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बाज़ार ही पंडित है बाज़ार ही पर्व विधान

05:50 AM Oct 31, 2024 IST
बाज़ार ही पंडित है बाज़ार ही पर्व विधान
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नरेश कौशल
इस बार दीपों के पर्व दीपावली का मुहूर्त दो दिन में बंट जाने की कसक तमाम लोगों के मन में बनी रही। लोग इस त्योहार का इंतजार सालभर करते हैं। हर कोई सोचता रहा है कि काश, उमंग, उल्लास और रोशनियों का यह त्योहार एक ही दिन एक ही समय पर पूरे देश में होता तो कितना अच्छा होता। हाल के वर्षों में हर हिंदू त्योहार को लेकर ऐसी असमंजस की स्थिति पूरे देश में बनी रहती है। सही मायनों में इससे पूरे त्योहार का मजा ही किरकिरा हो जाता है। आखिर पर्व-त्योहार की तिथि तय करने वाले धर्मगुरु, पंडित व काल गणना करने वाले ज्योतिषी शुभ तिथि के निर्धारण के लिये क्यों सबसे करीब दिन या समय पर एकमत नहीं होते? कुछ दशक पहले तक ऐसा नहीं होता था। पूरा देश एक समय पर त्योहार उत्साह और मिल-जुलकर मनाता था। ऐसा असमंजस दूर करने के लिये, इस दिशा व मुद्दे पर धर्मगुरुओं को एक राय बनाकर सोचना चाहिए। ऐसा न हो कि बार-बार गफलत के हालात की वजह से लोगों की रीति-रिवाज, परंपरा और त्योहारों के प्रति रुचि कम होती चली जाए।
पर्व तिथियों में गफलत को लेकर सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि इसमें बाजार का गहरे तक जरूरत से ज्यादा दखल हो चुका है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि पूरी दुनिया में बाजार की शक्तियों ने जो शिकंजा कसा है वह सबसे ज्यादा हमारे त्योहारों पर नजर आता है। लगता है कि वैश्वीकरण व ग्लोबलाइजेशन के मंत्रों का सबसे ज्यादा असर इस त्योहार पर ही हुआ है। बुधवार को एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में स्वर्ण-आभूषण बनाने वाली देश की एक बड़ी कंपनी का विज्ञापन छपा। बताता चलूं कि ये विज्ञापन धनतेरस के अगले दिन प्रकाशित हुआ। बाजार की शतरंजी चाल तो देखिए कि अंग्रेजी अखबार के मुख्य पृष्ठ पर हिंदी में छपा पूरे पेज का विज्ञापन का मजमून बताता है- ‘आज भी धनतेरस। एक और मांगलिक-दिन। मेकिंग चार्ज जीरो फीसदी।’ बाजार की मुनाफे की पैनी नजर तो देखिए कि उसने जान लिया कि दीपावली दो दिन मनायी जा रही है तो इस असमंजस को मुनाफा कमाने के मौके में क्यों न बदल दिया जाए? जैसे देश दीपावली के त्योहार मनाने की दो दिन की दुविधा में फंसा है, क्यों न यह दुविधा धनतेरस को लेकर भी पैदा कर दी जाए! यानी ग्राहकों को यह भरमाया जाए कि आज दूसरे दिन भी धनतेरस है। ऐसा धनतेरस को लेकर पहली बार सुना। कहने को यह पर्व लोग लक्ष्मी व धन की आकांक्षा में मनाते हैं। ताकि उनके घर लक्ष्मी आए। उनके द्वारा खरीदा गया सोना या अन्य धातुओं के जेवर मंगलकारी होंगे। लेकिन मनन करने वाला सवाल यह है कि असली धनतेरस है किसकी? कौन पर्व का असली लाभ उठा रहा है? कौन सोने की कीमत तय कर रहा है? कौन धनतेरस के नाम पर ग्राहकों को जबरन खींच रहा है? पर्व की मान्यता और शुभ की उम्मीद में लोग सुनारों के शोरूम पर दौड़े चले आते हैं। अपनी जरूरत न होते हुए भी सोने व अन्य धातुओं के आभूषण खरीद रहे होते हैं? सवाल वही कि क्या धनतेरस आम का है या खास का? श्रद्धालु का है या बाजार का? यहां उदाहरण वेलेंटाइन डे का भी दे सकते हैं जो कभी केवल एक दिन 14 फरवरी को मनाया जाता था। लेकिन बाज़ारवाद ने इसे सात दिन तक खींच दिया।
