तब और अब
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
मुझे लगता है कि इस संसार में हर आदमी जीवन भर जिसे शिद्दत से ढूंढ़ता रहता है, वह होता है उस का खोया हुआ बचपन।
निःसंदेह, बचपन की यादें आदमी के हृदय में सदा-सदा के लिए बस जाती हैं और गाहे-बगाहे, कभी-न-कभी, हर किसी को अपना बीता हुआ अतीत, खास रूप से बचपन, याद आता ही है।
मैं फुरसत में बहुत कम ही रह पाता हूं, चूंकि महीने में कम-से-कम पंद्रह दिन तो प्रवास में ही बीतते हैं मेरे। कल ही प्रवास से लौटा था, इसलिए आज थोड़ी फुरसत-सी दिखाई दी तो अखबार लेकर बैठ गया था।
तभी अचानक दरवाज़े से आवाज़ आई, ‘अरे, भाई! श्रीमान योगी जी घर में विराज रहे हैं क्या?’
पत्नी इस आवाज़ को सुनकर चौंकी और अखबार पढ़ते-पढ़ते मेरा ध्यान भी अनायास ही टूटा, तो मैंने भी पत्नी को आवाज़ लगाई, ‘अरे, जरा देखना तो, बाहर कौन हैं?’
पत्नी रसोई से उठकर बाहर आई और गेट खोलते ही, जोरों से चहकती हुई सी बोली, ‘अरे...रे! आइए, आइए, भाई साहब! आज कहां से इधर पधार रहे हैं आप?’
मैंने कौतूहल से भरे हुए देखा कि श्रीमती के साथ, मुस्कुराता हुआ, मेरे बचपन का प्यारा दोस्त सूरज प्रकाश चला आ रहा है। अखबार को मेज़ पर पटक कर, मैं गर्मजोशी के साथ उठा और आगे बढ़ कर सूरज प्रकाश को मैंने बाहों में भरकर गले से लगा लिया। असल में, सूरज प्रकाश इंटरमीडिएट तक मेरा क्लास-फैलो रहा है और कॉलेज के दिनों में हमारी दोस्ती को देखकर पूरी क्लास हमें हंस कर ‘क्यू-यू’ कहा करती थी।
आज सूरज प्रकाश अधिशासी अभियंता है और मैं पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज का प्राचार्य बन चुका हूं, लेकिन वह मुझे कॉलेज के दिनों की तरह ही, हमेशा बस ‘योगी’ कहकर बुलाता है और मैं भी उसे तब से ही सिर्फ ‘सूरज’ ही कहता हूं। हम दोनों ही अपने बचपन की यादों को कभी भुला ही नहीं सके।
सूरज का हाथ अपने हाथों में पकड़े हुए मैं उसे ड्राइंग-रूम में ले आया और पत्नी शायद चाय बनाने के लिए मुस्कुराती हुई रसोई में चली गई। मैंने बड़े ही प्यार से सूरज का हाथ दबाते हुए पूछा, ‘कहिए इंजीनियर साहब! कैसी कट रही है आप की आजकल लखनऊ में? हमारी भाभी और बच्चे तो सब मज़े में हैं न? यार! कई बार मन हुआ कि तुझसे लखनऊ आकर मिल आऊं, लेकिन बस, मौका ही नहीं लग पाया। तू सुना यार!... क्या ठाठ हैं तेरे लखनऊ में?’
मैंने महसूस किया कि सूरज प्रकाश भी बढ़ती उम्र और ऊंचे पद को ताक पर रखकर, जैसे सुनहले अतीत की मीठी यादों में डूब सा गया है। अनायास ही सूरज कुछ भर्राए हुए से स्वर में बोला, ‘क्या बताऊं, योगी! इधर मैं भी कई उलझनों में बेहद उलझा रहा, लेकिन यार तेरी याद खूब आती रही।’
इस बीच श्रीमती चाय बनाकर ले आई और सूरज को प्याला पकड़ाते हुए बोली, ‘भाई साहब, यह तो सरासर गलत बात है कि आप अकेले ही चले आए हैं, हमारी भाभी जी को साथ क्यों नहीं लाए?’
