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गिद्धें

06:33 AM Jan 14, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी
बलबीर कौर संघेड़ा

नर्गिस की झील जैसी आंखें सूख गई थीं। जिस्म मुरझा गया था और रूह पथरा गई थी। वह बैठी होती तो उसकी नज़र एकटक ज़मी में गड़ी रहती। पैर के अंगूठे से कारपेट को खरोंचती, मानो कारपेट में से ज़मीन उसके पैर के अंगूठे से प्रहार से फट जाएगी और वह समूची की समूची उसमें समा जाएगी।
उसको अपनी इन झील-सी आंखों से नफ़रत हो गई थी। उसको तो अपने नाम नर्गिस से भी नफ़रत हो गई थी।
मतलब यह कि उसको अपनी रूह में से उठी हर उमंग के साथ गिला था... और अब बस उसका आस पास, अंदर-बाहर सब गुस्से-गिलों के साथ भरा पड़ा था। उसको न अपनी होश थी और न ही दूसरों का ख़याल।
कैसा आलम हो सकता है, इस तरह की ज़िन्दगी में? वह कभी-कभी सोचती। उसकी हर सोच, उसका हर ख़याल ही छाती में एक आह बनकर दब जाता। हर उमंग, हर चाह दम घोंटकर मर जाती।
शुरू-शुरू में तो यह सब कुछ उसकी झील सरीखी आंखों में से छलक कर बिखर जाता रहा और अब उसका अतीत उन झील जैसी आंखों में डूब गया था। भविष्य के लिए वह हमेशा-हमेशा की लिए सूख गई थीं।
उसकी रूह मर गई थी। उसकी गैरत ज़ख्मी हो गई थी। वह उठकर खड़ी होती तो उसको अपनी अम्मी याद आ जाती। वह भी यूं ही घुटनों पर हाथ रखकर उठा करती थी। उठती तो आह निकल जाती। शायद उसको ज़िन्दगी ने हरा दिया था। शायद हर औरत को ज़िन्दगी हरा देती है, वह सोचती। ‘औरत की ज़िन्दगी तो अपने आप में एक श्राप है...’ यह उसकी बड़ी अम्मी कहा करती थी।
बड़ी अम्मी का ख़याल आते ही वह अपने आप में सिकुड़-सी जाती। जैसे बड़ी अम्मी का हर दर्द उसकी अपनी छाती में उठ खड़ा हुआ हो। वह दर्द जो कैंसर की तरह अंदर ही अंदर फैल गया हो।... और कोई आपरेशन भी उस दर्द का इलाज न कर सकता हो।
...और फिर बड़ी अम्मी क्यों सहती आ रही थी यह जहालत? यह सोचते हुए उसके होंठों पर एक मुस्कान-सी उठी। वह मुस्कान जो नफ़रत के साथ भरी होती है... वह मुस्कान जो सीना छलनी कर जाती है... चीर देने वाली... बेंध देने वाली। उसके होंठों पर एक यही तो मुस्कान रह गई थी।
कभी वह सोचा करती थी, बड़ी अम्मी क्यों चुपचाप सहन किए जाती है? क्यों नहीं अब्बू को कह देती कि वह क्यों उसको एक फालतू चीज़ की तरह एक कोने में लगाए रखता है। कभी उस पर जवानी टपकती थी और वह छनकती हुई हंसी हंसती मेरे अब्बा के इर्दगिर्द लोटपोट हो जाती थी।
...फिर, वह वक्त भी आया था जब नई अम्मी ने अब्बा का कमरा संभाल लिया था। बड़ी अम्मी कमरे के दरवाजे में खड़ी होकर कितनी-कितनी देर उस कमरे को और कमरे में बिछे पलंग को निहारती रहती थी। यह नई अम्मी मुश्किल से सत्रह-अट्ठारह बरस की अल्हड़ युवती थी। नर्गिस से कुछ साल ही बड़ी। अब्बू नर्गिस से कुछ बरस बड़ी जवानी के आस पास उलझे रहते थे और नर्गिस बड़ी अम्मी का घुटना पकड़कर बैठी रहती थी।
