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ठहराव की चुभन

07:42 AM Jun 30, 2024 IST
ठहराव की चुभन
चित्रांकन : संदीप जोशी
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हरिमोहन
बहुत दिनों के बाद आज मैं उनके घर गया था। यों, पिछले दस सालों से प्रायः बाहर ही हूं। कभी-कभार ही इधर आना हुआ है। उसमें भी अवसर नहीं निकाल पाया कि आध-एक घंटे के लिए उनके घर हो आऊं। दरवाजा खटखटाता हूं। वही दरवाजा है, ज्यों-का-त्यों। सड़क से छह सीढ़ियां ऊपर। शायद पिछले दस सालों से उस पर रंग भी नहीं हुआ। वे आकर दरवाजा खोलती हैं। एकाएक पहचान नहीं पातीं। मैं अपना नाम बताता हूं लेकिन उन पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं होती। आगे-आगे चलकर वे अन्दर के कमरे में अपनी चारपाई पर लेट गई हैं। कितनी बदल गई हैं वे!
ऊपर से उनकी लड़की उतरकर आती है। उतरते-उतरते ही पूछती है, ‘भाई साहब! कब आए? कुर्सी ले लो।’ उसके प्रश्न पर ध्यान न देकर मैं उस पर ध्यान देता हूं। सरोज! बहुत कमजोर, पीली, दुबली-पतली-सी लड़की। वह आकर अपनी मां की चारपाई पर बैठ जाती है। मेरे ठीक सामने। ‘कहो, सब ठीक-ठाक है?’ मैं पूछता हूं। मुझे इस तरह पूछना कुछ अजीब-सा लगने लगता है। जैसे वह कहना चाह रही है सब तुम्हारे सामने है। जैसा छोड़ गए थे, वैसा ही है।
‘हां, सब ठीक है, आप सुनाइए।’ उसका चिरपरिचित उत्तर है।
‘ठीक ही हूं।’ मैं उत्तर देता हूं। शायद वह मेरे इस प्रकार के उत्तर को पहले से जानती है। इसलिए मेरे उत्तर पर ध्यान नहीं देती।
‘चाय लाऊं?’ वह पूछती है।
‘हां, ले आओ!’ मैं ‘नहीं’ कहना नहीं चाहता।
इस बार वह थोड़ा मुस्कुराती है और चाय बनाने चली जाती है।
‘और कहो अम्मा! अशोक कहां है?’ मैं उनसे पूछता हूं। वे कहीं वीरान कोने में पहुंच गई हैं। लड़खड़ाते-से शब्दों में उत्तर देती हैं। ‘अपने घर है बेटा!'
‘अपने घर’ उनके इस उत्तर का एक कोना मुझे चुभता है। उनके कहने के इस ढंग से मेरे मन में कई विचार एक साथ उलझ कर गड़बड़ा जाते हैं। अनुमान कर लेता हूं कि उसकी शादी कर दी होगी और वह अपने बड़े भाई की तरह घर से अलग रहने लगा होगा! फिर भी पूछता हूं, ‘कहां है उसका घर?’
इन शब्दों को सुनते हुए उनका कष्ट और बढ़ गया होगा। सोचते हुए, उनकी आंखों की ओर देखता हूं। चश्मे के मोटे लैंस के नीचे खोई-खोई-सी उनकी बूढ़ी आंखें दरवाजे से बाहर, आंगन में खूंटी पर टंगे पुराने कपड़ों की ओर देख रही हैं, बस।
***
मैं उनको पिछले बीस वर्षों से जानता हूं। मेरे सामने ही उनके यहां तीन मौतें हो चुकी हैं। सबसे पहले उनके पति, फिर उनका सबसे बड़ा लड़का और फिर उनका तीसरा बेटा... एक-एक कर लगातार तीन वर्षों में गुजर चुके हैं। पति रेलवे-सर्विस से रिटायर्ड थे। सबसे बड़ा लड़का वर्षों तक गायब रहा, बस मरने के लिए असाध्य बीमारी लेकर घर आ गया था। तीसरा बेटा एमए तक मेरे साथ पढ़ा था, मेरा अच्छा दोस्त था। दूसरा बेटा हाइडिल में सर्विस करता था और शादी करके घर से अलग रहने लगा था, दूसरे मोहल्ले में। रिटायरमेंट के बाद बाबूजी (उनके पति) इस शहर में आ गए थे और यह मकान किराए पर लेकर रहने लगे थे। उन्होंने एक दुकान बिजली के सामान की खोल ली थी, जिस पर उनके साथ उनका सबसे छोटा लड़का अशोक बैठने लगा था। दो लड़कियों की शादी वे कर चुके थे। अब घर में सिर्फ वे थीं और उनकी सबसे छोटी लड़की सरोज।
‘बीवी जान कहां हैं?’ लड़की ने रसोई में से ही पूछा। (मैंने ध्यान दिया उसका पूछने का ढंग जरा भी नहीं बदला!) मैंने उसका उत्तर जो ठीक जान पड़ा, दिया, ‘घर पर है।’
वह पास आकर खड़ी हो जाती है। पूछती है, ‘साथ नहीं लाए?’ मैं इसका कोई उत्तर नहीं देता, बल्कि उससे पूछता हूं, ‘तुम्हारी सर्विस कैसी चल रही है?’