श्रीमती जी के प्यार भरे उलहाने पर जोरों का ठहाका लगाते हुए सूरज बोला, ‘अरे मेरी भाभी! उसे अपने घर और बच्चों से फुरसत मिले, तब ही तो मेरे साथ कहीं आ-जा सकती है?’ और हम तीनों हंसते हुए चाय पीने लगे। चाय खत्म हुई तो श्रीमती जी बर्तन उठाकर चली गई।
तभी अचानक सूरज चहकते हुए बोला, ‘यार योगी! तुझे तो किरण याद है न? अरे, वही जो इंटरमीडिएट में हमारे साथ ही पढ़ती थी?’ मैं कुछ याद करते हुए बोला, ‘अरे, वो किरण सूद ही न? अरे हां, उसे तो मैंने कई बार ‘डिबेट’ के लिए भाषण लिख कर दिए थे... याद आया, वो तो कई बार मेरे साथ ‘डिबेट’ में भाग लेने भी गई थी लेकिन... बेचारी बस ‘कॉन्सोलेशन’ प्राइज़ ही ले पाई और हम दोनों अपने कॉलेज के लिए ‘शील्ड’ जीतकर लाया करते थे। क्या हुआ किरण को? वो भी तो कहीं इंजीनियर ही थी न?’
सूरज ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और चहकते हुए बोला, ‘अरे यार, योगी! गज़ब हो गया है। पता है यार, वो किरण आजकल चीफ इंजीनियर हो गई है और... मेरी ‘बॉस’ आजकल वही है।’
मैं बुरी तरह चौंकते हुए बोला, ‘अरे... क्या कह रहा है तू? ...वो किरण वो कब बन गई चीफ इंजीनियर? तेरी बॉस है वो? तू मिला है क्या किरण से?’ मैंने सवालों की झड़ी-सी लगा दी, तो सूरज ने सारी बात विस्तार से बताते हुए कहा, ‘यार, योगी! इंटरमीडिएट करने के बाद किरण को तो सीधे बी.टैक. में दाखिला मिल गया था, लेकिन मुझे ‘डिप्लोमा’ में एडमिशन लेना पड़ा था! बाद में मैं भी ए.एम.आई.ई. करके प्रमोशन लेता रहा। लेकिन मेरे भाई! किरण की तो पहली पोस्टिंग ही सहायक अभियंता के पद पर हुई थी इसीलिए उसे तो प्रमोशन भी जल्दी-जल्दी मिलते गए और आजकल तो किरण हमारी चीफ इंजीनियर है; लखनऊ में ही बैठती है यार।’
मुझे किरण के बारे में बताते हुए सूरज प्रकाश काफी उत्साहित-सा लगा। अनायास ही सूरज बोला, ‘यार! पिछले सप्ताह एक बहुत जरूरी मीटिंग थी, लेकिन तब तक तो मुझे दूर-दूर तक भी पता नहीं था कि हमारे साथ इंटरमीडिएट में पढ़ी हुई किरण सूद ही चीफ इंजीनियर है असल में यार उसने तो ‘इंटरकास्ट’ मैरिज करके अपना ‘सरनेम’ ही बदल लिया है। हमारे साथ पढ़ी हुई किरण सूद तो अब ‘किरण सिंह’ बन गई है। सच कहूं यार! उसे देख कर मैं तो अचंभे में पड़ गया था।
