चौथे स्तंभ की सजगता से ही जनतंत्र को मजबूती
देश का प्रधानमंत्री कुछ भी कहे उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए, उस पर चर्चा भी होनी चाहिए। पर हाल ही में पटना के एक चुनावी आयोजन में उन्होंने एक पत्रकार से जो कुछ कहा, उसके बजाय उनका एक पत्रकार से रोड शो के दौरान बात करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना जा रहा है। पिछले दस साल के शासनकाल में हमारे प्रधानमंत्री ने देश में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित नहीं किया है। हां, कुछ पत्रकारों से अलग-अलग बातचीत अवश्य करते रहे हैं, पर इन सारी मुलाकातों को ‘प्रायोजित’ ही समझा जाता रहा है। यह भी अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है कि ऐसी मुलाकातों में से एक जो सबसे ज़्यादा चर्चित रही है उसमें प्रधानमंत्री से ‘आप आम कैसे खाते हैं’ जैसे सवाल पूछे गये थे!
बहरहाल, एक टीवी चैनल के पत्रकार से रोड शो के दौरान हुई बातचीत की घटना को अखबारों की सुर्खी बनना ही था। चैनलों पर भी इस मुलाकात को लेकर विशेष चर्चाएं आयोजित हुईं। यह भले ही किसी को याद न रहा हो कि इस बातचीत में क्या मुद्दे उठाये गये, पर यह सब को याद होगा कि दस साल की चुुप्पी के बाद प्रधानमंत्री ने इस तरह से पत्रकार के सवालों का जवाब दिया। महत्वपूर्ण यह भी है कि इस इंटरव्यू के बाद समाचार चैनलों और अखबारों के प्रतिनिधियों से प्रधानमंत्री की बातचीत का दौर-सा चल पड़ा। कयास इस बारे में लगाये जा रहे हैं कि अचानक प्रधानमंत्री जी को पत्रकारों से इस तरह बात करना ज़रूरी क्यों लगने लगा है। और चर्चा इस बात की भी है कि आम-चुनाव के तीन दौर समाप्त होने के बाद मतदाता की ‘उदासीनता’ देखकर राजनेताओं, विशेषकर सत्तारूढ़ दल भाजपा, के नेताओं को लगने लगा है कि रणनीति कुछ बदलने की ज़रूरत है।
इस बात को लेकर मतभेद हो सकते हैं, विभिन्न राय हो सकती हैं, पर मीडिया को लेकर प्रधानमंत्री के रुख में आया यह परिवर्तन स्वागतयोग्य है। उम्मीद की जानी चाहिए कि पत्रकार-समाज इस अवसर का समुचित उपयोग करने की कोशिश करेगा। उम्मीद यह भी की जानी चाहिए कि यदि पत्रकारों को आगे भी ऐसे अवसर मिलते हैं तो पत्रकार निर्भीकता और ईमानदारी के साथ सवाल पूछेंगे और उन्हें समुचित उत्तर मिलेंगे। बात सिर्फ सवाल पूछने और उत्तर मिलने तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए, यदि किसी सवाल का सम्यक उत्तर नहीं मिलता तो पत्रकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निर्भीकतापूर्वक पूरा उत्तर प्राप्त करने की कोशिश करेगा। इस संदर्भ में मुझे एक बड़े अखबार के बड़े पत्रकार की ऐसी ही बातचीत याद आ रही है। पत्रकार ने प्रधानमंत्री से पूछा था- चुनाव प्रचार में इस बार धर्म-आधारित भाषण ज़्यादा हो रहे हैं, आप इन्हें कैसे देखते हैं? इस प्रश्न का जो उत्तर प्रधानमंत्री ने दिया, वह इस प्रकार छपा है : ‘आप कांग्रेस का मेनिफेस्टो देखिए। उसके शहजादे का भाषण देखिए। मनमोहन सिंह की सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड देखिए। उसमें सिर्फ और सिर्फ तुष्टीकरण की भावना नज़र आयेगी। तुष्टीकरण कांग्रेस का मूल स्वभाव बन गया है। इसके बिना उनकी राजनीति नहीं चल सकती। यह मेरा दायित्व है कि मैं तथ्यों को देश के सामने रखूं। मैं उनका पिछला ट्रेक रिकॉर्ड जनता को बता रहा हूं। वो किस सोच के तहत काम करते हैं, ये देश को जानना आवश्यक है।’
पता नहीं जो चार सवाल और उनके उत्तर अखबार में छपे हैं इसके अलावा भी प्रधानमंत्री जी ने कुछ कहा था, लेकिन यह एक उत्तर पूछे गये सवाल के साथ न्याय नहीं करता। चुनाव में धर्म आधारित भाषण की बात सभी दलों पर लागू होती है। प्रधानमंत्रीजी से यह पूछा जाना चाहिए था कि सवाल भाजपा के नेताओं से भी संबंधित है और उनसे यह अपेक्षा है कि वे बतायेंगे कि भाजपा के नेता ऐसा क्यों कर रहे हैं? लेकिन यह पूछा नहीं गया और न ही स्वयं प्रधानमंत्री जी ने इस बारे में कुछ कहना जरूरी समझा।
