जरूरी मुद्दों के प्रति भी जगे ये जुनून
चर्चा तो रहेगी विश्व कप क्रिकेट में भारत के हारने की, पर क्रिकेट का बुखार कुछ उतरता लग रहा है। विश्व कप में लगातार दस मैच जीतने के बाद ऑस्ट्रेलिया के हाथों हारना हमारे लिये एक पीड़ादायक झटका था, इसमें कोई संशय नहीं। जिस तरह का जुड़ाव हमारे देश में क्रिकेट से है, और फाइनल मुकाबले से पहले जिस तरह का क्रिकेट का बुखार देश पर छा गया था वह अविश्वसनीयता की हद तक अपने आप में एक अनावश्यक जुनून ही था। बहरहाल, अब विश्व कप मुकाबले का बुखार उतर गया है, हमारी टीम इस मुकाबले में जीत नहीं पायी। जीत जाती तो बहुत अच्छा था, और हार पर थोड़ा गम होना स्वाभाविक है। हारने के कारणों पर कुछ अर्से तक बहस भी चलती रहेगी, पर बहस इस विषय पर भी चलनी चाहिए कि जिस तरह का जुनून क्रिकेट को लेकर छा गया था, उसे किस सीमा तक उचित कहा जा सकता है।
निस्संदेह, खेल हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। आज क्रिकेट हमारे देश में सर्वाधिक लोकप्रिय खेल बन चुका है, यह भी सही है। कभी हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल हुआ करता था, आज क्रिकेट है। कुछ लोग तो क्रिकेट को भारत का धर्म भी कहने लगे हैं। उस दिन जब अहमदाबाद में विश्व कप फाइनल मैच खेला जा रहा था तो अपने मोहल्ले में बड़े पर्दे पर मैच देखने वाले युवाओं से मैंने भारत की हॉकी टीम के कप्तान का नाम पूछ लिया था। उनमें से एक को भी हमारी हॉकी टीम के कप्तान का नाम नहीं पता था। खिलाड़ियों के भी दो-तीन नाम ही बता पाये थे वे। क्रिकेट मैच के सारे आंकड़े उनकी ज़ुबान पर थे। क्रिकेट के बारे में यह ज्ञान कतई ग़लत नहीं है, पर क्रिकेट के प्रति बावलेपन पर तो सवाल उठना ही चाहिए।
अहमदाबाद के इस मैच से पहले देशभर में भारत की जीत के लिए प्रार्थनाएं की जा रही थीं। हवन हो रहे थे। पूजा-आरती हो रही थी। यह सही है कि इस सब का मुकाबला के परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ा, पर जीत के लिए अपने-अपने आराध्य को रिझाने की कोशिश तो की ही गयी थी। इसे लेकर मेरे मन में तब भी एक सवाल उठा था, अब भी उठ रहा है। जिस भक्ति-भाव से हमने क्रिकेट मैच में जीत के लिए भगवान से प्रार्थना की थी, वह भक्ति-भाव उन 41 मजदूरों के लिए क्यों नहीं उमड़ा जो पिछले 12 दिन से उत्तराखंड की सिल्क्यारा डंडालगांव टनल में हुए हादसे में फंसे पड़े हैं और जिंदगी-मौत की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इन अभागे मज़दूरों के प्रति देश में सहानुभूति नहीं है, पर उनके लिए क्यों नहीं पूजा-आरती हुई, क्यों किसी को कोई हवन कराने की नहीं सूझी? ऐसा नहीं है कि इन मज़दूरों के बचाव के लिए प्रयास नहीं हो रहे, सरकार का दावा है कि इन्हें बचाने के लिए हरसंभव प्रयास किया जा रहा है, उम्मीद की जानी चाहिए कि यह प्रयास सफल होंगे, अभागे मज़दूर फिर से खुली हवा में सांस ले पाएंगे। लेकिन यह सवाल तो बनता ही है कि क्रिकेट की जीत इनके जीवन से अधिक महत्वपूर्ण क्यों मानी गयी?