अब तो मेरी भी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। मुझे लगा कि कई वर्षों पहले का अतीत जैसे मेरी आंखों के सामने खुद-ब-खुद साकार होने लगा था। मुझे बेहद भोली-सी, दुबली-पतली सी लड़की का चेहरा याद आया, जो प्रिंसिपल साहब के कहने पर मेरे साथ ‘टीम’ बनाकर एक स्थानीय भाषण प्रतियोगिता में जाने को तैयार हो गई थी। मुझे याद आया कि मैंने उसे जो भाषण लिखवाया था, उसे पहली बार में ही उस हिम्मती लड़की ने पूरे जोश के साथ प्रतियोगिता में बोलकर ‘सांत्वना पुरस्कार’ भी जीता था और हम दोनों कॉलेज के लिए बहुत ही बढ़िया ‘शील्ड’ जीत कर लाए थे।
कॉलेज में जब जीती हुई शील्ड हमने अपने प्रिंसिपल साहब को दी थी, तब बहुत ही शालीनता और कृतज्ञता के स्वर में किरण सूद ने प्रिंसिपल साहब को कहा था, ‘सर, मुझे आज जो यह प्राइज़ मिला है, वह भैया के कारण ही मिला है।’
प्रिंसिपल-ऑफिस से बाहर आकर मैंने भी बेहद खुश होकर किरण से कहा था, ‘सच कहूं, किरण! तुम बहुत हिम्मत वाली लड़की हो... बहुत बढ़िया बोली हो तुम! असलियत तो ये है कि तुम्हारे कारण ही हमारे कॉलेज को आज यह शील्ड मिली है।’
जाने क्या हुआ कि किरण अत्यंत भावुक हो कर मेरे दोनों हाथ पकड़ कर बोली थी, ‘यह तुम्हारा बड़प्पन है भैया! सच बताऊं तो तुम भी हंसने लगोगे। जब मैं मंच पर बोलने गई थी, तो सचमुच मैं बहुत नर्वस थी और मेरे पांव कांप रहे थे, तभी तुमने अपनी उंगलियों से ‘वी’ बनाकर जो हिम्मत मुझे दी, उसी के कारण मैं बोलती गई। थैंक यू वैरी मच भैया। ...फर्स्ट तो तुम ही आए हो, तभी तो हमें यह शील्ड मिली है।’
तभी मेरे दोस्त सूरज ने जैसे अतीत के समुद्र से डूबते-उतराते हुए मुझको, वर्तमान में खींच लिया। सूरज की प्यारी-सी आवाज़ मुझे सुनाई दी, ‘यार! जैसे ही मीटिंग में मैडम सिंह आई, तो मैं किरण को एकदम पहचान गया था लेकिन पूरी मीटिंग में मैं खामोश ही बैठा रहा।’ सूरज कहता जा रहा था और मैं उत्सुकता में डूबा हुआ उसकी बात सुन रहा था। सूरज बोला, ‘यार योगी! जैसे ही मीटिंग खत्म हुई तो हिम्मत करके मैं किरण के पास पहुंचा और बोला, ‘एक्सक्यूज़ मी मैडम! मैं आपके दो मिनिट लेना चाहता हूं।’
मेरी उत्सुकता चरम पर थी और मेरे मुंह से निकला, ‘तो क्या कहा तेरी मैडम किरण सिंह ने?’
सूरज ने बताया, ‘मेरी बात सुनकर मैडम बिल्कुल ‘बॉस’ वाले लहज़े में ही बोली, ‘हां, हां... कहिए, मिस्टर! क्या कहना चाहते हैं?’ यार, तुझे क्या बताऊं, एक बार तो अजीब-सा लगा, लेकिन फिर मैं बोल ही पड़ा, ‘सॉरी, मैडम! बस, इतना ही जानना चाहता हूं कि क्या आप हरिद्वार में पढ़ी हैं?’
मेरे मुंह से अनायास ही निकला, ‘तो क्या जवाब दिया तेरी मैडम ने?’ तो सूरज ने बताया, ‘यार! गज़ब हो गया था मेरा सवाल सुनकर मैडम बोली, ‘हां, मैं हरिद्वार में ही पढ़ी हूं कहीं आप मिस्टर सूरज प्रकाश?’
