विदेशी निवेश और आर्थिक सुरक्षा में हो समन्वय
तरुण दास
इस वक्त विश्व का हर मुल्क उतार-चढ़ाव और अत्यंत चुनौतीपूर्ण एवं अनिश्चितता भरे समय का सामना कर रहा है। वह देश जिनके पास काबिलियत है, अपने विकास और आर्थिकी को उच्चतम संभावित स्तर पर ले जाने की खातिर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रूप में बाहरी स्रोत पाना चाहते हैं। भारत भी विदेशी निवेश की चाहत रखता है, जिससे कि नई तकनीक और रोजगार मिलें और अतिरिक्त स्रोत पैदा हों। अनुमान लगाया गया है कि भारत के प्रयासों के परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति विदेशी प्रत्यक्ष निवेश लगभग 60 डॉलर है। यह अच्छा है और फिलहाल भारत वह देश है, जिसकी विकास दर इस मामले में सबसे ऊंची है।
लेकिन करोड़ों की संख्या में नए रोजगार पैदा करने, गरीबी से निजात पाने और भारत को जिस तरह की अनेकानेक समस्याएं दरपेश हैं, उनका हल निकालने के लिए प्रति व्यक्ति प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 100 डॉलर होना जरूरी हो जाता है। किंतु प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में हमारा स्थान अच्छा रहने के बावजूद क्या हम यह स्तर पा सकेंगे? और ऐसी दुनिया में यह संभव है जहां आज विदेशी निवेश पाने में भारी प्रतिस्पर्धा हो और सभी देश पूंजी लगाने वालों को बेहतर आकर्षक प्रोत्साहन देकर रिझाने में लगे हैं। प्रतिस्पर्धा जिंदगी का एक रोचक अवयव भी है, यह दबाव पैदा करती है और नूतन विचारों और रणनीति का उद्भव होता है। भारत आगे बढ़ सकता है मगर कुछ कारकों पर ध्यान देना जरूरी है।
सर्वप्रथम, विदेशी निवेशकों का एक बहुत बड़ा मसला यह रहा है कि किसी कंपनी में उनकी हिस्सेदारी 50 फीसदी से अधिक होने पर रोक थी। आज अधिकांश क्षेत्रों में इसकी इजाजत है। यहां तक कि रक्षा उद्योग और बीमा क्षेत्र में भी, दीगर संयुक्त उपक्रमों में विदेशी निवेशकों की हिस्सेदारी 74 प्रतिशत तक रहने की छूट दे गई है। यह सोचकर कि कहीं कंपनियों का नियंत्रण और नियमन विदेशी निवेशकों के हाथ में न चला जाए इसलिए हिस्सेदारी में उनकी ऊपरी सीमा 50 फीसदी तक सीमित रखने की मानसिक-ग्रंथि का नतीजा यह अवयव था।
द्वितीय, भारत में सरकारी दफ्तरों में कामकाजी प्रक्रिया और गति कभी तेज नहीं रही। वास्तव में एकल खिड़की सुविधा नहीं थी, खासकर उन उद्यमों में जहां केंद्रीय और राज्य सरकारें, दोनों की मंजूरी लेना शामिल हो। बहुत से देशों में विदेशी निवेशकों को बढ़ावा देने और त्वरित हरी झंडी देने के लिए एक शक्ति-संपन्न बोर्ड ऑफ इन्वेस्टमेंट नामक अलग विभाग है। भारत में जिस कदर बाबूडम हावी है, जरूरी है इसके मद्देनज़र प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत बोर्ड ऑफ इन्वेस्टमेंट बनाकर इसका अलग सचिवालय हो। जब 1991-96 के बीच विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड के रूप में ऐसी व्यवस्था हुआ करती थी। बोर्ड ऑफ इन्वेस्टमेंट और विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड की अध्यक्षता भारत सरकार का वह सचिव करे, जिसकी वरिष्ठता का सम्मान सब करते हों। जो भी प्रस्ताव आए उसे 90 दिनों के भीतर मंजूरी मिले या वापस भेजा जाए। इन्वेस्टमेंट इंडिया नामक एक संस्था जरूर है, लेकिन यदि प्रति व्यक्ति 100 डॉलर विदेशी निवेश पाने का लक्ष्य पाना है तो प्रधानमंत्री कार्यालय को और ज्यादा भूमिका निभानी होगी।
तृतीय, भारत को विदेशी निवेश पाने के लिए विश्व की चोटी की 500 कंपनियों तक पैठ बनाने के लिए एक गतिशील रणनीति बनाने की जरूरत है। आपूर्ति शृंखला में बदलाव और उद्योगों के स्थानांतर पर बहुत कुछ कहा जा चुका है परंतु भारत में इन विचारों का लाभ कम ही हुआ है। एशिया में विदेशी निवेश की आमद का असली फायदा वियतनाम और थाइलैंड को हुआ है। उनके बोर्ड ऑफ इन्वेस्टमेंट गतिशील प्रोत्साहन नीति का पालन के अलावा एक सुचारु मंजूरी प्रक्रिया रखते हैं।
