पूंजीवाद के दंश मगर विरोध सिर्फ पुरुषों का
समाज में सिर्फ औरतें रहेंगी, तो क्या वास्तव में तमाम तरह के शोषण और अन्याय से मुक्ति मिल सकेगी। स्त्रियों का राज होगा, तो क्या सत्ता चलाने का तंत्र बदल जाएगा। शायद नहीं, क्योंकि सत्ता चलाने के अपने तंत्र होते हैं और दुनिया में कोई भी सत्ता हो, वह निरंकुशता से ही चलती है। इतिहास भी इस बात का गवाह है।
क्षमा शर्मा
कहा जाता है कि अब तक दुनिया में चार बार फेमिनिज्म या स्त्रीवाद की लहर चली है। पहली बार स्त्रीवाद की बात उन्नीसवीं सदी के मध्य से लेकर बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों तक सुनी गई। फिर दूसरी बार स्त्री अधिकारों की तेज आवाजें 1960 से लेकर 1980 के शुरुआती वर्ष में देखी गईं। आपको याद होगा कि 1975 में संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष भी घोषित किया था। भारत में भी यह एक तरीके से स्त्रीवादी आंदोलन की शुरुआत थी। अपने यहां स्त्री अधिकारों की बातों को मीडिया ने भी उठाया। अमेरिका की तरह मीडिया बैशिंग औरतों को नहीं झेलना पड़ी। महिलाओं की सुरक्षा के लिए तरह-तरह के कानून बनाए गए। यहां तक कि भारत में तो इंदिरा गांधी 1966 में ही प्रधानमंत्री बन गई थीं, अमेरिका में राष्ट्रपति पद पर पहुंचने का इंतजार अभी तक महिलाओं को है। वहां तो वोट के अधिकार तक के लिए महिलाओं को सत्तर साल तक संघर्ष करना पड़ा था। जबकि हमारे यहां महिलाओं को वोट के अधिकार के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा।
स्त्री अधिकारों की बात अपने यहां भी उन्नीसवीं सदी में पुनर्जागरण के नायकों और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले नेताओं ने जोर-शोर से उठाई थी। यों हजारों वर्षों से स्त्री की आफतों की बात होती रही है। थेरिगाथाओं में बौद्ध भिक्षुणियों की ये आवाज और शिकायतें सुनी जा सकती हैं। तुलसीदास की वे पंक्तियां भी उद्धृत करने योग्य हैं- केहि विधि नारि रची जग माहीं, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं। बंगाल के महान उपन्यासकार शरतचंद्र ने भी अपने साहित्य में इस तरह के मुद्दों को खूब उठाया। हिंदी में भी महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, निराला आदि के साहित्य में स्त्रियों की समस्याओं की बात प्रमुखता से मिलती है।
स्त्रीवाद की तीसरी धारा 1990 से 2010 तक मानी गई और 2010 के बाद चौथी धारा की बात की जा रही है। इसमें पितृसत्ता से पूरी मुक्ति और औरतों को समान वेतन देने की बात प्रमुखता से उठाई गई है। फिर 2018 में ट्विटर के जरिए दक्षिण कोरिया में एक आंदोलन चलाया गया, जिसे 4बी का नाम दिया गया। इसमें स्त्रियां एक कदम और आगे जा पहुंचीं। कोरियाई भाषा में ब से शुरू होने वाले चार शब्दों का प्रयोग किया गया। ये शब्द हैं- बिहोन- पुरुष से शादी नहीं, बिकुलसन –कोई बच्चा नहीं, बियोनाए- पुरुषों के साथ डेटिंग भी नहीं, बिसेकसेउ, पुरुषों के साथ यौन सम्बंध नहीं। इसे फोर नोज भी कहते हैं। यानी कि महिलाओं के न कहने का अधिकार।
इस आंदोलन में कहा गया था कि जो स्त्रियां अकेली रहती हैं, विवाह नहीं करतीं, जिनके बच्चे नहीं होते, कोरियाई सरकार और समाज उन्हें अच्छी नजर से नहीं देखता। महिलाओं को नौकरियों में भी पुरुषों के मुकाबले कोई प्राथमिकता नहीं मिलती। औरतों को सिर्फ उपभोक्ता समझा जाता है। पूंजीवादी समाज उन्हें हर तरह के अधिकार से वंचित करता है। समाज महिलाओं को सिर्फ मां बनाना चाहता है। जबकि मां बनना, न बनना, औरत का अपना अधिकार है क्योंकि यह उसका शरीर है। इसलिए वे अब पुरुषों से किसी भी प्रकार का सम्बंध नहीं रखना चाहतीं। वे ब्यूटी पार्लर्स का भी बहिष्कार कर रही हैं। कमाल ये है कि महिलाओं ने अपनी आफतों के लिए पूंजीवाद को दोषी ठहराया है, मगर बहिष्कार वे पुरुषों का कर रही हैं। जबकि पूंजीवाद में पुरुष भी मात्र उपभोक्ता में तब्दील कर दिए गए हैं, और वे भी शिकार ही हैं।
