आत्मिक एवं भौतिक अंधकार को दूर भगाती है दीयों की रोशनी
प्राचीन काल में नाव की आकृति वाले दीपकों का उल्लेख मिलता है, जो यूनानी शैली से प्रभावित थे। सिंधु घाटी सभ्यता में मिट्टी से तरह-तरह के आकार के दीपक बनाए जाने के प्रमाण भी मिले हैं। मिट्टी के दीपकों के बाद पत्थर और सीपियों से भी दीपक बनाए गए लेकिन कुछ समय बाद इनके मुकाबले मिट्टी के ही दीपक पुनः लोकप्रिय होने लगे। शुरूआत में दीपक हाथ से बनाए जाते थे और उनमें बाती रखने के लिए हाथ से दबाकर स्थान बनाया जाता था। हाथ से बनाए जाने वाले ये दीपक बड़े बेढ़ंगे होते थे। समय बीतने के साथ जहां दीपकों के स्वरूप में काफी बदलाव आया।
योगेश कुमार गोयल
दीपक यानी दीया प्राचीन काल से ही बहुत पवित्र माना जाता रहा है। दीपक को महज ज्योति का नहीं बल्कि ईश्वर का प्रतीक माना गया है। माटी के इस छोटे से दीये को न सिर्फ दुनिया से बल्कि अपने मन से भी अंधकार को दूर भगाने का प्रतीक माना गया है। माना गया है कि सहस्त्रों दीपकों का प्रकाश आत्मिक एवं भौतिक अंधकार को दूर भगाता है। दीपक को पूजा, उपासना के साथ-साथ ज्योति रूपी ज्ञान का प्रतीक माना गया है। शायद इसीलिए प्राचीन काल से ही शुभ कार्यों की शुरुआत दीपक जलाकर की जाती रही है। हिन्दू धर्म में मिट्टी को तो बहुत शुभ माना गया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मिट्टी को मंगल ग्रह तथा तेल को शनि ग्रह का प्रतीक माना गया है। इसीलिए मान्यता है कि दीवाली के शुभ अवसर पर मिट्टी के दीये जलाने से मंगल और शनि प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। मिट्टी के दीये की रोशनी को सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। माना जाता रहा है कि मिट्टी के दीये प्रज्वलित करने से मानसिक और शारीरिक तनाव दूर होने के साथ सकारात्मक ऊर्जा का भी संचार होता है।
विभिन्न धार्मिक एवं खुशी के अवसरों पर दीये जलाने की संस्कृति भारत में सदियों से विद्यमान है। रामायण और महाभारत के विभिन्न प्रसंगों में भी दीप जलाने का उल्लेख मिलता है, जिससे पता चलता है कि दीप जलाने की प्रथा बहुत पुराने समय से चली आ रही है। हालांकि इस बात की कोई स्पष्ट एवं सटीक जानकारी कहीं नहीं मिलती कि दीयों की खोज कैसे और कब हुई थी। माना जाता है कि आदिकाल में जब मानव ने आग जलाना सीखा था तो उसके इस आविष्कार ने उसके समूचे जीवन की कायापलट करके रख दी थी और अपने इस आविष्कार से अभिभूत होकर तब उसने आग के समक्ष नतमस्तक होकर हाथ जोड़ लिए थे और आगे चलकर अग्नि के समक्ष मानव द्वारा जोड़े गए दोनों हाथों की आकृति से ही दीपक का जन्म हुआ। ऐसी मान्यता है कि शुरूआत में मनुष्य ने मिट्टी का दीपक बनाकर उसमें जानवरों की चर्बी पिघलाकर तेल के रूप में इस्तेमाल किया और पेड़ों की पतली छाल का बाती के रूप में इस्तेमाल कर दीपक जलाया। तब से लेकर आज तक दीपक के स्वरूप में बहुत परिवर्तन आया है।
प्राचीन काल में नाव की आकृति वाले दीपकों का उल्लेख मिलता है, जो यूनानी शैली से प्रभावित थे। सिंधु घाटी सभ्यता में मिट्टी से तरह-तरह के आकार के दीपक बनाए जाने के प्रमाण भी मिले हैं। मिट्टी के दीपकों के बाद पत्थर और सीपियों से भी दीपक बनाए गए लेकिन कुछ समय बाद इनके मुकाबले मिट्टी के ही दीपक पुनः लोकप्रिय होने लगे। शुरूआत में दीपक हाथ से बनाए जाते थे और उनमें बाती रखने के लिए हाथ से दबाकर स्थान बनाया जाता था। हाथ से बनाए जाने वाले ये दीपक बड़े बेढ़ंगे होते थे। समय बीतने के साथ जहां दीपकों के स्वरूप में काफी बदलाव आया, वहीं इनमें जानवरों की चर्बी और पेड़ों की छाल का उपयोग करने के बजाय सरसों, अरंडी, जैतून अथवा शीशम का तेल तथा रूई की बाती डालकर जलाने का प्रचलन शुरू हुआ जबकि पूजन के अवसरों पर दीपकों में तेल के बजाय शुद्ध घी डालकर जलाए जाने लगे। समय बीतते-बीतते कुम्हारों द्वारा चाक पर दीपक बनाए जाने शुरू हुए और उसी के बाद दीपकों का सुंदर और कलात्मक रूप निखरकर सामने आया।
