नया उगने की आहट
प्रतिभा कटियार
सुबह की चाय पीते हुए कैथरीन से मिली। उसकी आंखों में बीते समय की परछाई थी। मैंने उससे पूछना चाहा, ‘क्या तुम बदल गयी हो?’ लेकिन कुछ भी बोलने का मन नहीं किया। चुपचाप उसके पास बैठी रही। कानों में झरते पत्तों की आहट का धीमा संगीत घुल रहा था। कभी-कभी ऐसा होता है जब कोई नहीं बोलता है तो कुछ आवाज उस सन्नाटे को चीरती-सी महसूस होती है। पतझड़ हाथ में है या मन में या जीवन में सोचते हुए झरे हुए पत्तों को देखते हुए मुस्कुराहट तैर गयी। पत्ते गिर रहे हैं, नयी कोंपलें आने को हैं। यह सब देखकर मुझे कश्मीर याद आ गया। कश्मीर यूनिवर्सिटी की वह दोपहर जब बड़े से कैंपस के एक कोने में बैठकर चिनारों के झरते पत्ते देख रही थी। किसी जादू-सा लग रहा था सब। झरते हुए पत्ते जैसे झरने का आनंद जानते हैं। झर रहे हैं, अनवरत। वैसे ही जैसे झरना झरता रहता है, अनवरत।
झरते पत्तों का असल सत्य क्या है, यही कि वह पूरा जीवन जी चुके होते हैं। बड़े सलीके से शाख से हाथ छुड़ाते हैं। शाखों के कानों में उम्मीद की कोपल का मंत्र फूंकते हुए और लहराते हुए, हवा में नृत्य करते हुए धरती को चूमने को बढ़ते हैं। सर्द हवाएं इस खेल को और भी सुंदर बनाती हैं और झरते पत्तों का नृत्य हवा में कुछ देर और ठहर जाता है। इन्हीं ठहरे हुए खुश लम्हों का सुख नयी कोंपलों की खुशबू बन खिलता है। यही तो कुछ संदेश देता-सा होता है। पत्तों का झरना और झरते पत्ते। वाह क्या कहना।
‘कैथरीन क्या तुम मुझे पहचानती हो?’ पूछने का जी हो आया। फिर सोचा वह कैसे पहचानेगी भला? लेकिन क्यों नहीं पहचानेगी आखिर हम सब दुनियाभर की स्त्रियां एक ही मिट्टी की तो बनी हैं। चेहरे अलग, नाम अलग, देश अलग पर वह जो धड़कता है सीने में दिल वह जो नरमाई है वह क्या अलग है। नहीं ऐसा कहां है। सब की बात एक-सी है। सबमें वही नम्रता है। आईना देखा तो इसमें न जाने कितने चेहरे नज़र आने लगे, कैथरीन, रूहानी, सारथी, पारुल, रिद्म और भी न जाने कितने। जी चाहा पोंछ दूं तमाम पहचानें, उतार फेंकूं नाम, चेहरे से चेहरा पोंछ दूं। फिर किसी नयी कोंपल-सा उगे कोई नया चेहरा, नयी मुस्कान।
तभी एक बच्ची की हंसी कानों में झरी। वो स्कूल ड्रेस में खिलखिलाते हुए स्कूल जा रही थी। मैंने कैथरीन को देखा उसने मुझे... हम दोनों ज़िंदगी की पाठशाला में नए सबक सीखने को बढ़ गए। सलीम मियां सारथी और रिद्म नाम की पगडंडियों को दूर से देख रहे थे। दोनों पगडंडियों पर खूब फूल खिले थे...। यही झरना और यही खिलना, संदेश है जीवन का।
साभार : प्रतिभा कटियार डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम