प्रतिभावान सृजक के असमय जाने की टीस
राजेन्द्र गौतम
फिलहाल मैं मुंबई में मुकय्यद हूं और मेरी वह छोटी-सी नीले कवर वाली डायरी अन्य किताबों-कापियों के साथ दिल्ली में है, जिसमें जुलाई, 1995 में वसु मालवीय ने अपना मार्मिक गीत ‘6 दिसंबर’ अपने हाथ से मेरी डायरी में लिख दिया था। तब इस त्रासदी का दूर-दूर तक अंदेशा नहीं था कि 2 वर्ष बाद ही प्रतिभा का धनी यह युवा कवि-कथाकार सब को बिलखता हुआ छोड़ चला जाएगा। दस दिन आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के यहां बिता कर सीधे दिल्ली आने की अपेक्षा मैं एक दिन मालवीय परिवार में इलाहाबाद और अगले दिन शंभुनाथ जी के घर बनारस रुका था।
यह संयोग ही था कि इन परिवारों के जिन अभिभावकों से मेरा परिचय पहले हुआ था, वे दोनों जा चुके थे। यश, वसु और अंशु तीनों भाइयों की अद्भुत रचनाशीलता हिंदी जगत को समृद्ध कर रही थी। अब तो इनके बच्चे भी लेखन और फिल्म निर्माण में क्रियाशील हैं। पिता उमाकांत मालवीय की धरोहर को संतति समृद्ध कर रही है। उमाकांत जी से मेरे संबंधों के नाते आरम्भिक मुलाकातों में तो यश, वसु, और अंशु तीनों ही मुझे चाचा जी पुकारते थे लेकिन यश तो मुझ से बहुत ज्यादा छोटे नहीं थे सो मुझे अटपटा लगता था और हम क्रमश: मित्रवत हो गए।
1996 की दिल्ली की जून की एक ढलती गर्म दोपहर थी। पसीने से तर-ब-तर वसु मेरे पालम वाले पुराने घर में पधारे थे। बिजली गायब थी। हम लोग आंगन में चारपाई पर बैठे, खजूर का पंखा झलते हुए पसीना सूखाते रहे। वसु अपना सद्य प्रकाशित कहानी संकलन ‘सूखी नहीं है नदी’ भी भेंट करने के लिए लाये थे। उसी उमस के दौरान वसु से ‘छह दिसंबर’ वाले गीत को एक बार फिर सुनने का आग्रह किया। पहली बार वसु से यह गीत मैंने उनके ही निवास पर सुना था। वसु विभागीय प्रशिक्षण के लिए सप्ताहभर के लिए आरकेपुरम आये थे। उसी दौरान थोड़ा समय निकाल कर वे मिलने आये थे। बहुत देर तक बातें होती रहीं। तब दूर-दूर तक आभास नहीं था कि प्रिय वसु से यह आखिरी मुलाकात है। 16 मई, 1997 का वह मनहूस दिन! समाचार पत्रों से और यश से वसु के दुर्घटनाग्रस्त होने का दुस्संवाद लगभग साथ-साथ मिला था। मन अवसाद से सन्न रह गया था। कमलेश्वर ने वसु के भीतर छिपे कथाकार की प्रतिभा को पहचान लिया था। तभी वे अपने नए धारावाहिक की पटकथा लिखवाने के लिए उन्हें मुंबई ले गए थे। यह नियति का खेल ही था कि मुंबई में जब वे पत्नी और बच्चे के साथ औटोरिक्शा से जा रहे थे तो ट्रक ने टक्कर मार दी। चोट तो पत्नी और बच्चे को भी आई लेकिन वसु ने वहीं दम तोड़ दिया! असमय इस प्रतिभावान सर्जक का हमारे बीच से चले जाना बहुत कष्टकर है। उनके गीत को स्मरण करना ही उनको श्रद्धांजलि देना है :-
बहुत दिन से नहीं आये घर
कहो अनवर, क्या हुआ
आ गया क्या बीच अपने भी
छह दिसंबर, क्या हुआ
मैं कहां हिन्दू मुसलमां तू कहां था
सच मुहब्बत के सिवा
क्या दरमियां था
जब बनी है खीर घर में
पूछती है मां/ बराबर क्या हुआ
आसमां बैठा खुदा/ तेरा कहां था
पत्थरों का देवता/ मेरा कहां था
जिस समय हम खेलते थे/
साथ छत पर
क्यों बिरादर/ क्या हुआ
वो सिंवैयां/ प्यार से लाना/ टिफिन में
दस मुलाकातें/ हमारी एक दिन में
और अब चुप्पी तुम्हारी
तोड़ती जाती निरंतर/ क्या हुआ
तुम्हें मस्जिद से/
हमें क्या देवस्थानों से
हमें बेहद मोह था/ अपने मकानों से
फोड़कर दीवार/ अब उगने लगा है
कुछ परस्पर/ क्या हुआ
टूटने को बहुत कुछ टूटा/
बचा क्या छा गई है देश के ऊपर/
अयोध्या धर्मग्रंथों से निकलकर
हो गए तलवार अक्षर/ क्या हुआ
बहुत दिन से नहीं आए घर/
कहो अनवर, क्या हुआ।
तसल्ली बस यह देखकर होती है कि मालवीय परिवार में रचनाशीलता की नदी आज भी उतने ही वेग से बह रही है। वसु, तुम्हें याद करते हुए कह सकते हैं कि सुखी नहीं है नदी!