‘हमारी क्या सर्विस, दो हजार रुपल्ली की नौकरी है!’ कहते हुए वह आंखें नीची कर लेती है, और जबरन मुस्कुराकर सिद्ध करना चाहती है कि मेरे प्रश्न का उसके मन पर अवसाद का-सा प्रभाव नहीं पड़ा।
मैं जानता हूं। वह किसी छोटे-से प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका है। एमए पास है और बी.एड. कर लिया है। तीस से ऊपर उम्र। मैं अब दूसरे हिसाब में उलझ जाता हूं। घर का खर्च कैसे चलता होगा इनका! अकेली लड़की दो-तीन सौ रुपये कमा कर लाती होगी, उसी से मां-बेटी का खर्च चलता है भला! क्या लड़के कुछ मदद नहीं करते होंगे? या यह ट्यूशन कर लेती होगी, पर ट्यूशन भी कितने?
‘क्या सोचने लगे?’ मुझे इस तरह चुप देखकर सरोज पूछ रही है।
‘कुछ नहीं। बस ऐसे ही।’ मैंने चौंकते हुए कहा। फिर अपनी इस स्थिति पर पर्दा डालते हुए मैं पूछता हूं– ‘माधुरी कब से नहीं आई?’ माधुरी सरोज से बड़ी है। उसकी चार साल पहले शादी हो चुकी है।
‘कभी-कभी आ जाती है। दो बेटियां हैं उसकी।’ वह बताती है।
तब तक वे बोल पड़ती हैं–‘बेटा! बहुत सुखी है मेरी माधुरी। वह हफ्ते में एक-दो बार जरूर आकर देख जाती है। बेटे तो दोनों ही ऐसे निकम्मे निकले। कोई ध्यान नहीं देता। कभी-कभी मोबाइल पर बात हो जाती है।
सरोज चाय लेने रसोई में चली जाती है।
वे अपनी बात आगे बढ़ाती हैं। ‘बेटा कहीं कोई लड़का देख। इसके हाथ और पीले कर दूं। तभी मरूंगी। तेरे बाबूजी होते तो कोई चिन्ता नहीं थी मुझे।’
मैं उनकी बात को ध्यान से सुनता हूं। फिर उनके आगे के जीवन की कल्पना करने लगता हूं। सरोज के जाने के बाद इनका क्या होगा! उनके चेहरे को देखता हूं। काफी कमजोर हो गई हैं। बाकी कुछ नहीं बदला। जब से उनका दूसरा बेटा सुरेन्द्र खत्म हुआ है, तब से उनके चेहरे पर कई झुर्रियां खिंच गई हैं। सुरेन्द्र ने नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या कर ली थी। वह दिन मेरी आंखों के सामने घूम गया। जब मैं इस खबर को सुनकर इनके घर आया था। मेरा अच्छा दोस्त था वह। मेरे साथ एम.ए. करने के तीन-चार साल तक यूं ही बेकार बैठा रहा था। फिर शहर के ही किसी मॉल में नौकरी करने लगा था। धीरे-धीरे वह एलएसडी की गोलियां खाने लगा था। उस दिन मैं बहुत रोया था। एकान्त में भी। इसलिए नहीं कि मेरा एक दोस्त चला गया, बल्कि शायद इसलिए कि मैं भी उन दिनों बेकार था। मैं इसी सोच में डूब गया था।
वे थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर बोलीं, ‘लड़कों की शादी कर दी। सब अलग हो गए। सुरेन्द्र इनसे बहुत अच्छा था, पर बेचारा बीच में ही चला गया।’ कहने के साथ ही उनकी आंखों में तरलता आ गई और शब्द भी गीले होकर निकलने लगे। इस उम्र में एक विधवा की स्थिति कैसी हो सकती है? मेरे सामने उनकी सारी व्यथा उन के रूप में पसरी पड़ी थी। वे जाने कितनी दूर तक उड़ने के बाद थकी हुई चील की तरह हांफ रही थीं।
एक गहरी उदासी मेरे चेहरे पर पुत गई। सोच के पठार पर मैं पहुंचा ही था कि बीच में ही सरोज चाय का गिलास लेकर सामने खड़ी हो गई।
‘क्यों तुम नहीं लोगी?’ मैंने उससे पूछा।
‘नहीं हम लोग तो अभी पी चुके हैं।’
मुझे बड़ा अजीब-सा लगा यह। ‘अकेला बैठा चाय पीता क्या अच्छा लगूंगा?’ मैंने उससे कहा, ‘एक गिलास और ले आओ सरोज!’
