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समधिनें

06:54 AM Aug 11, 2024 IST
समधिनें
चित्रांकन : संदीप जोशी
डॉ. रंजना जायसवाल

बिट्ठल दास शहर के प्रतिष्ठित व्यवसायी थे। पत्नी और बेटे की सड़क दुर्घटना में मृत्यु के बाद दुनिया से उनका मन उठ गया था। लम्बी-चौड़ी जायदाद उन्हें बेमानी लगने लगी थी, किसके लिए कमाते और क्यों… जब उसका आनन्द लेने वाले ही जीवित नहीं रह गये थे। धीरे-धीरे उन्होंने कारोबार काे समेटना भी शुरू कर दिया था पर मन को व्यस्त रखना इतना आसान नहीं था। उन्होंने शहर के किनारे एक बड़ी-सी जमीन पर एक अनाथ आश्रम बना दिया और उसी के ठीक बगल में ही वृद्ध आश्रम भी…। बच्चों को मां-बाप मिल गये थे और मां-बाप को बच्चे।
बच्चे तो फिर भी बच्चे थे... अभाग्यवश अपने मां-बाप से बिछड़ गए या किसी बिन-ब्याही मां दुनिया के डर से अपनी ममता का गला घोंट पटरी के किनारे, झाड़-झंखाड़ों या कूड़ेदान के डिब्बों में डाल जाती। सच पूछिए तो जब ये बच्चे अपने परिवार के लिए कूड़े से ज्यादा कुछ नहीं थे तो समाज के लिए क्या होते। खैर, अनाथ आश्रम अपनी विशाल बाहें फैलाये उन अभागों को अपने आंचल में समेट ही लेता। दादा-दादी और नाना-नानी की उम्र के वृद्धों को एक बार फिर मां-बाप बनने का बहाना मिल गया था। सच पूछो तो उन्हें मानो जीने का बहाना मिल गया। उन अभागे बच्चों का अपना कहने के लिए कोई नहीं था और उन वृद्धों के पास अपनों के होने के बाद भी कोई नहीं था।
दीपा गोयनका... उम्र तकरीबन पैंसठ साल, गोरा बदन और सिर पर खिचड़ी बाल थे। देखने-सुनने में अच्छे परिवार की लगती थी। भगवान जाने ऐसी क्या मजबूरी थी जो परिवार को छोड़कर वो यहां रहती थी। सुना था छह महीने पहले ही आश्रम आई थी। इस उम्र में भी काफी कर्मठ और क्रियाशील थी। अनाथ आश्रम के बच्चे इन छह महीनों में उनसे काफी घुलमिल गए थे। किसी से कहते सुना था उन्हें ‘अल्जाइमर’ मतलब भूलने की बीमारी थी। उनके बच्चे ही उन्हें वहां छोड़कर गये थे। बहू-बेटे दोनों नौकरी करते थे, जब तक बच्चे छोटे थे वो दोनों दीपा जी के भरोसे छोड़कर नौकरी पर चले जाते थे पर वक्त बदला और वक्त के साथ सोच भी बदली... मां वक्त के साथ बूढ़ी और भारी होने लगी।
बेटे-बहू ने बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए उन्हें शहर से दूर एक नामी बोर्डिंग स्कूल में दाख़िला दिलवा दिया और दीपा जी उस दोमंजिले घर में अकेली रह गई। दिनभर बेटे और बहू की राह तकते-तकते उनकी आंखें पथरा जाती पर... बच्चे अपनी ही दुनिया में मस्त थे। दीपा जी की बहू एक बहुत बड़ी समाज-सेविका की बेटी थी, समधिन का आना-जाना लगा ही रहता था। दीपा जी को खाना बनाने का बहुत शौक था। समधिन के आगमन की सूचना मिलते ही वो चौके में जुट जाती थी पर अपने बेटे-बहू के साथ समय बिताने का उन्हें मौका ही नहीं मिलता। एक शनिवार और इतवार की ही छुट्टी मिलती, उसमें भी बहूरानी मौका देखते ही पर्स उठाये मायके चल देती और साथ-साथ बेटे को भी लेकर चल देती। एक दिन मिलता अपनों के लिए कुछ करने का पर... दीपा जी ने कई बार दबे स्वर में इस विषय पर बेटे-बहू से बात करने की कोशिश भी की पर बहू से पहले बेटा ही ऊंची आवाज में बोल देता,