और, मैंने देखा कि मेरे दोस्त सूरज के चेहरे पर चमक छा गई है। बड़े ही उत्साह में सूरज प्रकाश मुझे बता रहा था, ‘यार, योगी! मैडम का सवाल सुनकर मैं तो बस चहक-सा उठा और बोला, ‘जी, जी, हां मैडम! मैं ही सूरज प्रकाश हूं।’ तब यार, मैडम किरण भी मुस्कुराई और खुश होकर बोली, ‘ऑफिस में मिलकर जाइएगा।’ और सूरज गद्-गद स्वर में बोला, ‘सच कहूं, योगी! मुझे बहुत-बहुत अच्छा लगा और बेहद खुशी हुई।’
सच कहूं, तो किरण सूद के बारे में वर्षों बाद सूरज प्रकाश से यह सब सुनकर मुझे भी प्रसन्नता के साथ-साथ गर्व की सी अनुभूति भी हुई। फिर भी मैंने उत्सुकता शांत करने की नीयत से सूरज की तरफ देखते हुए पूछा, ‘तो फिर किरण से तू उसके ऑफिस में जाकर मिला? कैसी रही तेरी मुलाकात?’
तब सूरज ने बताया, ‘यार! मैं उत्साह में भरा मैडम के ऑफिस पहुंचा, तो देखा कि मैडम के कमरे में तो पहले से ही लोग बैठे हुए थे। मैं पुनः खड़ा हो गया! जैसे ही, मैडम की नज़र मुझ पर पड़ी, तो वो बोलीं, ओह, मिस्टर सूरज प्रकाश, प्लीज़ टेक योर सीट! बैठिए’ और मैडम ने ऑफिस में बैठे लोगों की समस्याएं सुन-सुनकर, सबको निपटा कर भेज दिया! जब लगभग सभी लोग चले गए, तो मैडम ने मुझे अपने सामने की सीट पर बैठने को कहा और बोलीं, ‘मिस्टर सूरज प्रकाश! आपके एक ‘क्लोज़ फ्रेंड’ हुआ करते थे मिस्टर योगी? वे आजकल कहां हैं? क्या करते हैं?’
और, जब चाय पीते हुए मैंने मैडम किरण सिंह को बताया कि मैडम, हमारे साथ पढ़ने वाले सहपाठी आजकल एक बहुत बड़े और नामी पोस्टग्रेजुएट कॉलेज में प्रिंसिपल के पद पर कार्यरत हैं, तो यार, मैडम बेहद खुश हुई और मुझसे बोली, ‘मिस्टर सूरज प्रकाश! जब कभी आपके मित्र लखनऊ आएं तो हमसे जरूर मिलवाइएगा, हम पर तो उनके बहुत अहसान हैं भई।’
सूरज प्रकाश से वर्षों बाद किरण के विषय में यह सब सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा और सच कहूं तो बेहद खुशी भी हुई। श्रीमती जी दोबारा चाय बना लाईं और प्याले हमें देते हुए सूरज से मुखातिब होकर बोली, ‘भाई साहब! बताइए, आप लंच में क्या लेंगे? मैं आपके लिए वही बना दूंगी।’
बेहद प्रसन्न होकर सूरज बोला, ‘भाभी! आज तो बस मुझे माफी ही देनी पड़ेगी आपको, क्योंकि लंच तो मुझे आज देहरादून में करना है यार योगी! समय हो तो चल मेरे साथ देहरादून? हमारे एक साथी की बेटी का आज विवाह है और मुझे उसमें शामिल होना पड़ेगा।’
मैंने भी जब सूरज को अपनी व्यस्तता बताई, तो वह बोला, ‘यार योगी! तू अगले सप्ताह लखनऊ आजा न? मैं स्टेशन पर तुझे लेने आ जाऊंगा। अब देख न, हमारी चीफ मैडम किरण सिंह भी तेरी बहुत इज्जत करती हैं। इसी बहाने उनसे भी मिल लेना। अरे मेरे यार! इसी बहाने मैडम की नज़रों में मेरे नंबर भी बढ़ जाएंगे। आखिर मैडम मेरी तो बॉस है न?’
