खुशी की चाबी
डॉ. स्नेहपाल सिंह भुल्लर
एक चाबी थी खुशी की,
रख दी थी किसी दराज में।
उसकी ज़रूरत नहीं लगी,
जीवन के दरवाजे खुले थे।
परिजन, मित्र, अनजान,
सब आते थे।
खुशियां थीं, हंसी थी, ठहाके थे।
कुछ गिले-शिकवे भी थे, छोटे-छोटे।
पर दोस्त की एक मुस्कान,
कंधे पर रखा एक हाथ,
बहुत था उन्हें भुलाने को।
समय बहुत था,
गर्मी की छुट्टियों में,
सुबह नहा तैयार होकर,
जेब में कंचे लिए निकलता था।
सांझ ढले लौटता था घर,
मैला-कुचैला,
हाथ में लूटी पतंग लिए।
डांट मिलती मां से,
पिता से शिकायत की धमकी भी।
कुछ मायूस हो जाता,
फिर रात सोने से पहले, दादा से सुनता
उनकी फौज की कहानियां,
और सब मायूसी मिट जाती।
अगली सुबह फिर निकलता,
जेब में कंचे लिए, दुनिया जीतने
सिकंदर की तरह।
अब इतने सालों बाद
पीछे मुड़कर देखता हूं,
तो सपना-सा लगता है वो सब।
परिजन हैं, पर कभी-कभी लगता है
समानांतर रेखाएं हों जैसे।
साथ-साथ तो चलती हैं,
पर मिलती नहीं कभी।
पुराने दोस्त भी हैं,
अपनी-अपनी जिंदगी के
गलियारों में खोए।
सब मसरूफ हैं बहुत,
बस व्हाट्सएप पर
गुड मॉर्निंग होती रहती है।
साल में एक बार मिलते भी हैं
रियूनियन पर,
किसी पांच सितारा होटल की
पोर्च पर,
अपनी छोटी-बड़ी गाड़ियों से उतरकर।
गले भी लगते हैं, हल्के से, तहज़ीब से,
‘ग्रेट टू सी यू, बड्डी’ कहकर।
पर जाने क्यों, इसमें
‘साले, तूं कहां मर गया था’
का मज़ा नहीं।
व्यंजन भी ना-ना प्रकार के
परोसे जाते हैं—
कॉन्टिनेंटल, चाइनीज, इंडियन,
पर जाने क्यों इनमें
स्कूल में दोस्त के साथ खाई
मां की बनाई
राशन के चावल की खीर-सा स्वाद नहीं।
कई बार जिंदगी की
उलझनों से समय निकाल
ढूंढ़नी चाही है वो चाबी,
पर मिलती नहीं कमबख्त,
जाने किस दराज में रख दी...