‘क्या मां! तुम भी न किस जमाने की बात लेकर बैठी हो, हफ्ते में एक ही दिन तो मिलता है। पांच दिन तो तुम्हारे साथ ही रहते हैं, बचे दो दिन उस पर से अब तुम्हारे साथ भी दिन बिताने की सोचने लगे तो हमारे जीवन का क्या... दीक्षा वैसे भी मायके नहीं जा पाती उस पर से आपकी रोक-टोक।’
दीपा जी आश्चर्य से बेटे का मुंह देखती रह गई, वो तो बस इतना ही तो चाहती थी। रोज की उठा-पटक से बच्चे थक जाते होंगे। बाजार का वही पिज्ज़ा-बर्गर, भला पेट कैसे भरता होगा। मां का दिल बेटे-बहू के लिए किलस्ता रहता पर... दीपा जी ने अब तो कहना भी छोड़ दिया था पर मां का दिल मानता भी तो कैसे, आज भी वो हर शनिवार को सारी चीज़ें बनातीं पर अब वो दीक्षा के मायके जाने से पहले ही टिफिन में सारा सामान पैक करके रख देती।
‘दीक्षा! बेटा तेरी मम्मी को मेरे हाथ के मोतीचूर के लड्डू बहुत पसंद हैं, वो भी रख दिये हैं खिला देना।’
दीपा जी उस दो मंज़िले घर में सिमट कर रह गई थी, एक मां अपने बच्चों के लिए आसमान बुनती थी, जिसमें वो स्वच्छंद होकर उड़ सकें। एक मां अपने बच्चों के लिए अमरबेल बनती है जिसके सहारे वो सफलता की ऊंचाई पर चढ़ सकें पर वो कभी भी ये नहीं चाहती कि बच्चे अपनी उन्नति के साथ अपने संघर्ष के साथियों को भूल जायें, पर चाहने और होने में बहुत फर्क होता है। दीपा जी का अकेलापन उन्हें खाये जा रहा था... वो अक्सर चीज़ों को रखकर भूल जाती थी। कई बार इस वजह से घर में झक-झक भी हो चुकी थी। बच्चे भी आश्चर्य में थे जिस मां को हर बात उंगलियों पर याद रहती थी वो अब हर चीज़ रखकर भूलने लगी थी। कभी दवा, कभी चाभी तो कभी पैसा... दीक्षा कभी-कभी खीझ भी जाती।
‘मैं नौकरी करूं या घर देखूं…, ये तो मेरा घर लुटवा देंगी। पता चला दरवाजा खुला छोड़कर सो गई, चोर घर साफ कर ले जायेंगे।’
मां एक समस्या बनती जा रही थी। दीक्षा की मां से अपनी बेटी का दर्द देखा नहीं जा रहा था। आखिर मां की इस बीमारी का इलाज ढूंढ़ ही लिया गया।
आज आश्रम का वार्षिकोत्सव था। सुबह से ही बहुत चहल-पहल थी। रंग-बिरंगे कपड़ों में बच्चे बहुत सुंदर लग रहे थे। बच्चे अपनी नन्ही-नन्ही उंगलियों से पकड़कर सारे सदस्यों को कुर्सियों पर बैठा रहे थे। सुना था इस अवसर पर शहर की जानी-मानी समाज सेविका निर्मला देवी मुख्य अतिथि के रूप में आ रही थी। तभी गाड़ियों के कोलाहल से आश्रम में एक हलचल छा गई। शायद मुख्य अतिथि आ गई थी। बिट्ठल दास जी बड़े उत्साह से सबसे उनका परिचय करा रहे थे।
‘बड़ा अच्छा इंतज़ाम किया है बिट्ठल दास जी... ये बच्चे और बुजुर्ग आपको बहुत दुआएं देंगे। आपने बच्चों को परिवार और बुजुर्गों को बच्चे दे दिए हैं। बड़ा नेक काम किया है आपने...’