ताम्रयुग व धातु प्रचलन काल में मिट्टी के दीपक तो उपयोग किए ही जाते थे, साथ ही सोने, चांदी व पीतल के आकर्षक दीपक भी बनाए जाने लगे। ऐसे ही दीपक मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में भी मिले हैं, जिससे पता चलता है कि उस दौरान भी इस तरह के दीपक प्रचलन में थे। पांचवीं सदी में प्याले के आकार के दीपक बनाए जाने लगे। तक्षशिला, पाटलीपुत्र, उज्जैन आदि कई स्थानों से खुदाई के दौरान पाषाण युग के मिट्टी के दीपक मिले हैं। इसके अलावा बिहार में खुदाई के दौरान कमल की आकृति के दीपक भी मिले हैं, जिन पर खुदे लेखों से पता चलता है कि बौद्ध भिक्षुओं ने इन्हें दान में दिया था। उसके बाद विभिन्न हिन्दू राजाओं के शासनकाल में दीपकों का और भी परिष्कृत रूप सामने आया। मंदिरों में पूजा के लिए तरह-तरह के कलात्मक दीपक बनाए जाने लगे। मुगल काल में भी कई मुगल शासकों के दीपक प्रेम का वर्णन मिलता रहा है।
मंदिरों, पूजास्थलों व महलों में जलाने के लिए छतों पर लटकाए जाने वाले दीपक भी विभिन्न आकृतियों में बनाए गए। लटकाने वाले दीपकों के अलावा ‘दीपवृक्ष’ भी बनाए गए, जो वृक्ष की भांति काफी ऊंचे आकार के होते थे और इनके चारों ओर पेड़ की अनेक शाखाओं की भांति कई शाखाएं निकली होती थी तथा प्रत्येक शाखा पर दीपक लगे होते थे। इस तरह इन दीपवृक्षों पर एक साथ सैंकड़ों दीपक जलाए जाते थे। चूंकि ये दीपवृक्ष बहुत बड़े आकार के और बहुत भारी होते थे, इसलिए इनका उपयोग मंदिरों, महलों अथवा कुछ खास जगहों पर ही होता था। दक्षिण भारत के मंदिरों में धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान आज भी इस तरह के दीपक जलाए जाते हैं। कई जगहों पर मंदिरों के मुख्य द्वार पर तथा देवी-देवताओं की मूर्तियों के दोनों ओर विशाल आकार के दीपक, जिन्हें ‘विशाल स्तंभ’ कहा जाता था, रखने का प्रचलन भी था। इस प्रकार के विशाल दीपक दक्षिण भारत के मंदिरों में आज भी स्थापित हैं।
अनेक मुगल शासकों में सम्राट अकबर, शाहजहां और औरंगजेब का कलात्मक एवं सुंदर दीपकों से लगाव चर्चित रहा है। अकबर द्वारा तो अपने शासनकाल में दीपावली मनाए जाने का भी उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि अकबर खुद अपने हाथों से दीपावली की रात महल की मुंडेरों पर दीपक जलाता था और महल की सबसे ऊंची मीनार पर कंदील लटकाई जाती थी, जिसे आकाशदीप कहा जाता था। टीपू सुल्तान तथा मैसूर के नवाब हैदरअली द्वारा भी दीपावली मनाए जाने का उल्लेख मिलता है। 18वीं शताब्दी में दीपकों के स्वरूप में काफी परिवर्तन आया और मोर, तोता, बत्तख, कोयल, नाग, बैल, घोड़ा इत्यादि विभिन्न पशु-पक्षियों की आकृतियों वाले दीपक बनाए जाने लगे। आज भले ही आधुनिकता के प्रभाव में मिट्टी के साधारण दीपकों का इस्तेमाल काफी कम हो गया है पर एक बार फिर से लुभावने रंग-रूपों में पशु-पक्षियों की कलात्मक आकृतियों वाले सुंदर दीपकों की ओर लोग आकर्षित होने लगे हैं और साधारण दीपकों के साथ-साथ ऐसे दीपकों का प्रचलन फिर से बढ़ रहा है।