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बांग्लादेश में लोकतंत्र ढहने की मूल वजहें

07:36 AM Aug 13, 2024 IST

गुरबचन जगत
(मणिपुर के पूर्व राज्यपाल, पूर्व डीजीपी जम्मू व कश्मीर)
‘वीसीज़ फॉर कमला’ के नाम तले एक समूह ने बयान जारी कर कहा है ‘इस महत्वपूर्ण बेला में हम सब एकजुट होकर कमला हैरिस का समर्थन करते हैं।’ यह गुट तकनीक उद्योग की प्रतिष्ठित कुछ कंपनियों के महत्वपूर्ण अगुआओं का है, जिसमें लिंक्डइन के संस्थापक रीड हॉफमैन, एप्पल के सह-संस्थापक स्टीव वॉज़निएक और सन माइक्रोसिस्टम्स के सह-संस्थापक विनोद खोसला शामिल हैं। इस समूह ने 700 टेक लीडर्स के हस्ताक्षर युक्त अपने वक्तव्य में कहा, ‘हम व्यवसाय के पक्ष में हैं, हम अमेरिका को आगे ले जाने के स्वप्न के पक्षधर हैं, हम नवोन्मेष के समर्थक हैं, हम तकनीकी प्रगति के हक में हैं। हमारा विश्वास अपने देश के रीढ़ रूपी लोकतंत्र में है। हमारा मानना है कि मजबूत, विश्वसनीय संस्थान एक विशेषता हैं न कि बुराई -उद्योग कोई भी हो- उनके बिना ढह जाएगा।’ यह उन दो मूलभूत सिद्धांतों -लोकतंत्र एवं संस्थान- को प्रतिपादित करते हैं, जिसकी नींव पर देश उन्नति करते हुए विकसित राष्ट्र बनता है। ये वो सिद्धांत हैं, जिन्हें साहसी स्त्री-पुरुषों ने लागू किया था, जो अधिनायकवादी, फसादी, फासीवादी और हिंसात्मक ताकतों से लड़े और उन्हें हराया। लड़ाई अभी भी जारी है और तानाशाही एवं फसादी ताकतें लोकतंत्र एवं कानून के राज को लीलने को तत्पर हैं। संस्थान, जो कि संविधान और संसद में निहित आदेश-पत्र से वजूद में आए, यूरोप और उत्तर अमेरिका में उनमें अधिकांश अपने कर्तव्यों को अंजाम देने को डटकर खड़े हैं, हालांकि मजबूत जिद्दी ताकतें इनके विरोध में हैं।’
‘द मैग्ना कार्टा लिब्रटेटम’ (स्वतंत्रता का महान राजपत्र) में सार्वभौम अर्थात शासक को कानून के शासन के तहत बताया गया है और इसमें आजाद इंसान को मिली स्वतंत्रताओं का जिक्र है। यह एंग्लो-अमेरिकन न्याय-प्रणाली में नागरिक अधिकारों को आधार मुहैया करवाता है। आगे चलकर, राजा के ‘दिव्य अधिकारों’ को धीरे-धीरे छीन लिया गया, जिससे लोकतंत्र की स्थापना हुई। यह समाज का रूपांतरण था, जहां से कानून का राज और आम नागरिक का सशक्तीकरण स्थापित हुआ। इससे महान लोकतंत्र बनाने की राह प्रशस्त हुई। पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर के शब्दों में ‘एक देश केवल इसलिए समृद्ध नहीं होता कि उसके पास अकूत प्राकृतिक स्रोत हैं, यदि ऐसा होता तो आपका देश (रूस) विश्व का सबसे अमीर मुल्क कब का बन चुका होता। यह उद्यमित्ता है जिससे धन पैदा होता है... मैं जिस पूंजीवाद की समर्थक हूं, उसका अर्थ सबके लिए मनमर्जी की खुली छूट नहीं है बल्कि वह है जिसमें कोई ताकतवर अपनी हैसियत का फायदा ईमानदारी, भद्रता और सामूहिक कल्याण की एवज में न उठाने पाए। पूंजीवाद तभी काम करेगा जब कानून का राज मजबूत एवं न्यायप्रिय हो, जिसके प्रति सरकार सहित हर कोई उत्तरदायी हो।’
इसकी आगे व्याख्या करें तो, देखा गया कि अधिकांश विकसित देश समय के साथ अपने संस्थानों को मजबूत बनाते चले गए, जिसके वास्ते उनके संविधान और संसद में प्रावधान निहित हैं और फिर यही संस्थान दो विश्व युुुुुद्धों की विपरीत परिस्थितियां बनने पर जरा नहीं डिगे बल्कि और सुदृढ़ एवं विजयी बने। वहीं दूसरी तरफ, कम विकसित और हाल ही में आजाद हुए मुल्कों ने शुरुआत चाहे सही इरादों से की हो, लेकिन जल्द ही कट्टरता के अतिरिक्त, ताकत और पैसे की लालसा के सामने डिगते चले गए और इसकी एवज में धीरे-धीरे अपने संस्थानों को तबाह करते गए। लोकतंत्र की जगह किसी एक नेता या पार्टी या मंडली के अधिनायकवाद अथवा तानाशाही ने ले ली, वह भी इस स्तर तक कि जनता उम्मीद और न्याय के लिए फौज को बतौर प्रकाशपुंज देखने लगे। न्यायपालिका, निर्वाचित प्रतिनिधि संस्थाएं, राजनीतिक दल- यह सब लोकतंत्र को ध्वस्त करने वालों के हमले के सामने ताश के महल की तरह ढहते चले गए, जो न तो कानून का शासन चाहते हैं न ही इन्हें गरीब और समाज के सबसे निचले तबके के उत्थान से सरोकार है, ये वह ताकतें हैं जो सत्ताधारी दल, नेता अथवा मंडली का साथ देती हैं।
