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डिजिटल दौर में पाबंदी के फैसले का औचित्य

07:47 AM Sep 20, 2023 IST

स्कूल में मोबाइल

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पंकज चतुर्वेदी

पिछले दिनों दिल्ली में शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने यूनेस्को के सहयोग से तैयार एक कार्टून किताब के विमोचन के अवसर पर बच्चों से पूछ लिया कि वे कितना समय मोबाइल-कंप्यूटर पर देते हैं। उन्होंने बच्चों से पूछा कि उनका स्क्रीन टाइम क्या है। इस सवाल पर वहां मौजूद बच्चे दाएं-बाएं देखने लगे। हालांकि कुछ बच्चों ने संकुचाते हुए तीन से चार घंटे बताया। इस पर प्रधान ने कहा कि मानसिक स्वास्थ्य के लिए ज्यादा स्क्रीन टाइम नुकसानदायक है। इससे तीन दिन पहले ही आंध्र प्रदेश सरकार ने स्कूलों में फोन पर पाबन्दी लगा दी, सरकार ने यह कदम यूनेस्को की उस रिपोर्ट के बाद उठाया जिसमें मोबाइल के अधिक इस्तेमाल से बच्चों के मानसिक विकास पर विपरीत असर पड़ने की बात कही थी। राज्य में अब शिक्षक भी कक्षा में फोन नहीं ले जा सकते। हालांकि कोविड से पहले फ्रांस ने भी शिक्षा में सेल फोन पर पाबन्दी लगाई थी वहीं कोलंबिया, अमेरिका, इटली, सिंगापुर, बंगलादेश जैसे देशों में कक्षा में मोबाइल पर रोक है। भारत में फ़िलहाल यह अटपटा लग रहा है क्योंकि अभी डेढ़ साल पहले हमारा सारा स्कूली शिक्षा तंत्र ही सेल फोन से संचालित था। यही नहीं, नई शिक्षा नीति-2020 में मोबाइल और डिजिटल डिवाइस के सलीके से प्रयोग को प्रोत्साहित किया गया है।
वैसे भारत में सस्ता इंटरनेट और स्मार्ट फोन अपराध का बड़ा कारण बना हुआ है- खासकर किशोरों में यौन अपराध या मारपीट का। मोबाइल कैमरे से वीडियो बनाकर उसे इंटरनेट के जरिये पलभर में दुनिया तक पहुंचाने की आकांक्षा युवाओं को कई गलत रास्तों की ओर मोड़ रही है। नोएडा में स्कूल के बच्चों ने अपनी ही टीचर का भदेस वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर डाल दिया। इसी तरह का नीला जहर इंटरनेट पर स्कूली छात्राओं के बारे में मौजूद है। इसके विपरीत कई बच्चों को अनजाना रास्ता तलाशना हो, किसी गूढ़ विषय का हल, देश-दुनिया की जानकारी या फिर अपने विरुद्ध हुए अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठानी हो; इन सभी में मोबाइल ने नयी ताक़त और राह दी है, खासकर लड़कियों को मोबाइल ने बड़ा सहारा दिया है।
हालांकि भारत में मोबाइल-धारक बच्चों का आंकड़ा बहुत कम है। खासकर सरकारी स्कूल जाने वाले बच्चों में करीब आधे माता-पिता का फोन मांगकर ही काम चलाते हैं लेकिन यह भी सच है कि यदि बच्चे क्लास में फोन लेकर बैठते हैं तो वे बोर्ड-पुस्तक के बजाय मोबाइल पर ज्यादा ध्यान देते हैं। एक-दूसरे को मेसेज भेजने, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि पर सक्रिय रहते हैं। इससे उनके सीखने और याद रखने की गति प्रभावित हो रही है, स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर हो रहा है। वे खेल के मैदान के बजाय आभासी दुनिया में व्यस्त रहते हैं, जिससे उनमें मोटापा, आलस, आंखें व याददाश्त कमजोर होने, गुस्सैल या हिंसक होने जैसे प्रभाव दिखे। पहले बच्चे जिस गिनती, पहाड़े, स्पेलिंग या तथ्य को स्मृति में रखते थे, अब वे सर्च इंजन की चाहत में उसे याद नहीं रखते। वहीं सेल फोन के साथ बच्चा भीड़ के बीच भी अकेला रहता है।
कटु सत्य है कि स्कूल में फोन कई बुराइयों को जन्म दे रहा है। आज फोन में खेल,संगीत, वीडियो जैसे कई ऐसे एप उपलब्ध हैं जिसमें बच्चे का मन लगना ही है और इससे उसकी शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं। फोन इम्तिहान में नक़ल का औजार भी बन गया है। यही नहीं स्मार्ट फोन पर नीला जहर किशोर बच्चों के लिए बेहद हानिकर है। फोन पर बहुत बच्चे धमकियों व शोषण का शिकार भी होते हैं।
मोबाइल, विद्यालय और शिक्षा का एक दूसरा पहलू भी है। जिस देश में मोबाइल कनेक्शन की कुल आबादी के लगभग करीब पहुंच रही हो, जहां करीब 12 साल के बच्चे के लिए मोबाइल अनिवार्य बनता जा रहा हो, वहां बच्चों को डिजिटल साक्षरता, जिज्ञासा, सृजनशीलता, पहल और सामाजिक कौशलों की ज़रूरत है। पुस्तकों में पढ़ाते हैं कि गाय रंभाती है या शेर दहाड़ता है। कोई भी शिक्षक यह सब अब मोबाइल पर सहजता से बच्चों को दिखा कर पाठ को कम शब्दों में सहजता से समझा सकता है। मोबाइल पर सर्च इंजन का इस्तेमाल, वेबसाइट पर उपलब्ध सामग्री में यह पता लगाना कि कौन सी पुष्ट तथ्य वाली नहीं है, अपने पाठ में पढ़ाए जा रहे स्थान, ध्वनि, रंग, आकृति को तलाशना व बूझना प्राथमिक शिक्षा में शामिल होना चाहिए। किसी दृश्य को चित्र या वीडियो के रूप में सुरक्षित रखना एक कला के साथ-साथ सतर्कता का भी पाठ है। लेकिन बच्चों को मोबाइल के सटीक इस्तेमाल का कोई पाठ किताबों में है ही नहीं। भारत में शिक्षा का अधिकार व कई अन्य कानूनों के जरिये बच्चों के स्कूल में पंजीयन का आंकड़ा और साक्षरता दर में वृद्धि निश्चित ही उत्साहवर्धक है लेकिन जब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात आती है तो आंकड़ा यह है कि देश में 10 लाख शिक्षकों की कमी है। इस खाई को पाटने में डिजिटल माध्यम की भूमिका कोरोना काल में देखी जा चुकी है।
वैसे बगैर किसी दंड के आंध्र प्रदेश का कानून कितना कारगर होगा यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन डिजिटल दुनिया पर आधुनिक हो रहे विद्यालयों में इस कदम से एक बहस जरूर शुरू हो गयी है। मसलन कई राज्यों में स्कूल टीचर को स्मार्ट फोन पर सेल्फी के साथ हाजिरी लगाना अनिवार्य है, ऐसे देश में विद्यालय में बच्चे ही नहीं, शिक्षक के भी सेल फोन के इस्तेमाल की सीमाएं तय होनी चाहिए। ऐसे में मोबाइल पर कक्षा में पाबंदी और अनिवार्यता के बीच सामंजस्य जैसे मसले पर सभी पक्षकारों के बीच बहस की दरकार है।

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