सूरज का उत्साह और बचपन का हम दोनों का गहरा लगाव देखते हुए मैं बोला, ‘तू भी क्या याद करेगा, मेरे यार! अगले सप्ताह मुझे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी जाना है तभी एक दिन मैं तेरे पास भी रुक लूंगा लेकिन मेरा रिज़र्वेशन तो तुझे ही देखना पड़ेगा।’
लगा कि जैसे मनचाही मुराद मिल गई हो, सूरज एकदम चहकते हुए बोला, ‘तो प्रोग्राम पक्का रहा मेरे भाई! लखनऊ से तेरे लौटने का कन्फर्म रिज़र्वेशन कराना मेरी जिम्मेदारी रहेगी। बस, तू आ जा यार! सच कहता हूं... बड़ा मजा आएगा।’
और, चाय खत्म करके सूरज चला गया।
मैं अगले सप्ताह, निर्धारित कार्यक्रम के तहत जब इलाहाबाद से लखनऊ पहुंचा, तो सूरज प्रकाश स्वयं गाड़ी लेकर स्टेशन पर हाज़िर था। हम जैसे ही गाड़ी में बैठे, वैसे ही खुशी से लबालब भरे हुए, सूरज ने मुझे बताया, ‘यार! मैडम किरण सिंह ने आज शाम को चार बजे का टाइम हमें मिलने का दिया है।
असल में, कल जब मैंने उन्हें तेरे आने की बात बताई तो बेहद खुश होकर बोली, ‘ओह मिस्टर सूरज प्रकाश! कल तो मैं बहुत ज्यादा बिज़ी हूं लेकिन फिर भी, आप डॉक्टर साहब को शाम चार बजे मेरे ऑफिस में ही ले आइएगा। मैं थोड़ा तो वक्त जरूर निकालूंगी ही।’
मुझे यह सब सुनकर अजीब-सा लगा।
वर्षों बाद... शायद तीस वर्षों के लंबे अंतराल के बाद कोई अपने ‘बचपन के साथी’ अपने क्लास-फैलो से मिल रहा हो और कहे कि ‘बहुत बिज़ी हूं फिर भी चलिए ले आइएगा, थोड़ा तो वक्त जरूर निकालूंगी ही।’
सच कहूं, मुझे सूरज के मुंह से यह सब सुन कर, जाने क्यों... बहुत ही अजीब-सा लगा और मेरे मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘छोड़ यार, तुम्हारी इस मैडम किरण सिंह से फिर कभी मिल लेंगे।’ लेकिन सूरज तपाक से बोला, ‘यार योगी! इतना तो सोच कि मैडम किरण चीफ इंजीनियर है, बिज़ी तो वो होगी ही... इट इज़ बट नेचुरल मेरे भाई फिर भी तेरे आने की बात सुनकर मैडम ने हमें तुरंत मिलने का समय दिया है और तू है कि... अब मिलने से ही मना कर रहा है? यार, योगी! यही सोच ले कि मेरी खातिर तुझे मैडम से आज शाम को मिलना ही है।’
मुझे लगा कि जैसे सूरज की कोई समस्या अवश्य है, जिसका समाधान कराने के लिए ही वह मेरी भेंट मैडम किरण सिंह से कराने को इतना आतुर हो रहा है। वैसे किरण से मिलने की उत्सुकता तो मुझे भी थी ही।
सूरज के साथ मैं पौने चार बजे किरण सिंह के ऑफिस पहुंच गया, लेकिन मैंने देखा कि सूरज ने चपरासी को अपने नाम की ‘विज़िटिंग स्लिप’ न देकर मेरे नाम की स्लिप दी है, जिसे लेकर चपरासी अंदर गया और हम दोनों ‘विज़िटर-रूम’ में बैठकर प्रतीक्षा करने लगे।