अब आते हैं उस देश की तरफ, जिसके संदर्भ में मैंने ऊपर का सब लिखा है यानी बांग्लादेश (पहले पूर्वी पाकिस्तान)– अपनी स्थापना से ही इसके पास वे तमाम अवयव थे जो एक अलग देश होने के लिए जरूरी होते हैं। पाकिस्तान के साथ इसकी राजनीतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सांझ जरा नहीं थी, ले-देकर एक धर्म की समानता थी, वह भी पूरी तरह नहीं। पाकिस्तानी हुक्मरानों ने अपना निज़ाम बनाए रखने को इसे अपनी फौज के जूतों तले रौंदवाया, आतंक का कहर मचाया और नरसंहार किया। न्याय पाने को सेना ही पहला और अंतिम चारा थी, तमाम अन्य संस्थानों का बधिया कर डाला। लोग उठे और मुक्ति बाहिनी बनाई और शेख मुजीब-उर-रहमान के रूप में भरोसेयोग्य नेता उभरा। उनका साथ विचारशील एवं साहसी इंदिरा गांधी के नेतृत्व ने दिया, बांग्लादेश का जन्म हुआ। आरंभिक वर्षों में ही त्रासदी घटी जब शेख मुजीब और लगभग पूरे परिवार को 1975 में मार डाला गया। सेना और अधिनायकवादी ताकतों का शासन फिर से काबिज हो गया। बांग्ला देश घूमकर वहीं आ गया जहां से शुरू किया था। तथापि, आगे चलकर शेख हसीना लोगों का समर्थन प्राप्त कर बांग्लादेश की लोकप्रिय नेता बनीं। चुनाव हुए, निर्वाचित सरकार बनी और संसद पुनः काम करने लगी, साथ ही संस्थान पुनः जीवंत हुए। उद्यम को बढ़ावा दिया गया। बांग्ला देश आर्थिक रूप से तरक्की करने लगा और इसके साथ लोगों का जीवन स्तर भी सुधरा। विकास के अधिकांश पैमानों पर देश की स्थिति सुधरने लगी –मानव एवं वित्तीय दोनों पर। ठीक इसी समय, अस्थिरता बनाने वाली बाहरी और अंदरूनी ताकतें पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी और चरमपंथी इस्लामिक संगठनों के दिशा-निर्देशों पर अपने काम में लगी रहीं। इन शक्तियों के हमलों का सामना करने को सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता और प्रशासनिक तंत्र भी गैर-कानूनी उपाय अपनाने लगे। धीरे-धीरे व्याधि घर करती गई– राजनीतिक असहिष्णुता, भ्रष्टाचार, विरोधियों के प्रति हिंसा। ज्यादा से ज्यादा विपक्षी नेता और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाला जाने लगा। सत्ताधारी दल के खिलाफ चुनाव में धांधली के आरोप लगे और विपक्षी दलों को खुलकर काम नहीं करने दिया गया। लोकतांत्रिक संस्थाओं को प्रभावहीन बना दिया और वे अपना काम करने लायक न बची। आम जनजीवन में केवल सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओंं की चलती।
जब कभी संकट बना, तब-तब बांग्लादेश नागरिक स्वतंत्रता एवं मजबूत संस्थान विहिन तानाशाही वाला मुल्क बना। जो आंदोलन छात्रों के आक्रोश से शुरू हुआ था, उससे राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर सही ढंग से नहीं निपटा गया। आखिरकार हसीना ने पुलिस और सेना को अपने ही नागरिकों पर गोली चलाने का आदेश दिया– सैकड़ों मारे गए और इस खून से उनके हाथ सदा के लिए रंग गए। उन्हें वही देश छोड़कर भागना पड़ा जो कभी उनके पिता को आजाद बांग्लादेश में पलकों पर बिठाकर लाया था और आज वे दिल्ली के पास एक भवन में बैठी, कहीं राजनीतिक शरण पाने की बाट जोह रही हैं।
लेख की शुरुआती कुछ पंक्तियों की ओर लौटते हैं ‘हमारा विश्वास अपने देश के रीढ़ रूपी लोकतंत्र में है। हमारा मानना है कि मजबूत, विश्वनीय संस्थान विशेषता हैं न कि बुराई -उद्योग कोई भी हो- इसके बिना ढह जाएगा...’। इसमें बस एक बात जोड़नी है : न केवल ‘उद्योग’ बल्कि पूरा देश ढह सकता है।
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लेखक ‘द ट्रिब्यून’ के ट्रस्टी हैं।

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