पहाड़ पर भारी न पड़ जाए विकास का मॉडल
पंकज चतुर्वेदी
उत्तराखंड में यमुनोत्री तक निर्माणाधीन सड़क की सिलक्यारा सुरंग में फंसे लोगों के बाहर निकलने के दिन बढ़ते जा रहे हैं। पहाड़ के साथ की गई छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि जिस अमेरिकी मशीन ‘औगर’ को पराक्रमी कहा जा रहा था, लक्ष्य से 12 किलोमीटर दूर इस तरह टूटी कि उसे टुकड़े-टुकड़े कर निकालना पड़ रहा है। लोगों को सुरक्षित निकालने के लिए जहां भी पहाड़ को छेदा जाता है, वहां मिल रही असफलता बताती है कि इंसान के विज्ञान-तकनीक ज्ञान की तुलना में दुनिया का सबसे युवा पहाड़ हिमालय बहुत विशाल है।
पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं। यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य हैं तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी पहाड़ों से जंगल उजाड़ दिए जाने से ही हुआ है। पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने-कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ निशाना बने।
यदि नीति आयोग के विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा तीन साल पहले तैयार जल संरक्षण पर रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसदी जल धाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्रा कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणाम धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब हकीकत बनती नजर आ रही हैं। ऐसे दावों के दूसरे पहलू भी सामने आने लगे कि जल्द ही हिमालय के हिमनद पिघल जाएंगे, जिससे नदियों में पानी बढ़ेगा। एक तरफ कई नगर-गांव जलमग्न हो जाएंगे, वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट होने से सूखा, बाढ़ व गर्मी पड़ेगी।
तीन साल पहले 31 विकास परियोजनाओं के लिए 185 एकड़ घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति देने का काम जरूर होता रहा। सात अप्रैल, 2020 को राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड की स्थाई समिति की बैठक में सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति दी गई। समिति ने पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील 2933 एकड़ के भू-उपयोग परिवर्तन के साथ-साथ 10 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र की जमीन को भी कथित विकास के लिए सौंपने पर सहमति दी। इस श्रेणी में प्रमुख प्रस्ताव उत्तराखंड के देहरादून और टिहरी गढ़वाल जिलों में लखवार बहुउद्देशीय परियोजना (300 मेगावाट) का निर्माण और चालू है। परियोजना बिनोग वन्यजीव अभयारण्य की सीमा से 3.10 किमी दूर स्थित है और अभयारण्य के डिफ़ॉल्ट ईएसजेड में गुजरती है। परियोजना के लिए 768.155 हेक्टेयर वन भूमि और 105.422 हेक्टेयर निजी भूमि की आवश्यकता होगी। परियोजनाओं को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी को पिछले साल नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने निलंबित कर दिया था। इसके बावजूद परियोजना पर राष्ट्रीय बोर्ड द्वारा विचार किया जा रहा हे।
हिमालय के पर्यावरणीय छेड़छाड़ से उपजी सन् 2013 की केदारनाथ त्रासदी को भुलाकर उसकी हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं उत्तराखंड राज्य के भविष्य के लिए खतरा बनी हुई हैं। गत नवंबर, 2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा। यही नहीं, वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम न हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों। जाहिर है कि जंगल की परिभाषा में बदलाव का असल उद्देश्य ऐसे कई इलाकों को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कि कथित विकास के राह में रोड़े बने हुए हैं। उत्तराखंड में बन रही पक्की सड़कों के लिए 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए। यही नहीं, सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी से भी गुजर रहा है। उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाईपास सड़कें बनाने का काम चल रहा है। ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलमार्ग परियोजना भी स्वीकृत हो चुकी है। जिससे जंगल-वन्य जीव प्रभावित होंगे।
सनद रहे हिमालय पहाड़ न केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं। यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं, जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है। वहीं अंधाधुंध विकास भूकंप की चुनौती भी बढ़ाता है। हमें देश के ‘जल-प्राण’ हिमालय के अध्ययन व नियमित आकलन की जरूरत है।