप्लाई की। बहरहाल, कोई अनहोनी न हो इसके लिए प्रार्थनाएं की गयी थीं, यज्ञ-हवन भी किए गए थे। यज्ञ-हवन करने के लिए हम इतने उत्साहित रहते हैं कि हम तो ट्रंप साहब की जीत के लिए भी यज्ञ-हवन कर लेते हैं। फिर भी पता नहीं कि जीत के लिए किया गया यज्ञ-हवन भी आखिर में हार लेकर क्यों आता है। ट्रंप के लिए भी और हमारी क्रिकेट टीम के लिए भी।
बहरहाल, यह तो एकदम ठीक बात है कि आखिर में जो जीतता है, वही सिंकदर होता है। आखिरी जीत से पहले की जीतों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उन्नीस के चुनाव में भाजपा ने तीन-तीन विधानसभा चुनाव हारे थे। लेकिन आखिर में लोकसभा चुनाव उसने जीत लिया और फिर जीत उसी की रही। कुछ लोग इन विधानसभा चुनावों से भी उम्मीद लगाए बैठे हैं। इन चुनावों को लोकसभा का सेमीफाइनल मान रहे हैं। लेकिन फैसला तो फाइनल में ही होगा।
कुछ लोगों को हमारी क्रिकेट टीम अविजित लगने लगी थी। उनका कहना था कि क्योंकि क्रिकेट में कोई आरक्षण नहीं है, इसलिए टीम का प्रदर्शन इतना शानदार है। लेकिन वह फाइनल हार गयी। आरक्षण विरोधी इसका पता नहीं क्या जवाब देंगे। कुछ तो सूर्यकुमार यादव पर दोष डालकर अपनी झेंप मिटा भी रहे हैं। शमी बच गए। प्रधानमंत्री ने उन्हें गले लगाकर रक्षा कवच दे दिया। फिर मैच पाकिस्तान के खिलाफ भी नहीं था। अब भाई क्रिकेट से इतर भी तो खेल होते हैं, सो पनौती-पनौती का खेल भी खेला जा रहा है। ऐसे में कपिलदेव यही कह सकते हैं कि मेरा दुख देश के दुख से बड़ा थोड़े ही है।