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एक मुट्ठी सुख

05:54 AM Nov 17, 2024 IST
एक मुट्ठी सुख
चित्रांकन : संदीप जोशी
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केदार शर्मा
दो दिन से नूरपुर की ढाणी के पास कच्ची सड़क से पक्की सड़क बनाने का काम चल रहा था। ट्रैक्टर, रोलर और मिक्स्चर मशीन रोड पर खड़े थे। ठेकेदार,नाप-जोख करने वाले पांच-सात पुरुष और हाथों में गेंती,फावड़ा और परातें लिए महिला मजदूरों की अच्छी खासी चहल-पहल थी। दोपहर में एक घंटा उनके विश्राम का था जिसमें भोजन, बातचीत और हंसी ठट्ठा शामिल था। अपनी स्कूल की ड्यूटी पूरी करके मास्टर ब्रह्मानंद भी वहां से रोज आते-जाते यह सब देख रहा था। एक दिन सड़क पर झुण्ड बनाकर बैठी महिलाओं ने ब्रह्मा को रोक लिया और पूछने लगी-‘बाबूजी,इधर से रोज किधर आते-जाते हो?
ब्रह्मानंद ने कहा कि ‘नूरपुरा की ढाणी के स्कूल में पढ़ाता हूं और शहर में किराए का मकान ले रखा है,वहीं से आता-जाता हूं।’
नीम की उस सघन और शीतल छाया में विश्राम कर उसने साईकिल उठायी और फिर से चल पड़ा। अप्रैल माह में शनै: शनै: बढ़ती तपन,सांय-सांय करती तेज हवाओं के बीच यह नीम का वृक्ष किसी मिड वे रिजॉर्ट से कम नहीं था।
उस दिन भी रोज की तरह स्कूल से वापस आते समय उसी नीम के नीचे हंसी-ठट्ठा करते पाया। इस तपतपाती धूप में मिट्टी खोदना, सिर पर ढोना और रोड पर डालना कम श्रमसाध्य काम नहीं है। काम की थकान धूप की तपन और गृहस्थ जीवन की आपाधापी के दु:खों को भुलाकर उस एक घंटे के विश्राम में एक मुट्ठी सुख बटोरने की मानो होड़ लग जाती थी। ब्रह्मा भी साईकिल को स्टैंड पर लगाकर उस गोष्ठी में शामिल हो जाता था। जहां महिलाओं की संख्या अधिक हो और अकेला पुरुष खड़ा हो तो महिलाएं बेचारे उस पुरुष की उपस्थिति को अनदेखी कर अपनी वाचालता के प्रवाह में कोई कमी नहीं आने देती। धीरे-धीरे इस वाचालता का केन्द्र बिंदु वे सब ब्रह्मा को बनाने लगी थी। एक महिला- ‘मास्टर साहब हमें भी पढ़ा दिया करो।’ दूसरी कहती-‘ मास्टर साहब ये सब पकी हुई मटकियां हैं, इन पर कुछ भी नहीं चिपकने वाला,इनको तो टेम पास करना है बस।’ ब्रह्मा के बोलने की बारी तो वे मुश्किल से ही कभी-कभी आने देती थी।
