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कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा का प्रश्न

08:36 AM Aug 21, 2024 IST
कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा का प्रश्न

क्षमा शर्मा

पिछले दिनों से कोलकाता में एक महिला डाक्टर की दुष्कर्म के बाद हत्या चर्चा में है। इसे कोलकाता का निर्भया कांड कहा जा रहा है। निर्भया की दुष्कर्म और हिंसक मारपीट के बाद सिंगापुर के अस्पताल में मृत्यु हो गई थी। इस डाक्टर के साथ अपराध वहां किए गए हैं, जहां वह काम करती थी। क्यों सड़कें, घर, अस्पताल, दफ्तर, महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं हैं। निर्भया कांड के बाद दिल्ली में तेज आंदोलन हुआ था। उस समय सारा विपक्ष निर्भया के समर्थन में उतर आया था। और एक बेहद गरिमामय मुख्यमंत्री शीला दीक्षित चुनाव हार गई थीं। लेकिन कोलकाता के केस में ममता बनर्जी की सरकार और विपक्ष का बड़ा तबका अगर-मगर कर रहा है। देशभर में डाक्टरों के स्वतः स्फूर्त आंदोलनों को केंद्र की सत्ताधारी पार्टी से जोड़ा जा रहा है। यहां तक कि डाक्टरों को बीजेपी का सपोर्टर बताया जा रहा है।
कितने अफसोस की बात है कि शीला दीक्षित को तो बार-बार इस छड़ी से पीटा गया था कि एक महिला मुख्यमंत्री के राज्य में ऐसा हुआ। उन्हें निर्भया को श्रद्धांजलि देने तक से रोक दिया गया था। लेकिन बंगाल के मामले में लोगों ने चुप्पी साध रखी है। यही नहीं, निर्भया के बारे में जो तर्क दिए गए थे कि वह इतनी रात बाहर निकली ही क्यों थी। जैसे कि लड़कियां रात में बाहर निकलेंगी तो पुरुषों को यह अधिकार मिल जाएगा कि उनके साथ कुछ भी करो। दुष्कर्म करो, उन्हें मार डालो। कोलकाता में भी ऐसे ही तर्क सत्ताधारी दल के द्वारा दिए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि वह लड़की सेमिनार रूम में उस वक्त क्या कर रही थी।
अपराधी से कोई सवाल नहीं पूछे जा रहे कि वह वहां क्या करने गया था। कई लोग यह भी कह रहे हैं कि यह मामला मानव अंगों की तस्करी से जुड़ा है। इसमें बहुत से लोग शामिल हैं। महिला डाक्टर को इस बारे में पता चल गया था, वह इसकी शिकायत भी करना चाहती थी, इसलिए उसे खत्म कर दिया गया। सच जो भी हो, लेकिन एक स्त्री ने वहां जान गंवाई है, जहां वह काम करती थी। आखिर उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी अस्पताल प्रशासन की क्यों नहीं थी। उसके माता-पिता को तीन घंटे तक उसके शव को क्यों नहीं देखने दिया गया। अज्ञात लोगों ने बड़ी संख्या में आकर अस्पताल में तोड़-फोड़ क्यों की। बहुत से सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं। सबसे ज्यादा तकलीफ कोलकाता के सत्ताधारी दल के नेताओं द्वारा दिए गए बयानों से हो रही है।
क्या सचमुच हमारे राजनेता, जिनमें स्त्री हों या पुरुष, अपनी-अपनी सत्ता बचाने के लिए इतने अमानवीय हो गए हैं। औरतें सहज शिकार हैं और उनसे कोई सहानुभूति भी नहीं। निर्भया कांड के बाद नए रेप कानून की मांग की गई थी कि उसे इतना कठोर बनाया जाए कि अपराधियों की रूह कांपे। कानून बना, मगर ऐसा हो नहीं सका है। सोचें कि जब पढ़ी-लिखी स्त्रियों के साथ सरेआम ऐसा हो रहा है, तो उन गरीब स्त्रियों का क्या, जिनकी पहुंच न पुलिस तक होती है, न कानून तक। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों की पोस्ट पढ़कर तो लगता है कि ये भी इंसान कहलाने के लायक नहीं।
एक आम तर्क यह दिया जा रहा है कि कोलकाता पर बोलने वाले उत्तराखंड के दुष्कर्म पर क्यों नहीं बोले, मणिपुर पर क्यों चुप रहे। मान लीजिए कि कोई उस वक्त नहीं बोला, तो क्या इस वक्त उसने अपने बोलने के अधिकार को किसी के पास गिरवी रख दिया कि जब आपकी राजनीति को सूट करे तब आपसे पूछकर कोई बोले।
