एक पाती में पंछी की टीस
केवल तिवारी
‘मैंने बहुत कुछ बदलते देखा है। लोग बदल गए, उनकी सोच बदल गयी... घरों में आंगन नहीं बचे, आंगन में पेड़ नहीं बचे।’ ‘वादा करती हूं रोज सुबह प्रभात फेरी करूंगी। खेत खलिहानों को नन्हे कीटों से बचाऊंगी।’ ‘मैं गूगल चिड़िया बनकर नहीं रहना चाहती।’ ‘वो भी क्या दिन थे जब मैं तुम्हारे घर के अंदर अपना घर बनाया करती थी।’ ‘देखो पक्षियों के ख्वाब सुनहरे...।’ ‘हम मूक पक्षी हैं, प्रकृति भी मूक है... मां पर क्रूरता/अत्याचार मत करो। प्रकृति हम सबकी मां है।’ ‘तुम्हारे धर्मपुराणों के अनुसार हम साहस और सावधानी के प्रतीक हैं क्योंकि हम जीवन की परेशानियों में साहस दिखाना सिखाते हैं।’ ‘ग्लोबल वार्मिंग व बढ़ते आधुनिकीकरण के कारण विकिरण जो विशेषकर मोबाइल टावर से हो रहा है, से मेरी प्रजनन क्षमता क्षीण होती जा रही है।’ ‘जब मैं कुंडी के पानी में अठखेलियां करती तो फिर मां तुमको नहाने के लिए तैयार कर पाती थी।’
उपरोक्त पंक्तियां उन चिट्ठियों की हैं, जो छोटी सी गौरैया ने मनुष्य के नाम लिखी हैं। जी हां पंछियों के खत। इनके संकलन के रूप में आई किताब का नाम है, ‘गौरैया की पुकार।’ किताब के संपादक मंडल में डॉ. सूरज सिंह नेगी, डॉ. मीना सिरोला एवं चंद्रमोहन उपाध्याय हैं। पत्र लेखन विधि से तैयार यह पुस्तक गौरैया के विलुप्त होने पर तो चिंता-चिंतन की प्रेरणा देती ही है, साथ ही लगभग खत्म हो रही पत्र लेखन विधा को ‘जीवित’ करने की कोशिश करती है।
कुछ वर्ष पूर्व ऐसी ही एक किताब पढ़ी थी जिसमें किशोरावस्था की दहलीज पार करने वाले बच्चों के नाम उनके अभिभावकों के खतों का संकलन था। अब ऐसे ही अनूठे प्रयोग पर एक और किताब आई। गौरैया को विषय बनाकर पत्र लेखन प्रतियोगिता में शामिल 62 पत्रों को छांटकर पुस्तक रूप देना प्रशंसनीय कार्य है। भावनाओं से ओतप्रोत इन चिट्ठियों को पढ़ते रहने का मन करता है। अंत में पत्र लेखकों का परिचय भी दिया गया है।
पुस्तक : गौरैया की पुकार संपादक : डॉ. सूरज सिंह नेगी, डॉ. मीना सिरोला, चंद्रमोहन उपाध्याय प्रकाशक : दीपक पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स, जयपुर पृष्ठ : 192 मूल्य : रु. 599.