एक दिन स्कूल से वापस लौटते समय ब्रह्मा की साइकिल के पिछले पहिए में पंक्चर हो गया। गांव की एकमात्र दुकान भी आज बंद थी, सो पैदल ही चलना पड़ा। रोड का काम अब आगे बढ़ चुका था। नीम का वृक्ष अब छूट गया था और खेजड़ी की छाया में मजदूर विश्राम कर रहे थे। हंसी के ठहाके दूर से ही सुनाई पड़ रहे थे। वे कुछ कहती उसके पहले ही ब्रह्मा ने बोलना शुरू कर दिया- ‘आज पता नहीं किसने मेरी साईकिल को नजर लगा दी है सो पिछले पहिए की हवा निकल चुकी है।’ एक महिला ने कहा-‘नजर उतारने का एक टोटका है हमारे पास। एक बोरी लाल मिर्च भरकर बेचारे गरीब मजदूरों को दान कर दो।’ एक अन्य महिला ने दूसरी के ठल्ला देकर कहा -‘तू जानती नहीं मास्टर लोग बहुत कंजूस हुआ करते हैं।‘ कोई तीसरी कहती है- ‘हमारी दुआएं ले लेते तो एक भी पंक्चर नहीं होता।’ इस तरह आपसी चुहलबाजी में एक घंटा विश्राम का समाप्त हो चुका था। उधर ठेकेदार आवाज लगा रहा था-‘जल्दी से सब काम पर लग जाओ,सब उठ जाओ। ठेकेदार थोड़ा नजदीक आ चुका था, हंसकर कहने लगा-‘मास्टर साहब आपने तो आज की कमाई खरी कर ली है,अब बेचारे इन मजदूरों को भी तो कमाकर खाने दो।’
‘नहीं नहीं ठेकेदारजी, मेरे पास भी इतनी फुर्सत नहीं है कि इनसे सारे दिन बातें करता रहूं, यह तो दुपहरी के विश्राम का समय था। कहकर ब्रह्मा ने साईकिल आगे बढ़ा दी। अब ब्रह्मा को रोज उस बिना शामियाने, बिना माइक और मंच की उस अनौपचारिक गोष्ठी का हर रोज इंतजार रहने लगा। उसका भी उन सब से परिचय बढ़ता जा रहा था।
इनमें ही एक थी माया, गहरा सांवला रंग होने के बावजूद सुघड़ देह और मनोहारी नाक-नक्श की बदौलत सौंदर्य की बेताज मल्लिका थी। पति अरब में कमाने गया हुआ था। वह अपनी सास और छोटे देवर के साथ रहती थी। दूसरी का नाम देव था,जिसका पति पारिवारिक झगड़े के सिलसिले में जेल में बंद था। हर पेशी पर देव उससे मिलने जाती थी। सम्मो की नई-नई शादी हुई थी और राजंती पांच बच्चों की मां थी। सजना को पति पसंद नहीं था और वह उसे छोड़ देने की घोषणा कर चुकी थी। सोनी बहुत कम बोलती थी पर हमेशा मंद-मंद मुस्कराती रहती थी।
आज सड़क पीपल माता के मंदिर तक जा चुकी थी। चबूतरे पर पीपल के वृक्ष के चारों ओर दीवार बनाकर उसे मंदिर का रूप दे दिया गया था। ब्रह्मा ज्यों ही उनके पास गया, सब-की-सब मौन हो गई, मानो सबको सांप सूंघ गया हो। सामने सोनी खड़ी-खड़ी मुस्करा रही थी। मैंने उसी से पूछा-सोनी,मेरे आते ही सब चुप क्यों हो गए? सोनी-‘आपकी ही बात चल रही थी। हम सब सोच रहे थे कि कल से दो दिन तक सड़क पर काम बंद रहेगा तो मास्टर साहब की दुपहरी कल से कैसे कटेगी?’