यह पहली बार नहीं है कि चुनाव प्रचार में राजनीतिक दलों द्वारा धर्म का सहारा लेने की बात उठी है। लगभग हर चुनाव में धर्म की बैसाखी का सहारा लेकर चुनावी लाभ लेने की कोशिशें हुई हैं। हमारा संविधान इस बात की इजाज़त नहीं देता। धर्म के नाम पर मतदाता को बांटना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं समझा जाना चाहिए। ‘राम मंदिर पर बाबरी ताला’ जैसी बात कहना अपने आप में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन से कम नहीं है। किसी राजनेता का किसी भी मंदिर में जाना कतई ग़लत नहीं है। हर एक को अपनी आस्था और श्रद्धा का सम्मान करने का अधिकार है। इस संदर्भ में किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। शिकायत सिर्फ इस बात की होनी चाहिए कि हमारे राजनेता धर्म के नाम पर वोट मांगकर हमारे संविधान का अपमान कर रहे हैं। धर्म आधारित भाषण वाले सवाल के उत्तर में प्रधानमंत्री को यह बताना चाहिए था कि वह धर्म के इस दुरुपयोग का समर्थन नहीं करते; उन्हें कहना चाहिए कि पंथ-निरपेक्ष देश में धर्म के नाम पर राजनीति करने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। उदाहरण हैं हमारे यहां जब राजनेताओं को ऐसे अपराध की सज़ा मिली है, पर अधिसंख्य राजनेता ऐसे उदाहरणों की परवाह नहीं करते। धार्मिक आधार पर तुष्टीकरण की नीति का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण की कोशिश भी तो छोटा अपराध नहीं हैं। यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है कि आम चुनाव के अधबीच हिंदू-मुसलमान की बात होने लगी है। चुनाव प्रचार की शुरुआत में ऐसा नहीं था, पर पता नहीं शीर्ष राजनेताओं को इसकी जरूरत क्यों महसूस होने लगी है?
चुनाव के चार दौरों के पूरा होने के बाद यदि एक और बात जो सामने आयी है, वह मतदाता की अपेक्षाकृत उदासीनता है। अपेक्षा से कम मतदाताओं का मतदान के लिए आना सबके लिए चिंता की बात होनी चाहिए। अधिकाधिक मतदाता पोलिंग बूथ तक पहुंचें यह जनतंत्र की सफलता का एक संकेत है। लेकिन यदि धर्म के नाम पर मतदाताओं को लुभाने की कोशिश ज़रूरी है तो ऐसी राजनीति देश को नहीं चाहिए। हर नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, पहले भारतीय है। यह और ऐसी बातें प्रधानमंत्री को धर्म आधारित भाषणों वाले प्रश्न के उत्तर में कहनी चाहिए थीं। यदि उन्होंने अपने कुछ कारणों से ऐसा नहीं किया तो पत्रकार का काम था उन्हें यह अहसास कराना कि प्रश्न धर्म के नाम पर की जाने वाली राजनीति के औचित्य का था।
बहरहाल, कारण कुछ भी रहे हों, प्रधानमंत्री की यह पहल एक अच्छी शुरुआत है। यह सिलसिला, दस साल पहले ही शुरू हो जाना चाहिए था। रहे होंगे कुछ भी कारण ऐसा न कर पाने अथवा न हो पाने के, पर स्वस्थ जनतंत्र में राजनीति और पत्रकारिता का स्वस्थ रिश्ता होना ज़रूरी है। पत्रकारिता का दायित्व है कि वह विधायिका को जागरूक बनाये रखने के प्रति सजग और सक्रिय रहे और विधायिका का कर्तव्य है कि वह इन स्वस्थ रिश्तों को कमज़ोर न पड़ने दे। पत्रकारिता को जनतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। इस स्तंभ की मज़बूती जनतंत्र की मज़बूती का एक आधार है।
अर्सा हुआ, प्रधानमंत्री एक इंटरव्यू को अधूरा छोड़कर उठ गये थे। उठते-उठते उन्होंने कहा था, ‘...हमारी दोस्ती बनी रहे।’ उम्मीद की जानी चाहिए कि पटना की उस रैली में प्रधानमंत्री ने जो पहल की है, वह इस ‘दोस्ती’ को बनाये रखने में मददगार होगी। स्वस्थ राजनीति, स्वस्थ पत्रकारिता और स्वस्थ रिश्ते हमारे जनतंत्र को सार्थकता देंगे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।