बड़ी अम्मी के हंसी-मजाक खत्म हो गए थे। हर आह उसकी छाती में दब गई थी। शरअ के नाम पर यह बेइन्साफ़ी कैसे झेलती रही थी, बस वही जानती थी। वह तो ख़ामोश हो गई थी। उसके हंसी-ठहाके ख़ामोश हो गए थे। उसकी प्यासी आंखें रेगिस्तान के रेते के साथ प्यास बुझा रही थीं... और वह बुढ़ापा आने से पहले ही बूढ़ी हो गई थी।
नर्गिस जब उसको यूं देखती तो उसकी समझ में कुछ न आता कि बड़ी अम्मी को क्या हो गया था? यह तो सिर्फ़ एक रिवाज था... हर घर में। उसकी कई सहेलियों के घर में नई अम्मियां आई थीं। शमा का अब्बा दो और नई अम्मियां लाया था, फिर उसका अब्बू क्यों न ऐसा करे। उस समय उसको यह सब बड़े गर्व की बात लगती थी।
वह अपनी अम्मी को डांट-डपट भी देती कि उसकी अम्मी क्यों आंखों के आंसू सूखने नहीं देती। उस वक्त उसको ज़िन्दगी के दर्द के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं था। ...अब वह खुद अपनी अम्मी की तरह बूढ़ी हो गई थी। मुश्किल से चालीस की उम्र को छूते ही वह घुटनों पर हाथ रखकर उठती थी।
वह बैठी-बैठी सोचती तो सोचती ही रह जाती। यह ज़िन्दगी क्या शै है? मेरे साथ यह धोखा क्यों? क्या मैं भी बड़ी अम्मी की तरह एक फालतू वस्तु बनकर रह जाऊंगी? ऐसी बेकार वस्तु जिसको सिर्फ़ इधर-उधर कर दिया जाता है।
उसको एक पल के लिए वह वक्त याद हो आया जब असलम इंग्लैंड से निकाह के लिए पाकिस्तान पहुंचा था। फोन करता तो कहता, ‘नर्गिस की खुशबू के लिए तरस गया हूं।’
‘उसमें तो खुशबू होती ही कब है जनाब?’ नर्गिस छेड़ती।
‘तू क्या जाने...’ असलम सरूर से में कहता।
नर्गिस मदहोश हो झूमने लगती। असलम आ रहा था। सिर्फ़ उसके लिए... उसकी महक के लिए। उसको लगता, उसका असलम सिर्फ उसकी महक का दीवाना रहेगा। उसके अब्बू की तरह या शमा के अब्बू की तरह किसी अन्य नर्गिस को ढूंढ़ने नहीं जाएगा।
वह तो नर्गिस थी... असलम की महक... असलम की ही महक।
ज़िन्दगी अपनी गति से चलती रही। असलम नर्गिस को इंग्लैंड लेकर आया था। एक पुत्र रहीम उनके घर में जन्मा था, जिस पर वे जान छिड़कते थे। नर्गिस काम करती तो उसके पंजे ज़मीन पर लगते ही नहीं थे। जिधर से गुज़रती, महकें बिखेरती जाती।
...और फिर वक्त आया, जब नर्गिस की महक भी मद्धम पड़ने लगी। नर्गिस में एक ही नुक्स होता है, वह जल्दी मुरझा जाता है। कोई कद्रदान ही तो उसकी संभाल कर सकता है। नहीं तो बस आज महका और कल सड़-सूख गया।
यूं भी नर्गिस के फूल अब असलम को अच्छे नहीं लगते थे। वे तो बड़े ही साधारण-से होते हैं, निरी बोरियत वाले। असलम के अब्बा जान ने लिख भेजा था- उसकी मौसी की बेटी सलमा निरी गुलाब का फूल है। फूफी की बेटी नर्गिस बस, कल की बात थी और सलमा आज की बात है। यही असलम की अम्मी की हसरत थी। अब अब्बा का फर्ज़ बनता था कि वह अम्मी की हसरत को पूरा करें। उन्होंने अपनी भानजी नर्गिस इंग्लैंड तो पहुंचा ही दी थी, उसको और क्या चाहिए था? ...और अब बारी असलम की मौसी की बेटी की थी।
नर्गिस ने उस दिन धीमे स्वर में पूछा था, ‘असलम! तुझे कोई वायदा याद नहीं?’