‘मेरी चिंता मत करो,मैं तो खुद आज गांव जा रहा हूं।’
सोनी-‘मुझे भी ले चलो मास्टर साहब आपके गांव! कम बोलने वाली सोनी ने आज सहज भाव से वाचालता के प्रवाह में कह डाला। ब्रह्मा ने भी इसे एक मुट्ठी सुख पाने की आस में मजाक का बिंदु बना लिया। साईकिल को स्टैंड पर खड़ी कर उसने सोनी से गंभीरता से कहा-‘अब जब तुमने कह ही दिया है तो मैं भी तैयार हूं तुम्हें ले चलने के लिए। बात का सवाल बनता देखकर सभी महिलाएं थोड़ी और नजदीक आ गईं और ठहाके लगाती हुई, सोनी को खींचकर हंसते हुए साइकिल की ओर लाने लगी। सोनी ने जोर से कहा –‘मास्टर साहब यदि मुझे ले जाना चाहते हो तो खुद की कार लानी होगी।’ ब्रह्मा के पास उसकी इस मांग का कोई समाधान नहीं था सो बोला-‘ठीक है सोनी, अब तो मैं कार लाकर ही रहूंगा।‘ कहकर ब्रह्मा साईकिल के पैडल मारता हुआ आगे बढ़ गया। इसके बाद सोनी जब भी मिलती वही बात पूछती, ‘मास्टर साहब कब ला रहे हो कार? आखिर कब तक रहोगे बे-कार।’ सोनी के साथ-साथ अन्य महिलाएं भी अब चिढ़ाने लगी थीं।
‘बस एक-दो दिन की बात है,’ यह कहकर ब्रह्मानंद के पास सोनी को हंसकर टालते रहने के सिवा कोई चारा नहीं था। वह जानता था कि वह कार लाने की स्थिति में नहीं था। अगले दिन से ग्रीष्म अवकाश शुरू हो गया था सो ब्रह्मानंद गांव चला गया। जब डेढ़ महीने बाद ब्रह्मा वापस आया तो न तो मजदूर थे और न ही ठेकेदार, सामने चमचमाती सड़क थी।
समय पंख लगाकर उड़ता रहा। महिला मजदूरों की स्मृति विस्मृति के गर्त में समा गई। बीस साल बाद ब्रह्मानंद भी व्याख्याता बनकर पास ही के कस्बे में नियुक्त हो गया था और खुद की कार से ही आता-जाता था। उन्हीं दिनों चमनपुरा गांव में स्थित निजी उच्च प्राथमिक विद्यालय में ‘राइट टु एजुकेशन’ के तहत नि:शुल्क अध्ययन कर रहे बच्चों की जांच और प्रमाणन के लिए शिक्षा विभाग का आदेश प्राप्त हुआ तो ब्रह्मा को सोनी की याद हो आई। चमनपुरा सोनी का गांव था। ब्रह्मा के मन-मस्तिष्क में उथल-पुथल मचने लगी। यह न केवल सोनी से मिलने का अच्छा मौका था बल्कि उसे चिढ़ाने का भी अवसर था। कल्पना के पंख लगाकर वह बार-बार वह उन पलों में पहुंच जाता जब सोनी सामने होगी और वह कहेगा, ‘देख सोनी! अब मेरे पास कार है, अब मैं बेकार नहीं हूं। अब तो तुम्हें अपने वचन का पालन करना होगा।’ स्कूल की जांच का कार्य एक बजे तक पूरा हो गया। आते समय ब्रह्मा ने स्कूल के हेडटीचर से कहा-‘इस गांव में सोनी नाम की एक लड़की भी रहती है उसका घर किधर है। क्या आप मेरे साथ चलने का कष्ट करेंगे?
थोड़ी देर मौन रहने के बाद हैड टीचर बोले- ‘सर, सोनी अब इस दुनिया में नहीं है। कोरोना के दूसरे दौर में वह बुरी तरह संक्रमित हो गयी थी। एक रात ग्यारह बजे उसे सांस लेने में कठिनाई होने लगी। उसे शहर तक ले जाने के लिए कोई कार तक नहीं मिली। रात बारह बजे ऊंटगाड़ी से लेकर रवाना हुए पर सोनी ने तो रास्ते में ही दम तोड़ दिया था। काश, उस रोज किसी की कार मिल जाती तो सोनी बच सकती थी। एक ही झटके में निराशा के घुप्प अंधेरे ने ब्रह्मा को चारों ओर से जकड़ लिया था। दूर क्षितिज से मानो सोनी की आवाज गूंजने लगी-मास्टर साहब! पहले आप बे-कार थे। अब कार वाले हो गए पर अब यह कार मेरे लिए किस काम की है? बेकार है। ब्रह्मानंद हक्का-बक्का रह गया जिस एक मुट्ठी सुख को पाने की आस में वह आया था,वह कपूर की तरह उड़ चुका था।

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