‘क्यों?’
‘दोनों आधी-आधी पीएंगे।’
वह बड़ी मुश्किल से थोड़ा-सा मुस्कुराई। फिर थोड़ी ना-नू के बाद एक खाली गिलास ले आई।
हम दोनों अपनी-अपनी चाय पीने लगे।
मेरे मन में उनकी समस्या नए-नए रूपों में तैरने लगी थी। सामने बैठी लड़की इन के लिए समस्या है, या यह इनकी इस अवस्था में एक सहारा है?
मैं ध्यान से सरोज को देखता हूं। सरोज की ज़िन्दगी में एक ठहराव-सा आ गया है।
चाय कब की खत्म हो चुकी है। मैंने वातावरण को थोड़ा-सा बदलने के लिए कहा, ‘अरे! वो एक तोता भी तो था तुमने पाला था!’ जो उत्तर उधर से मिला, मार्मिक था। ‘सब उड़ गये!’
आगे?
कुछ न पूछने को रह गया है, न कहने को। न उधर से कोई प्रश्न आता है, न मेरे मन में कोई प्रश्न उभरता है। एक व्यर्थता का बोध मेरे भीतर उगने लगता है। मैं इस तनाव में बेचैनी महसूस करने लगता हूं। जल्दी ही इस घर से बाहर जाना चाहता हूं। ये क्षण कितने असह्य हो जाते हैं। चलती हुई रेलगाड़ी में आमने-सामने चुपचाप बैठे दो अजनबियों के बीच जैसे एक लम्बी खामोशी तन जाती है, दोनों ही यात्रियों के मन में जल्दी अपने-अपने घर पहुंचने की बात टिकी रहती है, ऐसे में जैसा लगता है, बिल्कुल वैसा ही मुझे लग रहा था।
मैं इधर-उधर दीवारों पर देखने लगता हूं। कभी छत की ओर। जिन दीवारों के बीच कभी मैं इन लोगों के साथ ठहाके लगाया करता था, आज वे दीवारें खामोश हैं। वे चेहरे खामोश हैं। बस एक ही आदमी हंस रहा है सुरेन्द्र! सामने टंगे फोटो में। मेरे मन में आया कि मैं भी जोर का ठहाका लगाऊं और खामोशी को चूर-चूर कर दूं, पर कहीं ये रही-सही दीवारें भी भड़भड़ाकर न गिर जाएं, इस डर से सहम कर चुप हो जाता हूं।
***
आदमी के बिना घर कैसा हो जाता है! भुतहे किले-सा, वीरान! यही घर उन दिनों कितना आबाद था, आज घर-सा नहीं लगता है।
वे शायद सो गई हैं। सरोज भी बैठी-बैठी ऊंघने लगी है।
‘अच्छा! मैं चलता हूं।’ घड़ी देखते हुए मैंने उससे कहा। वह भी शायद इसी प्रतीक्षा में थी।
मोबाइल फोन नम्बर लेने-देने के साथ सरोज मुझे दरवाजे तक छोड़ने आई। दरवाजा पार करते ही वह बिना मेरी ओर देखे दरवाजा बन्द कर लेती है। मैं गली से निकल कर बाजार की सड़क पर आ जाता हूं। वही चहल-पहल, वही दुनिया। इस भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में क्या वे चेहरे भी कहीं हैं? बन्द दरवाजों की ज़िन्दगी का वह ठहराव मेरे भीतर धीरे-धीरे घुलने लगता है जो कुछ देर पहले मैंने महसूस किया था। मैं अपने घर की ओर लौट पड़ा हूं।

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