हर चेहरे पर आत्मीय अहसासों का नूर
शमीम शर्मा
सारा खेल झंडे और डंडे का है। असंख्य दीवाने हैं जिन्होंने झंडे की खातिर डंडे खाये, लाठियां खाईं, पीठ छलनी हुई, फांसी के फंदे चूमे। कुल सार है कि डंडे खाये बिना आजादी के झंडे नहीं फहराये जा सकते। कभी देश के झंडे की आन की खातिर तो कभी इसके मान की खातिर डंडे खाने ही पड़ते हैं। तब जाकर झंडे शान से लहराते हैं। यही सच है कि किसी भी मुल्क का झंडा सूती-रेशमी कपड़े का टुकड़ा मात्र नहीं होता। ध्वज के एक-एक धागे में सैकड़ों-सैकड़ों जान की बाजियां लिपटी होती हैं। जब हम यह कहते हैं कि झंडा पांवों तले नहीं आना चाहिए तो इसका यही अभिप्राय है कि झंडे में प्रयुक्त वस्त्र बहुत ही पाक-पवित्र है क्योंकि यह हमारे पूर्वजों के बलिदान का प्रतीक है और उनके संघर्ष का प्रमाण है।
तिरंगा ओढ़कर जब कोई खिलाड़ी अपनी विजय का परचम ओलंपिक या कॉमनवेल्थ खेलों में लहराता है तो पूरे देश के चेहरे पर तिरंगे का नूर देखा जा सकता है। सरहदों की रक्षा करते हुये जब कभी किसी शहीद का शरीर तिरंगे में लिपट कर अपने गांव-घर आता है तो एक-एक आंख को नम कर जाता है। मीलों चलकर माउंट एवरेस्ट की चोटी पर तिरंगा फहराना आज भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
आजादी के अमृत महोत्सव पर्व पर झंडों की बिक्री आसमान तक जा पहुंची है। छोटे-बड़े आकारों के झंडों से बाजार अटे पड़े हैं जैसे दीवाली पर मिठाई और होली पर रंगों से बाजार सज जाते हैं। चुनावों में पार्टियों के झंडे तो घर पर लगे देखे थे पर यह पहला मौका है जब घर-घर तिरंगा फहराने का जज्बा देखने को मिल रहा है।
घर-घर तिरंगा की मुहिम की बातें सुनकर एक आदमी नेताजी के पास जाकर बोला- जी डंडा और झंडा तो मेरे पास है पर घर नहीं है। एक घर दीजिये ताकि तिरंगा फहरा सकूं। मंत्री ने उस आदमी की ओर गौर से देखा और कटाक्ष में सवाल दागा- घर तो बहुत लोगों के पास नहीं हैं, मैं कितनों को घर दूंगा। वह अदना सा आदमी नेता जी की धुलाई सी करने के सुर में बोला- फिर आप तिरंगा-तिरंगा कहो, घर-घर शब्द भूल जाओ।
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एक बर की बात है सुरजा बोल्या- रै न्यूं बता तेरे इस तिरंगे मैं सन्तरी रंग तो हिंदुआं का है, सफेद इसाइयां का अर हरा मुसलमान्नां का है। फेर तेरा इस मैं के है? नत्थू सैड़ दे सी बोल्या- क्यूं डंडा के तेरे बाब्बू का है?