‘वायदा... कौन-सा वायदा? यह तो मेरे धर्म के अनुसार मेरा शरअ का हक़ बनता है। मैं तुझे छोड़ तो नहीं रहा।’
‘और मेरा हक़...? असलम, किस चीज़ की कमी है तुझे? अल्लाह ने तो तुझे पुत्र भी दिया है जिसके लिए लोग दोहरी गांठें बांधते हैं।’ नर्गिस ने झील जैसी आंखें उस पर गड़ाते हुए कहा था।
‘पंद्रह साल हक़ तेरे पास ही रहा है... और तुझे क्या चाहिए... मैं कहीं भाग तो नहीं गया? मेरा हक़, मेरे मां-बाप को खुशी देना भी है।’
‘मुझे चाहिए ही क्या?’ नर्गिस के होंठों पर एक मुस्कान उठी थी। वह मुस्कान जो सीना छलनी कर जाती है। वह मुस्कान जो नफ़रत के साथ भरी होती है। वह पल भर के लिए हंसी थी... खूब हंसी थी... किलकारी मारकर हंसी थी। एक पागलों जैसी हंसी। उसको लगा था जैसे वह सचमुच ही पागल हो गई हो। वह तो सोचती थी, ये रस्म-रिवाज वह पीछे छोड़ आई थी। जिस जिल्लत भरी ज़िन्दगी में उसकी अम्मी जीती रही थी, वह उस पर कभी भी घटित नहीं होगी। उसके अब्बू ने तो पुत्र की खातिर दर पर डोला ला बिठाया था। पर असलम ने तो अपने पुत्र के होते हुए भी यह सितम किया। वह तो अपने घर को जन्नत बनाती थकती नहीं थी। वह हर पल, हर घड़ी, असलम की दीवानगी में वक़्त बिताती थी। पर जब उस पर यह पहाड़ टूटा तो उसने असलम के आगे खूब मिन्नतें की थीं। असलम के अब्बा जान को भी ख़त लिखा था, ‘मामू जान! यह अनर्थ न करो। नर्गिस मुरझा जाएगी...नर्गिस मर जाएगी।’
पर मामू जान का कोई ख़त न आया। वह सोचती थी कि यदि वह असलम पर ज़ोर डालेगी तो वह तीन पत्थर तलाक के मारकर उसको घर से बाहर निकाल देगा। अगर वह उसको घर से बाहर नहीं भी निकालेगा, तो भी उसका उस घर में क्या वजूद रहेगा? वह करे तो क्या करे? उसकी समझ में कुछ न आता। उसने कभी सोचा ही नहीं था कि इस मुल्क में आकर भी उसके साथ ऐसा भी बीत सकता है। इस मुल्क में तो एक मर्द और एक औरत का संबंध है। गैर-कानूनी संबंध घर की चारदीवारी से बाहर तो हो सकते हैं, पर जब तक औरत बीवी है, तब तक वह घर की मालकिन है... घर की रानी है।
पर वह तो अपने ही घर में दूसरे दर्जे पर आ खड़ी हुई थी। एक फालतू चीज... एक फालूत औरत... और असलम अपनी मौसी की बेटी सलमा को ले आया था। सलमा बमुश्किल सोलह-सत्रह साल की लड़की थी। इंग्लैंड जैसे देश के कानून ने किस तरह इजाज़त दे दी थी?
यह तो ग़ैर-कानूनी निकाह था। सिर्फ़ काज़ी की हुजूरी में। नर्गिस जो कल तक महकती थी, चहकती थी, वह घड़ी-पल में मुरझा गई थी। नर्गिस के बेटे रहीम की नई अम्मी उससे कुछ साल ही बड़ी थी।
उसको उस वक्त असलम से नफ़रत हुई। असलम ही नहीं अपने अब्बू के साथ भी नफ़रत हुई। उसका मन किया, सलमा से कहे, ‘ये सिर्फ गिद्धें हैं, मेरी बेटी। तू इनसे अपना जिस्म न नुचवा’ पर वह कुछ नहीं कह सकी।
...फिर वह उठी थी, अपना जिस्म घिसटती हुई, अपने आस पास को आंखों में मूंदती हुई। फिर अपने पुत्र रहीम की बांह पकड़कर एक हिम्मत के साथ वह घर से बाहर निकल गई थी।

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अनुवाद : सुभाष नीरव

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