चतुर्थ, हमारी बहुत-सी नीतियाें में कही बातें साफ न होने से स्पष्टता की कमी रहती है और निर्णय लेने में देरी होती है। नीतियां सुस्पष्ट शब्दों में हों जिन्हें पढ़ने वाला आसानी से समझ ले। यह काम भारतीय नीति एवं प्रक्रिया की इबारत लिखने वालों के लिए एक चुनौती है। हर बार जो प्रारूप छपता है, उसके अलग मायने निकलते हैं और इससे देरी और भ्रष्टाचार का मौका बनता है। देरी होना मायने कई तरह का घाटा।
पंचम, प्रक्रिया नीतियों की निरंतरता स्थाई बनाई जाए। न कोई यू-टर्न हो, न आश्चर्यभरा कदम। न ही विगत के संदर्भ में कार्रवाई हो। जब बात भारत की आए तो यह वह मसले हैं जो विदेशी निवेशकों को पूंजी लगाने में डरा देते हैं। भारत को एक ऐसा देश माना जाता है जहां ‘कभी रोका-कभी जाने दिया’ प्रवृत्ति है, जब चाहा प्रक्रिया बदल जाती है और जो नीतियों में निरंतरता बरतने में यकीन नहीं रखता। विदेशी निवेशकों के लिए यह बड़ी समस्या है। उन्हें वास्तविक आश्वासन सिर्फ तभी मिल पाएगा जब संसद में इस पर बाकायदा कानून और अधिनियम पारित हो। यह भी कि विगत के संदर्भ में कार्रवाई नहीं होगी।
छष्ठम, भारत को विश्वसनीय संयुक्त उद्यम साझीदार पाने में एक मुश्किल देश माना जाता है। फिर चाहे यह कंपनी सार्वजनिक हो या निजी क्षेत्र की। कुछेक भारतीय कंपनियों की साख और विश्वसनीयता की वजह से विदेशी निवेशक साझेदारी बनाने में दिलचस्पी उन तक केंद्रित रखते हैं। यह मसला सरकारें नहीं सुलझा सकेंगी। यह निजी क्षेत्र का मामला है और विगत में ऐसे बहुत से संयुक्त उद्यम हुए हैं, जो ‘सांस्कृतिक भिन्नता’ की वजह से टूट गए। इसलिए आगे की राह में सावधानी रखना ही सबसे सही होगा और दृष्टिकोण लंबी अवधि वाला रखना जरूरी है।
सप्तम, भारत में पूंजी लगाने के लिए प्रेरित करने के लिए विदेशी निवेशकों को निरंतर सजग रखना जरूरी है। हमारा देश एक जरूर है लेकिन हर सूबा दूसरे से भिन्न है। राज्य से राज्य के बीच रीति-रिवाज, संस्कृति, भाषा बदल जाती है और राज्य सरकारों की ज्यादातर जिंदगी पांच साल होती है, सरकार बदलने के साथ नीतियां भी नई बनती हैं। यह कुछेक विषय हैं जिनके बारे में विदेशियों को पूर्व में चेताकर गलतियां न करने में मदद की जाए ताकि बाद में इल्जाम भारत पर न लगाएं।
अष्टम, जहां भारतीय नीतियों का ज्यादा ध्यान बड़ी अर्थव्यवस्थाएं जैसे कि अमेरिका, दक्षिण कोरिया, यूके, फ्रांस, जर्मनी और इटली के निवेशकों को आकर्षित करने पर केंद्रित रहता है वहीं किसी अन्य राष्ट्र विशेष की विशिष्ट तकनीक के आधार पर नीतियां और योजना बनाने की आवश्यकता पर ध्यान देना भी जरूरी है। इस बाबत छोटी अर्थव्यवस्थाओं का महत्व भी बड़े मुल्कों जितना है, जैसे कि इस्राइल, यूएई, सिंगापुर, नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड और डेनमार्क इत्यादि जिनके पास अपनी विशिष्ट तकनीकें हैं, अतएव इनके लिए अलग से विशेष नीति बनाई जाए। भारतीय उद्योग जगत के लिए भी वक्त के साथ ढलना और नया अपनाना जरूरी है।
नवम, भारत को नवीनतम डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल करते हुए विदेशी निवेश रणनीति प्रकोष्ठ बनाने की जरूरत है, जहां पर व्यापार, निवेश, कंपनियां, तकनीक, क्षेत्र, कार्यबल, अनिवासी भारतीय समुदाय की भूमिका इत्यादि संबंधी डाटा तत्काल उपलब्ध हों। यह प्रकोष्ठ की भूमिका विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पाने में काफी होगी क्योंकि आजकल रोजाना बदलते परिवेश में वास्तविक समय वाले डाटा का बहुत महत्व है।
प्रति व्यक्ति विदेशी प्रत्यक्ष निवेश 100 डॉलर का लक्ष्य पाने में उपरोक्त बताए अवयव जरूरी कारकों में हैं। भारत की वैश्विक स्थिति तब फिर बहुत महत्वपूर्ण हो जाएगी। साथ ही इसका सकारात्मक प्रभाव रोजगार, विकास और वृद्धि पर होगा! ठीक इसी समय, राष्ट्रीय आर्थिक सुरक्षा हितों का भी ध्यान रखना होगा। यह सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय एक मुफीद संस्था रहेगी। पिछले कुछ सालों में, भारत ने आर्थिक सुरक्षा से संबंधित लंबित पड़े कुछ जरूरी कदम उठाए हैं जो आगे जारी रहें।
लेखक सीआईआई के पूर्व महानिदेशक हैं।