हाल के वर्षों में हमारा बाजार जिस तरह दीपोत्सव के हर पहलू पर हावी हो गया है वह परेशान करने वाला है। इन त्योहारी दिनों में देश में जितनी खरीदारी कुल मिलाकर होती है शायद उतनी खरीदारी शेष ग्यारह महीनों में भी नहीं होती होगी। हिंदू मान्यताओं की वर्ण व्यवस्था के अनुसार दीपावली मुख्यत: वैश्य समाज का पर्व है। धन-धान्य से समृद्ध होने का पर्व है। व्यापारियों के नये वित्तीय साल की शुरुआत होती है। इस समय देश के खेत-खलिहान धन-धान्य से परिपूर्ण होते हैं। नया अनाज आढ़तों में आ रहा है। किसान फसल बेचकर पुराने कर्जे चुका रहा है। बचे धन से घर की जरूरतों को पूरा करने के साथ दीपावली का त्योहार मना रहा है। हर कोई दिवाली के उल्लास में खरीदारी के मूड में। बाजार उसकी इस नब्ज पर हाथ रखता है। देशी-विदेशी कंपनियां दीपावली के पहले ही कई हफ्तों से अपने उत्सव मनाने लगती हैं। तरह-तरह के मेले और स्कीम। वाकई असली दिवाली तो उनकी ही है। मजाक में कहा जाता है कि बाजार की दिवाली है और आम आदमी का दिवाला।
एक बात तो शीशे की तरह साफ है कि हिंदू धर्म के सभी त्योहारों के मुकाबले दीपावली में बाजारी ताकतों की गहरी पकड़ है। हर किसी को नया खरीदने के लिये लुभाया जा रहा है। त्योहार तो पहले भी मनाया जाता था। लोग सादगी, श्रद्धा-विश्वास व प्यार से त्योहार मनाते थे। लेकिन उपभोक्तावादी कल्चर गहरे तक हमारे रीति-रिवाजों व त्योहारों पर हावी हो गया है। यह तो मानना पड़ेगा कि देश में संपन्नता या लोन लेने का प्रचलन कमोबेश हर वर्ग तक पहुंचा है। बाजार में खरीदारी का तूफान बता रहा है कि हरेक के हाथ में पैसा है। तभी तो हर तरफ दिवाली का रेला-मेला है। ऑनलाइन खरीदारी का उफान है। हर तरफ सजी दुकान है। सिर्फ पैसे का मान है। बाजार मालिक और ग्राहक सम्माननीय मेहमान है।
वास्तव में, हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब हर तरफ दिखावे का बोलबाला है। मेरी कमीज सामने वाले से ज्यादा चमकदार दिखनी चाहिए। मेरी कार पड़ोसी से बड़ी दिखनी चाहिए। पिछले साल खरीदी चीज पुरानी हो गई है। फलां चीज में नये फीचर आ गये हैं। बाजार ने उपभोक्ताओं के इस मनोविज्ञान को गहरे तक पकड़ा है। वास्तव में बाजारवाद की सोच ग्राहकों की इन्हीं इच्छाओं का विस्तार ही है। बाजार ही उसे भुना रहा है। वह ग्राहकों को उलटे उस्तरे से मूंडने का कोई अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहता। वह साल भर का बचा माल नया बताकर बेचने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहता। आप अपने मित्र-रिश्तेदार के स्वास्थ्य के लिये जो ड्राईफ्रूट खरीदकर दे रहे हैं, हो सकता है कि सजे-धजे पैकेट में कई साल पुराना माल दुकानदार ने चेप दिया हो। बाजार की नैतिकता दांव पर है। यही हाल मिठाइयों का भी है। पशुधन के लगातार कम होने के बावजूद बाजार में रामराज की तरह दूध-घी की नदियां बह रही हैं। कोई उनकी गुणवत्ता की जांच नहीं करता। जिस इंस्पेक्टर की जांच पड़ताल की जिम्मेदारी है वह चांदी के जूते खाकर अपनी टर्र-टर्र बंद कर देता है। मिलावट का धंधा बदस्तूर जारी है।
दीपावली के त्योहार में बाजार किस हद तक हावी है उसकी बानगी अन्य समाचार पत्रों व अन्य सूचना माध्यमों में प्रकाशित विज्ञापनों से भी पता चलती है। हर कोई यही बता रहा है कि इस मौके पर खरीदारी के बिना इस नश्वर संसार से मुक्ति संभव नहीं है। घर खरीदो तो दिवाली पर। वाहन खरीदो तो दिवाली पर। छूट पर छूट है मगर पीछे से लूट ही लूट है। बिना पान मसाले के दिवाली फीकी है।
बाजार की इस आपाधापी में सबसे चिंता वाली बात तो यह है कि बाजार अब तो इस त्योहार की पूजा व रीति-रिवाजों में भी गहरा दखल देने लगा है। कई अखबारों में आपको विज्ञापन नजर आ जाएगा- ‘दिवाली पर विशेष। लक्ष्मी पूजा विधि का ऑडियो और वीडियो। मंत्रों से करें पूजा। ऑडियो सुनने के लिये यह क्यू आर कोड स्कैन करें। वीडियो देखने के लिये फलां क्यू आर कोड स्कैन करें। साथ में दिवाली के पूजन मुहूर्त का विवरण भी।’ यानी बाजार ही पंडित है और बाजार ही विधान है। सही मायनों में त्योहार का यह बाजारीकरण पर्व के मर्म को आहत कर रहा है। इसमें दो राय नहीं कि दिवाली का त्योहार हमारी अर्थव्यवस्था को गतिशीलता देता है। मगर त्योहार की आत्मा पर बाजार का हावी होना चिंताजनक है। बाजार की मार से हमारा त्योहार बेजार नहीं होना चाहिए।

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