प्रेमिल रिश्तों की संवेदनशीलता और विश्वसनीयता
सोनम लववंशी
प्रेम जितना छोटा शब्द है, वह उतने ही ज्यादा कठिन दौर से गुजरने के बाद मुकम्मल हो पाता है। व्यक्ति प्रेम करने के लिए क्या कुछ दांव पर नहीं लगा देता है! दरअसल, यह एक उच्च भावनात्मक प्रक्रिया है जिसके तहत विशेषकर एक स्त्री किसी को अपना जीवन सौंप देना चाहती है! फिर भले ही कई बार उसमें सामाजिक रीति-रिवाज के पक्ष भी आड़े आते हैं। ऐसा उल्लंघन कई बार अपनों से अलगाव-मनमुटाव व तानाकशी की स्थिति को जन्म देता है, लेकिन इन सभी बाधाओं से गुजरने के बाद भी स्त्री को यदि प्रेम के बदले रिश्ते में घृणा-हिंसा मिले, प्राणों की बलि देनी पड़े तो यह केवल अमानवीय ही नहीं बल्कि समाज को स्तब्ध कर देने वाली घटना कही जायेगी। प्रेम अक्सर साथ जीने-मरने की आकांक्षा के साथ बढ़ता है। प्रेम और घृणा एक साथ नहीं रह सकते हैं। बीते दिनों मुम्बई में घटी ऐसी ही घटना व उससे पूर्व दिल्ली में हुए श्रद्धा वालकर कांड मानवता को शर्मसार कर देने वाले वाकये हैं। ये दोनों ही घटनाएं सुनियोजित हिंसा और हत्या का पर्याय है। जो एक प्रेमी मन कर ही नहीं सकता है।
सामूहिक चेतना के समक्ष बड़ा सवाल
पहले श्रद्धा और अब सरस्वती की मौतें मौजूदा समाज के सामने अनगिनत सवाल खड़े कर रही हैं। यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि आख़िर हम किस दिशा में जा रहे हैं? प्रेम में होना या प्रेम करना कोई गुनाह नहीं है, लेकिन कोई आदमी पहले प्रेम करने का ढोंग करें। उसके बाद प्रेमिका की निर्ममता से हत्या कर दे। यह कृत्य बर्बरता से भी बढ़कर है जिसने हमारी सामूहिक चेतना को झकझोरने का काम किया है। दूसरी ओर, यह घटना एक समाज के तौर पर हमारी नाकामी को भी दिखाती है और जवाबदेही से जुड़े सवाल भी खड़े करती है। बेशक, प्रेम करना एक निजी मामला हो सकता है, लेकिन क्या सब कुछ इतना यांत्रिक हो चुका है, जहां मानवीय मूल्यों और संवेदना के लिए कोई जगह नहीं बची?
कानून पर भी हो पुनर्विचार
मुंबई में घटित मामले में सरस्वती के साथ मनोज ने जो किया उसे किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। सवाल यह भी कि लिव इन रिलेशनशिप के नाम पर कब तक हिंसा होती रहेगी और समाज व कानून तमाशबीन बने रहेंगे। गंभीर विचार यह भी कि लिव इन रिलेशन को भारतीय परिवेश में भला कैसे स्वीकृति मिल सकती है। हमारे देश की पुरातन गौरवशाली संस्कृति है। जहां हर रिश्ते की अपनी मर्यादा है। ऐसे में पश्चिमी संस्कृति का दिखावा करना कहां तक सही है? ऐसी घटनाओं के चलते अब समय आ गया है कि देश के कानून निर्माता लिव इन रिलेशनशिप को वैधानिक मान्यता देने के फैसले पर पुनः विचार करें, क्योंकि हमारे देश में विवाह पद्धति की रीत है जिसे किसी भी सूरत में खण्डित नहीं किया जा सकता। ऐसा करने का परिणाम श्रद्धा और सरस्वती की तरह भी हो सकता है।
रिश्तों से खिलवाड़
देश में इन दिनों विकास और आधुनिकता के नाम पर भारतीय सनातन संस्कृति को बिसारने का क्रम तेजी से जारी है। जिसे समय रहते नहीं रोका गया तो हमारी सदियों पुरानी जांची-परखी विवाह पद्धति व पारिवारिक ढांचे पर चोट पहुंचेगी। आधुनिक होना अच्छी बात है लेकिन उसके नाम पर अमर्यादित, हिंसक और अधीर होना भी सही नहीं है। भारत संयुक्त परिवारों का देश है। ऐसे में लिव इन रिलेशनशिप की यहां कोई गुंजाइश नहीं नजर आती है। लिव इन के नाम पर बढ़ते अपराध ये बताने के लिए काफी हैं कि कैसे रिश्तों और संस्कृति का मख़ौल उड़ाया जा रहा है। कितनी ही महिलाएं प्रेम के नाम पर अत्याचार व हिंसा झेल रही हैं। ऐसे में हम आधुनिक होने का दिखावे के चलते यह सब कुछ होते देख रहे हैं। वक्त की नजाकत है कि हमें इंसानी रिश्तों के मर्म को समझना होगा। केवल अपनी सुविधा के नाम पर रिश्तों से खिलवाड़ करना बंद करना होगा।
दिखावा और गैर जिम्मेदारी
भारतीय संविधान ने भले ही सबको अपने हिसाब से जीवन जीने की स्वतंत्रता दी है, लेकिन रिश्तों को मज़ाक समझना, साथ रहने का दिखावा करना और जब मन भर जाए तो साथी की जान को खतरा बन जाना न्यायोचित नहीं है। लिव इन रिलेशनशिप एक ऐसा ही कुचक्र है। जहां परिवार की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने और दैहिक सुख के लिए साथ होने का दिखावा भर किया जाता है। जिस रिश्ते में अपनत्व, सामाजिक दायित्व व परिवार का भाव न हो वो प्यार तो हरगिज़ नहीं हो सकता। तभी तो आधुनिकता की दुहाई देने वाले लिव इन के तहत हुए हालिया हत्याकांडों पर चुप्पी साधे हुए हैं। दरअसल, कहीं न कहीं वह भी जानते हैं ऐसे रिश्ते न तो हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए सही हैं और न ही भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के हिसाब से इसे जायज़ ठहराया जा सकता है।