सुरंग संकट के सबक पर हो अमल
उत्तरकाशी की सिलक्यारा सुरंग में चला बचाव अभियान सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। आंशिक रूप से धंसी सुरंग में 17 दिनों तक फंसे रहे तमाम श्रमिकों को भारतीय एवं विदेशी विशेषज्ञ अंततः बाहर निकाल पाए। यह दुर्घटना हिमालयी क्षेत्र में किसी बड़ी विकास योजना में पहली बार नहीं घटी है। सिलक्यारा सुरंग हादसे ने हिमालय के नाज़ुक पर्वतीय क्षेत्र में चल रही विशाल पैमाने की परियोजनाओं में नाजुक हिस्सों में प्रचालन-सुरक्षा और आपदा तैयारियों से संबंधित कई सवाल पैदा कर दिए हैं।
यह सुरंग महत्वाकांक्षी चार-धाम परियोजना का हिस्सा है ताकि धार्मिक महत्व रखने वाले तीर्थ जैसे कि बदरीनाथ और केदारनाथ तक, पूरे साल खुला रहने वाला चार लेन का सड़क सम्पर्क कायम रहे। पर्यावरण को लेकर चिंतित समूह इस परियोजना की आलोचना करते आए हैं और इस मामले में सर्वोच्च न्यायलय में जनहित याचिका भी दायर हुई थी। अनेक सरकारी समितियों ने परियोजना के विभिन्न पहलुओं पर पड़ताल की और इसको हरी झंडी दे दी, लेकिन सुरंग हादसे ने हिमालयी क्षेत्र में इस किस्म की परियोजनाओं पर तमाम शंकाओं और डर को फिर ज़िंदा कर दिया है।
परियोजना में वन क्षेत्र और पर्यावरण को न्यूनतम नुकसान के लिहाज से सुरंग बनाना एक अच्छा विकल्प सुनने में अच्छा लग सकता है, परंतु सुरंग का आकार बहुत मायने रखता है। लंबी सुरंगें बनाने में जो नुकसान होता है, क्या पहाड़ वह सहने लायक हैं? शायद, परियोजना बनाने वालों को छोटी सुरंगें बनाने पर विचार करने की जरूरत है। चाहे इस्तेमाल राजमार्ग के लिए हो या पनबिजली परियोजना हेतु हो, लम्बी सुरंगें बनाने से पहले पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव का आकलन सही ढंग से किया जाना चाहिए। कुनियोजित ढंग से सुरंगें बनाने का भूजल स्रोतों पर प्रभाव सर्वविदित है और इनसे भूस्खलन भी बनता है। चौड़ी सुरंगें बनाने में जो विस्फोट किए जाते हैं, उसका पर्यावरण पर बहुत खतरनाक असर होता है। एक अन्य अनुत्तरित प्रश्न है, निर्माण कंपनी द्वारा की गई आपदा-पूर्व तैयारी और सुरक्षा सावधानियां। क्या सिलक्यारा परियोजना बनाने में शामिल कंपनी अथवा सरकारी एंजेंसी से कोई कोताही हुई है, यह तो केवल एक विस्तृत जांच ही बता पाएगी।
लगभग दो दशकों से पर्वतीय क्षेत्र में विशाल पनबिजली परियोजना बनाने या उच्च मार्ग और पर्यटन संबंधित ढांचा विकसित करने के मुद्दे पर बहस चल रही है। मनमोहन सिंह सरकार के वक्त, पर्यावरण बचाओ समूह द्वारा चले आंदोलन के बाद कुछ बड़ी परियोजनाएं काफी लंबे तक ठंडे बस्ते में बंद रहीं और किसी नई बड़ी परियोजना को मंजूरी नहीं दी गई। लेकिन पिछले दशक के दौरान, पहाड़ों में सुरक्षा संबंधी चिंताओं और पर्यावरणीय समीक्षाओं को नज़रअंदाज करते हुए, निर्माण कार्य फिर से किया जाने लगा है। अनेक नियम-कानून जैसे कि अनिवार्य पर्यावरण प्रभाव आकलन को बुरी तरह हल्का बना दिया गया अथवा एजेंसियों और संबंधित सरकारों ने दरकिनार कर दिया।