निर्मला देवी की आंखों में एक संतोष का भाव था। सबका अभिवादन स्वीकार करते-करते निर्मला देवी जी की आंखें एक चेहरे पर आकर ठिठक गई, ये तो दीक्षा की सास थी। निर्मला जी की सांसें अटक-सी गई। दीक्षा ने बताया तो था कि उसकी सास को उसने ‘अल्जाइमर’ के कारण किसी वृद्धाश्रम में भर्ती कर दिया है पर इसी आश्रम में... कहीं उन्होंने पहचान तो नहीं लिया। निर्मला देवी की सांसें बेक़ाबू हो रही थीं। दीपा जी हाथों में पुष्पगुच्छ लिए उनका अभिवादन कर रही थी पर निर्मला देवी एक अजीब-सी ऊहापोह में डूब-उतरा रही थी। कहीं... कहीं दीपा जी ने पहचान तो नहीं लिया था! आखिर उन्होंने ही तो दीक्षा को उन्हें वृद्धाश्रम में भर्ती करने की सलाह दी थी पर दीपा जी निर्विकार भाव से कार्यक्रम में बैठी रही और तालियां बजाकर बच्चों का उत्साहवर्धन करती रही। निर्मला देवी धीरे-धीरे शांत होती चली गई। दीक्षा सही ही कहती थी इन्हें कुछ याद नहीं रहता। बिट्ठल दास जी ने भी कुछ ऐसा ही तो बताया था।
निर्मला देवी ने राहत की सांस ली। शायद अपनी दी हुई सलाह के बोझ तले उनसे सांस लेना भी कहीं न कहीं मुश्किल हो गया था पर दीपा जी की अपरिचित-सी वो निगाहें उनके दिल पर मरहम का काम कर रही थी। कार्यक्रम समाप्ति की ओर था। बिट्ठल दास जी तेज़ी से उठे और उन्होंने दीपा जी के कानों में कुछ फुसफुसाया। दीपा जी चाय-नाश्ते के इंतजाम देखने के लिए बिट्ठल दास जी के कमरे की ओर चल पड़ी। कमरे की तरफ बढ़ते हुए शोर को सुनकर सब चौकन्ने हो गए। निर्मला देवी ने अपने लाव-लश्कर को बाहर रुकने का इशारा किया और तेज़ी से कदम बढ़ाते हुए कमरे में प्रवेश कर गई।
‘आइए-आइए निर्मला जी! ...उम्मीद करता हूं बच्चों की प्रस्तुति आपको पसन्द आयी होगी।’
बिट्ठल दास जी कुर्सी खींचते हुए निर्मला देवी को बैठने का आग्रह करते हुए कहा, दीपा जी मेज के पीछे चुपचाप खड़ी थी। निर्मला देवी एक पल उन्हें देख सकपका-सी गई, वो दो जोड़ी आंखें अभी भी उनका पीछा कर रही थी। कॉटन की कल्फ़ लगी साड़ी की प्लेटों को बड़ी ही सुघड़ता के साथ एक के ऊपर एक जमाया गया था। बालों को ढीला-सा जूड़ा कंधे पर झूल रहा था। माथे पर छोटी-सी महरून बिंदी... बस इतना ही तो था हमेशा की तरह पर पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा तरोताजा जिंदगी से भरपूर… निर्मला देवी ने अपने मन को समझाते हुए कहा, ‘खुश तो दिख रही है... हो भी क्यों न शहर के इतने लक्जरी आश्रम में रह भी तो रही है, वो तो फ़ालतू में आत्मग्लानि से आकंठ तक डूब रही है। घर पहुंचकर दीक्षा और दामाद जी को भी समझाऊंगी।’… जबकि वो ये बात अच्छी तरह जानती थी, आश्रम छोड़ने के बाद दीक्षा कभी पलट कर अपनी सास को देखने तक नहीं आई थी... हां, बेटा महीने-दो महीने में फल-मिठाई लेकर पहुंच जाता था। पर दीपा जी तो अपनी औलाद को भी पहचान नहीं पाती। कितना दुखी होकर लौटता था वो... निर्मला देवी ने खुद कितनी बार समझाया था ‘क्या फायदा ऐसी जगह जाने का, मन ही तो दुखता है… जिसके लिए जाते हो वो तो तुम्हें पहचान भी नहीं पाता। आगे से मैं किसी नौकर-चाकर से सामान भेज दूंगी।’ जन्म के समय गर्भनाल से काटे जाने पर एक बार मां-बेटे का रिश्ता कट जाता है, पर प्रेम का धागा…?
