बड़े परिवार की छाया का सुकून
रेणु जैन
अमिताभ बच्चन के पैर जब बॉलीवुड में जमने लगे तब उन्होंने अपने पिताश्री डॉ. हरिवंशराय बच्चन ,जो हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के बेजोड़ विद्वान थे, से पूछा कि बताइए बाबूजी अब आप मुझसे क्या चाहते हैं? डॉ. बच्चन उस समय नई दिल्ली शिफ्ट हो चुके थे। उन्होंने अमिताभ से कहा- मैं अब तुम्हारे साथ ही रहना चाहता हूं। कोविड 19 के कठिन दौर ने भारतीय समाज को संयुक्त परिवार की पुरातन प्रथा की अहमियत का सबक सिखाया है। भौतिकता कहिए या देखा-देखी के कारण- हम अपनी जड़ों से ही उखड़ने लगे थे। कोरोना काल के बीच संयुक्त परिवार की अहमियत को लेकर गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय ने एक सर्वेक्षण किया जिसमें 2000 लोगों को शामिल किया। इन सभी से टेलीफ़ोन पर सवाल पूछा गया कि पिछले डेढ़ साल में उक्त महामारी के दौरान उन्हें सबसे अधिक कमी किस बात की खली। इन सभी लोगों में से लगभग 700 प्रतिभागियों ने माना कि हम संयुक्त परिवार में रहकर पहले से बेहतर महसूस कर रहे हैं ,और संक्रमण की आतंकित करने वाली खबरों के बीच बुरे हालात का सामना करने का हौसला बढ़ा है।
अवसाद, अकेलेपन से निजात
संयुक्त परिवार प्रथा की वापसी से उपजे ऐसे आत्म विश्वास में कोविड के एक और प्रकोप पर अंकुश लगा। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉक्टर दीपक मंशा रमानी का कहना है कि संयुक्त परिवार के कारण लोगों को बेकार के तनाव , अवसाद , चिंता ,अकेलेपन से भी निजात मिली। अमेरिकी मनोविश्लेषक डेल कारनेगी की विश्व प्रसिद्ध किताब ‘चिंता छोड़ो ,सुख से जिओ’ में बार-बार कहा गया है कि कुछ लाइलाज बीमारियों को छोड़ दें तो तमाम अन्य बीमारियों के मूल में कहीं अवसाद ,कहीं चिंता ,कहीं अकेलापन व कहीं कुछ अन्य मनोविकार होते हैं। नई दिल्ली स्थित एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया तक कह चुके हैं कि कोरोना के दूसरे प्रहार के दौरान हालात काबू से इसलिए बाहर जा रहे थे कि लोग ज़रा से में चिंतित हो रहे थे ,आतंकित हो रहे थे। अब यदि पुरातन संयुक्त परिवार प्रथा की समाज में जगह बन रही तो इसे उम्मीदों भरा आकाश भी कहा जा सकता है। संयुक्त परिवार हमें प्रारम्भ से कड़े अनुशासन की नसीहत देता है। कोरोना काल में जो लोग घरों से दूर रहे, वे लोग कोविड डिसिप्लिन को भूल गए। ये यदि माता-पिता,भाई-बहन, कुछ अन्य रिश्तेदारों के साथ रहते, तो महामारी के ज़रिये उपजे तनाव पर अंकुश लगाया जा सकता था।
घरों में बंद रहने से उपजी नकारात्मकता
कोरोना के बेहद मुश्किल भरे दौर में जब लोग महीनों घरों में कैद रहे तो सोचने लगे कि जीवन दूभर हो जाएगा। भारत में सालभर ही कोई न कोई तीज-त्योहार मनाये जाते हैं ,और वैसे भी मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। कोरोना काल ने संयुक्त परिवार को ही छोटे से समाज में परिवर्तित कर दिया है ,जिसमें अपने-पराए सब एक हो गए हैं। जो वर्ग नौकरी के लिए संयुक्त परिवार से अलग होकर एकल परिवार का आदी हो गया था और बाहर जा बसा था वह वर्क फ्रॉम होम के चलते पत्नी व बाल-बच्चों के साथ रहने लगा ,लेकिन जल्दी ही उसे ऊब,एकरसता आदि ने घेर लिया। क्योंकि ऑफिस जैसा दोस्त-यारों का माहौल कहां? लेकिन उसके बाद जूम मीटिंग आदि होने लगी तो कुछ सकारात्मकता आई।
मिलकर रहने की खुशी का इजहार
भारतीय समाज का कोरोना के बाद जो सर्वे किया गया है ,उसमें से तीस प्रतिशत संयुक्त परिवार की अवधारणा के कारण प्रसन्नता महसूस करने लगे हैं ,बीस प्रतिशत तनाव से दूर हुए हैं ,पन्द्रह प्रतिशत कोविड के डर-दहशत से दूर हो गए हैं और 35 प्रतिशत में घुल-मिलकर रहने की इच्छा बलवती होने लगी है। संयुक्त परिवार की अवधारणा लौटने के पहले बुढ़ापा कांपने लगा था ,बच्चों की सपनों की दुनिया कहीं खो गई थी,लेकिन अब एक संयुक्त परिवार एक सम्पूर्ण समाज है। इस तरह का परिवार एक छत के नीचे रहकर एक रसोईघर से एक ही तरह का भोजन करता है। उनका धर्म ,पूजा पद्धति व आर्थिक समन्वय लगभग समान रहता है। इसीलिए आड़े वक़्त-जरूरत के लिए पड़ोसी या दूसरों का मुंह नहीं देखना पड़ता।
आपसी जुड़ाव से मानवीय संवेदना तक
संयुक्त परिवार मानव सभ्यता की अनूठी व प्यारी देन है। देश के जाने-माने मनोविश्लेषक डॉ. आशुतोष तिवारी का कहना है कि संयुक्त परिवार के तहत आय और उसके उचित उपयोग के बीच संतुलन अच्छे से कायम किया जा सकता है। उक्त प्रथा मानवीय संवेदना को विकसित करती है। आपसी जुड़ाव मजबूत होता है। डॉ. तिवारी कहते हैं- कोविड के व्यापक दुष्प्रभावों ने संयुक्त परिवार को ज़्यादा प्रासंगिक बना दिया है। अंत में जानना आवश्यक है कि संयुक्त परिवार की सीधी-सादी परिकल्पना या परिभाषा क्या है। दरअसल, इस प्रणाली में तीन से चार छोटे परिवार एक समूह में रहते हैं जिसमें माता-पिता के अलावा चाचा-चाची, उनके बच्चे, लड़कों की पत्नियां व बुआ आदि रहते हैं जिनकी संख्या कभी 15 के पार तक हुआ करती थी।