इसी बीच, मौसम में आए बदलावों से पर्यावरणीय खतरे बढ़ने लगे, जिसके परिणामवश अतिशयी मौसमीय आपदाएं और संबंधित तबाही होने लगी हैं।
पर्वतीय क्षेत्र में बन रही परियोजनाओं में जिन अन्य मुख्य मुद्दों पर पूरी तरह ध्यान देने की जरूरत है वह है सुरक्षा और आपदा बनने से पहले की तैयारियां। सुरंग दुर्घटना के पीछे के कारण को खोजना अहम है ताकि निर्माण स्थल की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। उत्तराखंड की विगत की और सिक्किम में हाल ही में ग्लेशियर झील के फटने से बनी आपदा के आलोक में इसकी अहमियत साफ तौर पर दिखाई दी है। दुर्घटनाएं अक्सर निम्न-तकनीक और सुरक्षा प्रबंधन बरतने के अलावा प्राकृतिक आफतें जैसे कि बादल फटने, भूस्खलन इत्यादि से होती हैं। तमाम स्तरों पर प्रशिक्षण और सुरक्षा प्रबंधन पर यथेष्ट ध्यान देना जरूरी है।
योजना बनाने के स्तर पर ही अनेकानेक तकनीकी और वैज्ञानिक मुद्दों का अध्ययन करने और उन पर ध्यान देना चाहिए। यूरोप-स्थित बर्नर्ड ग्रुपे नामक कंपनी, जो कि सिलक्यारा-बरकोट सुरंग निर्माण में योजना एवं परामर्श सेवा दे रही है, उसका कहना है ‘सुरंग की खुदाई के आरंभ से ही, जिन भूवैज्ञानिक स्थितियों की कल्पना करके टेंडर दस्तावेज बनाया गया था, वास्तविकता उससे कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण निकली। इससे क्रियान्वयन चरण के आरंभ से ही भावी हालातों के परिणामों के लिए पहले से उपाय करने की जरूरत की पुष्टि होती है।’
यदि निर्माण एजेंसियों ने सुरक्षा नियम-कायदों का पालन किया होता तो अंदर फंसे मज़दूरों को काफी पहले ही बचाया जा सकता था, जैसे कि अतिरिक्त बचाव सुरंग बनाना। उत्तराखंड में पिछले सालों में अनेक आपादाएं आई हैं, उनके परिप्रेक्ष्य में और अब इस नवीनतम दुर्घटना के बाद, आगे के लिए ऐसी व्यवस्था बनाई जाए ताकि फौरी राहत अभियान चल सके। स्थिति से निपटने में सभी बचाव एजेंसियाें को अभियान में अर्जित अपने अनुभव एवं ज्ञान साझा करना चाहिए।
सिलक्यारा सुरंग कांड को महज एक दुर्घटना मानकर अलहदा रखकर देखना और हिमालयी अंचल में सब कुछ पहले की तरह करते रहना गलती होगी। यह घटना हिमालय के पर्यावरण को स्थाई नुकसान से बचाने के लिए और खतरे की घंटी है। हमें इस क्षेत्र के लिए तथाकथित विकास परियोजनाओं पर सख्त सवाल पूछने होंगे। इस इलाके में 900 किमी का एक्सप्रेस हाईवे, रेलवे लाइन परियोजना (इसमें भी कम से कम एक दर्जन सुरंगें बननी हैं), पर्यटन को अनियंत्रित बढ़ावा (इतना कि पहाड़ झेल न पाएं), विशाल स्तर की पनबिजली परियोजनाएं– इन सब पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं कि पहाड़वासियों को बिजली, रोजगार या अन्य सुविधाओं से वंचित रखा जाए, जो शहरी लोगों को नसीब हैं। यहां पर सवाल केवल यह है कि इनकी प्राप्ति पर्यावरण को नुकसान पहंुचाए बिना कैसे की जाए और वह तरीका मौसम में बदलावों से बन रही चुनौतियों के अनुरूप भी हो। सिलक्यारा जैसी त्रासदी के लिए शुतुरमुर्गी रवैया रखने से कुछ हासिल नहीं होने वाला।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के जानकार हैं।