त्रिगुणावतार हैं भक्त वत्सल भगवान दत्तात्रेय
चेतनादित्य आलोक
मार्गशीर्ष यानी अगहन महीने की पूर्णिमा तिथि को भगवान दत्तात्रेय का अवतरण होने के कारण प्रत्येक वर्ष इस तिथि को इनकी जयंती मनायी जाती है। वैसे इस विशेष तिथि को दत्त जयंती, दत्तात्रेय पूर्णिमा अथवा दत्त पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। भगवान दत्तात्रेय त्रिगुणावतार अर्थात् त्रिदेवों के अंशावतार हैं। ये भक्तों पर शीघ्र कृपा करने वाले भक्त वत्सल माने जाते हैं। कहते हैं कि ये भक्तों द्वारा स्मरण करने मात्र से ही प्रसन्न हो जाते हैं। इसी महिमा के कारण इन्हें ‘स्मृतिगामी’ तथा ‘स्मृतिमात्रानुगन्ता’ के रूप में भी जाना और पूजा जाता है। भारत के दक्षिणी राज्यों में निवास करने वाले प्रसिद्ध ‘दत्त संप्रदाय’ के लोग भगवान दत्तात्रेय को ही अपना प्रमुख आराध्य मानकर इनकी पूजा-आराधना करते हैं। हालांकि, इनका जन्मोत्सव पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र सहित देशभर में बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है।
भगवान दत्तात्रेय जयंती से सात दिन पहले ‘श्री गुरुचरित्र’ का पाठ एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान होता है, जो उत्सव के शुरू होने का प्रतीक होता है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को जन्मोत्सव का आयोजन भक्तगण प्रायः आनंद के वातावरण में करते हैं। मान्यता है कि इस दिन पृथ्वी पर ‘दत्त-तत्व’ सामान्य से 1000 गुना अधिक कार्यरत रहने के कारण भगवान दत्तात्रेय की उपासनादि करने से सर्वाधिक लाभ मिलता है। इस अवसर पर कहीं-कहीं दत्त-यज्ञ का आयोजन भी किया जाता है। जन्मोत्सव में ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का अधिक से अधिक जप करने की परंपरा है। सनातन धर्म में दत्तात्रेय पूर्णिमा का बहुत अधिक महत्व है। दक्षिण भारत सहित पूरे देश में भगवान दत्तात्रेय के अनेक सुंदर और प्रसिद्ध मंदिर स्थित हैं। मान्यता है कि मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को भगवान दत्तात्रेय के निमित्त व्रत रखने एवं उनके दर्शन-पूजन इत्यादि करने से भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि मन, वचन अथवा कर्म से महाराज दत्तात्रेय की उपासना करने वाले भक्तों के संकट शीघ्र दूर हो जाते हैं। विशेष रूप से विद्यार्थियों के लिए ‘श्रीदत्तात्रेय कवच’ का पाठ तथा दत्त नाम का जप करना अति लाभकारी माना गया है।
भगवान दत्तात्रेय सप्तऋषियों में से एक महर्षि अत्रि और पतिव्रता देवी अनुसूइया के पुत्र हैं। देवी अनुसूइया के पातिव्रत्य के महत्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वनवास के दौरान माता सीता ने उनका आशीर्वाद ग्रहण कर उनसे पातिव्रत्य धर्म की शिक्षा प्राप्त की थी। श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित है कि महर्षि अत्रि द्वारा जगत् के पालनहार भगवान श्रीविष्णु को पुत्र रूप में प्राप्त करने की अभिलाषा प्रकट करने के बाद एक दिन भगवान ने स्वयं प्रकट होकर महर्षि से कहा, ‘मैंने स्वयं को आपको दिया।’ इसी देने के भाव की प्रधानता के कारण ‘दत्त’ एवं महर्षि अत्रि के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण ये ‘आत्रेय’ कहलाये। फिर दाेनों शब्दों को मिलाकर भगवान का नाम ‘दत्तात्रेय’ पड़ा। भगवान दत्तात्रेय में ईश्वर एवं गुरु दोनों रूप समाहित होने के कारण इन्हें ‘श्री गुरुदेवदत्त’ भी कहा जाता है। महाराज दत्तात्रेय आजन्म ब्रह्मचारी, अवधूत एवं दिगम्बर रहे। ये अपनी बहुज्ञता के कारण पौराणिक इतिहास में विख्यात हैं। ये सर्वव्यापी तथा सिद्धों के परमाचार्य हैं।
भगवान दत्तात्रेय के अनुसार हमें जीवन में जिस किसी से भी ज्ञान, विवेक अथवा कोई शिक्षा मिले, उसे अपना गुरु मान लेना चाहिए। अपने इसी सिद्धांत के अनुरूप इन्होंने अपने 24 गुरु घोषित रूप में स्वीकार किये। पुराणों के अनुसार भगवान दत्तात्रेय के तीन सिर एवं छह भुजाएं हैं।