‘इनसे मिलिए! आज के इस सारे कार्यक्रम की सफलता के पीछे इनका पूरा-पूरा हाथ है। बच्चों के कार्यक्रम, साज-सजावट, यहां तक कि नाश्ता भी इन्होंने बनाया है। इनके हाथों में बहुत स्वाद है, शनिवार के दिन आश्रम के सभी लोगों के लिए खाने में कुछ न कुछ स्पेशल जरूर होता है। पता नहीं लोग ये कैसे कहते हैं कि दीपा जी को कुछ याद नहीं रहता है…। इनके खाने में न एक स्वाद कम न एक ज्यादा। जब से दीपा जी आई इनके हाथों के स्वाद के लालच में मैं भी शनिवार को यहीं खाना खाने लगा हूं।’
बिट्ठल दास जी ठठा मारकर हंस पड़े, सभी नाश्ते के स्वाद में डूब गए पर निर्मला देवी के गले से न जाने क्यों बमुश्किल दो-चार कौर ही उतरे। उन्होंने अपनी प्लेट सरका दी... और बगुले-सी झक कढ़ाईदार रुमाल से अपना मुंह पोंछने लगी।
‘आपने तो कुछ लिया ही नहीं…?’
‘मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है, अब आज्ञा दीजिए।’
निर्मला देवी ने उठने का उपक्रम किया, तभी न जाने कहां से दीपा जी हाथ में मोतीचूर के लड्डू की प्लेट लिए उपस्थित हो गई।
‘बहनजी! कम से कम ये तो खा लीजिए, आपको तो बहुत पसंद हैं।’
निर्मला देवी को लगा उन्होंने नंगी तारों को छू लिया हो पर दीपा जी निर्विकार भाव से उन्हें देखती रही। मायूसी की गहरी सिलवटें पूरे चेहरे पर पसरी थी। जीवन में बहुत सारे रंग होते हैं पर अकेलेपन का कोई रंग नहीं होता। भाव एक नदी की तरह है हम एक ही भाव को दुबारा नहीं छू सकते, क्योंकि जो भाव बह चुके हैं वह फिर कभी नहीं आ सकते। कहते हैं स्नेह का धागा और संवाद की सुई उघड़ते कमजोर पड़ते रिश्तों की तुरपाई कर देते हैं पर अगर उन धागों पर उपेक्षाओं का तेज़ाब डाल दिया जाये तो रिश्तों को अंतिम सांस लेने से कोई नहीं रोक सकता। निर्मला देवी शर्म से गड़ी जा रही थी, वहीं दरवाजे पर लाल-लाल अक्षर मुस्कुरा रहे थे…। ‘नीचे गिरे सूखे पत्तों पर जरा अदब से चलना... कभी कड़ी धूप में तुमने इनसे ही पनाह मांगी थी।’

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