सवा चार बज गए, तो सूरज प्रकाश ने उस चपरासी को फिर से याद कराया कि मैडम ने हमें चार बजे का टाइम दे रखा है। चपरासी फिर अंदर गया और कुछ देर बाद लौटकर बोला, ‘आइए, सर! मैडम ने आपको बुलाया है।’ और हम उठकर चपरासी के पीछे-पीछे चले गए।
मैं सूरज के साथ मैडम किरण सिंह के कमरे में जब पहुंचा, तो देखा कि उनकी कुर्सी तो खाली है। हम दोनों बैठ गए, तभी ‘वाश रूम’ से मैडम निकल कर आईं! सूरज उन्हें देखकर खड़ा हो गया, लेकिन मैं बैठा ही रहा। अपनी कुर्सी पर बैठते हुए मैडम किरण सिंह ने सूरज द्वारा चपरासी के हाथ भेजा गया मेरा ‘विज़िटिंग कार्ड’ पढ़ते हुए कहा, ‘स्वागत है प्रिंसिपल साहेब! कैसे हैं आप? आपके दोस्त बता रहे थे कि बहुत बड़े विद्वान हो गए हैं आप तो... आपका स्वागत है।’
मैं हंसते हुए, बड़ी ही बेतकल्लुफी से बोल पड़ा, ‘अरे किरण! मैं कहां का बड़ा और कैसा बड़ा? सच कहूं तो बड़ी तो तुम हो गई हो पूरे प्रदेश की चीफ इंजीनियर बनकर, हमारे प्रदेश को संभाल रही हो... सचमुच किरण! आज मैं गर्व महसूस कर रहा हूं।’
तभी, मैडम की मेज़ पर रखा हुआ फोन घनघना उठा, किरण ने फोन सुना कई बार... ‘सर...सर, ओके सर’ जैसे शब्द कहे और फोन रखते हुए बोली, ‘वैरी सॉरी, प्रिंसिपल साहब! मिनिस्टर साहब की बहुत अर्जेंट कॉल है मुझे तुरंत जाना पड़ेगा आप कल...?’
मैं तुरंत बोल पड़ा, ‘इट्स ओ.के. मैडम! कोई बात नहीं असल में... मैं तो आया था वर्षों पुरानी अपनी प्यारी सी... ‘क्लास-फैलो’ किरण सूद से मिलने, लेकिन... देख रहा हूं कि यहां तो कोई मैडम किरण सिंह, चीफ इंजीनियर बैठती हैं जिनके लिए उंगलियों से ‘वी’ बनाकर दिखाने वाला ‘भैया’ जाने कब बहुत पराया... बेहद अनजाना हो गया है शायद कहीं खो गया है? आज तो मैडम किरण सिंह, विज़िटिंग कार्ड पढ़कर किसी ‘प्रिंसिपल’ से मिल रही हैं। चलिए मैडम, थैंक यू वेरी... वेरी मच! और हां, मैं तो आज रात को ही लौट रहा हूं।’
लौटते हुए मेरे दोस्त सूरज का उत्साह जैसे खत्म हो गया था। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर, हंसते हुए कहा, ‘यार सूरज! सच कहूं मेरे दोस्त, हम बहुत खुशकिस्मत हैं कि हमारा प्यारा-सा बचपन आज भी हमारे दिलों में ज़िंदा है। जानता है मेरे यार! ये तेरी मैडम किरण तो अपने बचपन के अहसासों को ‘चीफ इंजीनियर’ की कुर्सी के पायों से कुचल कर मार चुकी है।’
मैं ट्रेन में बैठ चुका हूं। मुझे स्टेशन पर छोड़कर घर लौटते हुए सूरज ने पूछा था, ‘योगी! यार... अब कब आना होगा तेरा?’ मैं कोई उत्तर नहीं दे पाया था अपने दोस्त को, जिसकी बैसाखी मैं नहीं बन सका।
ट्रेन दौड़ रही थी और मैं सोच रहा था कि ‘तब’ और ‘अब’ में कितना अंतर हो गया है?