अमेरिका में जब से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप, डेमोक्रेटिक पार्टी के कमला हैरिस को हराकर चुनाव जीता है, तब से वहां भी 4बी आंदोलन की आवाज सुनाई दे रही है। स्त्रियां पुरुषों का पूरी तरह से बहिष्कार करना चाहती हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि ट्रंप को गर्भपात विरोधी माना जाता है। यहां भी औरतों का मानना है कि वे मां बनें या न बनें , यह उन्हें ही तय करने दीजिए। कोई पुरुष उन्हें इसके ऊपर लाद नहीं सकता। ट्रंप अपने भाषणों में बार-बार कहते रहे हैं कि अमेरिकी समाज की बड़ी जरूरत परिवार और परिवार के मूल्यों की वापसी है। पूर्व उपराष्ट्रपति अल गेर की पत्नी तो परिवार की वापसी का आंदोलन 1993 से चला रही हैं। लेकिन अमेरिकी स्त्रियां कोरियाई स्त्रियों की तरह ही कह रही हैं कि उन्हें भी अपने जीवन में कोई पुरुष नहीं चाहिए। हम उन्हें सत्ता में आने से रोक नहीं सकते, मगर उनसे दूर तो हो सकते हैं। उनका मानना है कि वे जैसे चाहें जीवन जीएं, यह उनका अधिकार है। इसीलिए औरतें कह रही हैं कि न वे सजेंगी, संवरेंगी, न पेडिक्योर कराएंगी, न मेनिक्योर। वे डेटिंग एप्स और वेबसाइट्स को अलविदा कह रही हैं।
पुरुषों के सम्पूर्ण बहिष्कार की बातों से कोई भी समाज कहां जा सकता है। एक तरफ स्त्रियां पुरुषों का पूरी तरह से बहिष्कार चाहती हैं, तो दूसरी तरफ दुनिया में ऐसे अनेक देश हैं, जो स्त्रियों को मामूली मानव अधिकार तक नहीं देते। वे सदियों पुराने धार्मिक कानूनों से उन्हें हांकते हैं और इसे जस्टीफाई भी करते हैं। तालिबानों ने तो महिलाओं की शिक्षा, उनके बाहर निकलने, संगीत सुनने आदि तक पर प्रतिबंध लगा दिया है। 4बी चलाने वाली स्त्रियों की नजर इन महिलाओं पर नहीं जाती। क्या ये औरतें नहीं। इनके कोई मानव अधिकार नहीं। ये स्त्रियां, स्त्री विमर्श से बाहर क्यों हैं। अपने यहां भी जब सरकार ने तीन तलाक के खात्मे का निर्णय किया था, तो बहुत-से लोगों ने धार्मिक मान्यताओं का हवाला देकर इसका विरोध किया था। यदि तलाकशुदा मुसलमान स्त्रियों की हालत जाननी हो, तो राष्ट्रीय महिला आयोग के लिए सईदा हमीद द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट –वायस आफ द वायसलैस पढ़ी जा सकती है, जिसमें इन अभागी औरतों का ऐसा वर्णन है कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आखिर धर्म के ठेकेदारों को अपनी ही स्त्रियों की चिंता क्यों नहीं होती।
देखने की बात यह है कि अमेरिका में एक ट्रेडिशनल वाइफ मूवमेंट भी है, जिसमें बहुत सी स्त्रियां कहती हैं कि वे अपने घरों में रहना चाहती हैं। पति और बच्चों की देखभाल करना चाहती हैं। पति के लिए भोजन पकाना तथा हर तरह के अन्य कामों में उनकी दिलचस्पी है। वे घर और दफ्तर के बीच दौड़ती रहना नहीं चाहतीं। अगर ध्यान से देखें तो जब भी कोई विमर्श जन्म लेता है, उसका प्रति विमर्श भी साथ-साथ आंखें खोलता है और उसे चुनौतियां देने लगता है। क्या दुनिया के सारे पुरुष स्त्रियों को सता रहे हैं या बहुसंख्यक वे भी पीड़ित और सताए गए हैं। चांदी की चम्मच जिनके मुंह में हैं, वे स्त्री हों या पुरुष, पूरी दुनिया में मजे में हैं और उनकी सम्पत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। निजी जीवन में पुरुष नहीं चाहिए, तो जिस आत्मनिर्भरता के परचम को लहरा रही हैं, कार्यस्थलों से भी क्या पुरुषों को खदेड़ देंगी।
यदि इस समाज में सिर्फ औरतें रहेंगी, तो क्या वास्तव में तमाम तरह के शोषण और अन्याय से मुक्ति मिल सकेगी। स्त्रियों का राज होगा, तो क्या सत्ता चलाने का तंत्र बदल जाएगा। शायद नहीं, क्योंकि सत्ता चलाने के अपने तंत्र होते हैं और दुनिया में कोई भी सत्ता हो, वह निरंकुशता से ही चलती है। कोई सत्ता भी इससे मुक्त नहीं होगी। इतिहास भी इस बात का गवाह है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।