देश में इन दिनों या तो आप पक्ष में हो सकते हैं, या विपक्ष में। बीच की वह रेखा मिटा दी गई है जहां जब कोई दल अच्छा काम करे, तो उसकी तारीफ की जाए और बुरा करे तो निंदा।
आखिर काम-काज की जगह पर स्त्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने से क्यों बचना चाहिए। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर स्वतः संज्ञान लिया है, तो इस पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या महिला और महिला के दुष्कर्म में फर्क होता है। महिलाओं के प्रति अपराध कहीं भी हों, देश में किसी भी सत्ताधारी दल की सरकार हो, वह निंदनीय है। लेकिन उंगली अक्सर दूसरे की तरफ ही उठती है।
दफ्तरों में यौन प्रताड़ना की निगरानी करने वाली कमेटियां सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर महिला सुरक्षा के लिए ही बनाई गई थीं। क्या कोलकाता की डाक्टर के साथ हुआ अपराध इस श्रेणी में नहीं आता। दिल्ली में जब एक महिला की घर से कुछ दूर रात में हत्या कर दी गई थी, तब से यह कानून बनाया गया था कि रात में जो कैब महिला को छोड़ने जाएगी, वहां उसके साथ दफ्तर का कोई आदमी होगा, जो उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगा। यही नहीं, जब तक महिला अपने घर के अंदर नहीं चली जाएगी, तब तक कैब वहां से नहीं जाएगी। डाक्टर जो बहत्तर-बहत्तर घंटे ड्यूटी करते हैं, उन्हें सड़क पर तो छोड़िए, अपने काम-काज के स्थान पर सुरक्षा न मिले तो यह कितनी खतरनाक बात है। बहुत-सी महिला डाक्टरों के बयान इस लेखिका ने पढ़े और सुने हैं। उनमें यही चिंता झलक रही थी। लेकिन कुछ दल और उनके समर्थकों को इससे क्या। वे इन महिला डाक्टरों के बयानों से आंखें मूंदकर, ममता बनर्जी का पक्ष लेते रहे।
चुनावों से पहले जब हमारे देश के अधिकांश दल अपने-अपने घोषणापत्रों में महिला सुरक्षा के लिए बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, उनका क्या फायदा, जब किसी ऐसे अवसर पर आप अपने-अपने दल का मुंह ताकते हुए बयानबाजी करें। अपनी कुर्सी की खातिर किसी अपराध को अपराध कहने से बचें।
और वे बुद्धिजीवी जो इस लड़की की निर्मम हत्या पर आंखें मूंदे हैं क्योंकि यह उनकी राजनीति के पक्ष में नहीं जाता, आखिर उन्हें कौन-सा इलेक्शन लड़ना है। वोट की चिंता करनी है। लेकिन पिछले कुछ सालों से जिसे सच कहते हैं, उसका इतना पतन हुआ है कि कोई सच भी बोल रहा हो तो बहुत से लोग अपने-अपने हितों को देखकर उसे झूठ साबित करने पर लग जाते हैं।
महिला डाक्टर की हत्या के मामले को सीबीआई को सौंप दिया गया है। सीबीआई जांच में जो कुछ भी पाए, वह लड़की जिसके माता-पिता ने उसे डाक्टर बनाया, उसके परिश्रम ने भी उसका साथ दिया, वह तो अब वापस आने से रही। और तो और उसकी तस्वीरें जगह-जगह दिखाई दे रही हैं। उसका नाम बताया जा रहा है। जबकि कानूनन ऐसा करना अपराध की श्रेणी में आता है।
आज जब बड़ी संख्या में लड़कियां काम-काज के लिए बाहर निकल रही हैं, तब सत्ताधारियों द्वारा उनकी हस्ती को मिटा देने के ऐसे षड्यंत्र क्यों सफल हों। कायदे से तो महिलाओं को अपनी सुरक्षा की आवाज के तहत उन दलों से सवाल पूछने चाहिए। पितृसत्ता-पितृसत्ता चिल्लाइए और जब मौका मिले उसकी आड़ में या अपने-अपने दलों की आड़ में छिप जाइए, यह कितना शर्मनाक है।

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लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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