सवाल सिर्फ इकतालीस मज़दूरों के जीवन का ही नहीं है, सवाल क्रिकेट में हार-जीत का भी नहीं है, सवाल है उस मानसिकता का जो गैर-जरूरी मुद्दों के पक्ष में खड़ा होने के लिए प्रेरित करती है और सही मुद्दों के प्रति एक आपराधिक उपेक्षा का भाव जगाती है। लगभग छह महीने हो चुके हैं मणिपुर में हिंसा की आग थमी नहीं है। अब तो हम यह भी भूलने लगे हैं कि मणिपुर की सड़कों पर कुछ स्त्रियों के साथ वह हरकत की गई थी जिसे सिर्फ वहशीपना ही कहा जा सकता है। क्रिकेट के मुकाबले में हारने के बाद खिलाड़ियों को दिलासा देने वालों को क्यों यह ज़रूरी नहीं लगा कि ऐसा ही दिलासा मणिपुर की उन महिलाओं को भी दिये जाने की आवश्यकता है जिनकी अस्मिता को तार-तार कर दिया गया था? ‘हम तुम्हारी जीत में भी तुम्हारे साथ होते हैं, और तुम्हारी हार में भी तुम्हारे साथ हैं’, ऐसा कोई वाक्य मणिपुर के उन अभागों के प्रति क्यों नहीं उमड़ा जिन्हें उनके घर-द्वार से निकाल दिया गया था और जो आज भी शरणार्थी शिविरों में रहने के लिए विवश हैं?
जब अहमदाबाद में क्रिकेट के मुकाबले की तैयारी चल रही थी, सारे शहर को सजाया जा रहा था तब अयोध्या में दिवाली का एक रिकॉर्ड बनाया जा रहा था। दिवाली के अवसर पर वहां इस बार बाईस लाख दीये जलाकर एक नया कीर्तिमान बनाया गया था। पिछले साल भी वहां ऐसा ही एक कीर्तिमान बना था। इस बार नया रिकॉर्ड बना। अगली दिवाली पर शायद और नया बनेगा। इन कीर्तिमानों की बात तो हम आज कर रहे हैं, पर इस बात की चर्चा कहीं क्यों नहीं हो रही कि दीयों का कीर्तिमान बनाये जाने वाली उस रात में वहां कुछ अभागे बच्चे– कुछ नहीं बहुत सारे– बुझते दीयों का बचा हुआ तेल अपने बर्तनों में भर रहे थे, ताकि उनकी दिवाली में भी कुछ स्निग्धता आ सके! उन्हें यह करते हुए दिखाने वाले कुछ चित्र मीडिया में भी आये थे। कुछ लोगों का कहना है कि यह चित्र पिछले साल के थे। यदि ऐसा है तब भी यह सवाल तो उठता ही है कि जीवन की यह विवशता हमें तब क्यों नहीं दिखती जब हम कीर्तिमान स्थापित करने में लगे होते हैं? दीयों का तेल उठाने की व्यवस्था दिखाने वाले इन चित्रों से हमें इस बात की प्रेरणा क्यों नहीं मिलती कि बाईस लाख अंधियारे घरों के दरवाजों पर दीपक जलाया जाये? वह भी तो एक कीर्तिमान ही होता-- शायद और भव्य और सार्थक कीर्तिमान!
इस स्थिति का सीधा संबंध सही मुद्दों को उठाने और सही के पक्ष में खड़े होने से है। विश्व कप क्रिकेट में जीतने के लिए अपनी टीम के लिए कामना करना, दुआ करना, ग़लत नहीं है। पर जिस तरह इस जीत-हार को राष्ट्रवाद से जोड़ दिया जाता है, उसे सही नहीं कहा जा सकता। हमारी टीम जीत जाती, अच्छा लगता। हार गयी, बुरा लगा। पर यह बात और बुरी लगनी चाहिए कि जब हम क्रिकेट में जीत के लिए प्रार्थना-पूजा कर रहे थे तो हमें यह याद नहीं आया कि हवन में एक आहुति उन मज़दूरों की जीवन-रक्षा के लिए भी दी जानी चाहिए थी जो उत्तराखंड की उस सुरंग में एक-एक सांस के लिए तरस रहे हैं।
आइए, एक आहुति इन मज़दूरों के सकुशल सुरंग से बाहर निकलने के लिए दी जाये। सैकड़ों घंटे हो चुके हैं उन्हें जीवन के लिए लड़ते हुए। बाहर जो जानकारी आ रही है, उसके अनुसार अब उनमें अवसाद और ट्रॉमा के लक्षण दिखने लगे हैं। जीवन में कहीं भी हो, अवसाद मिटना चाहिए। इसके लिए ज़रूरी है हम सही मुद्दों के पक्ष में खड़े हों। विकास के सारे दावों के बावजूद इस बात से मुंह नहीं चुराया जा सकता कि देश का श्रमिक आज भी एक आपराधिक उपेक्षा को सह रहा है। इस उपेक्षा में वह संवेदनहीनता भी शामिल है जो हमारे सोच का हिस्सा बनती जा रही है। इस संवेदनहीनता से बचना होगा। उबरना होगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।