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पंजाबी सिनेमा का सफर वैश्विक स्तर तक

07:28 AM Mar 29, 2025 IST
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भीमराज गर्ग
90 वर्ष पूर्व लाहौर के निरंजन टॉकीज में पंजाबी भाषा की प्रथम टॉकी ‘इश्क-ए-पंजाब’ उर्फ ‘मिर्जा साहिबां’ 29 मार्च 1935 को प्रदर्शित की गई और इसके साथ ही पंजाबी फिल्मों ने रूपहले पर्दे पर दस्तक दी थी। भारत में सिनेमा की शुरुआत 7 जुलाई 1896 को बंबई में लुमियर ब्रदर्स द्वारा छह लघु फिल्मों के प्रदर्शन से हुई। धुंडिराज गोविंद फाल्के ने भारत की पहली मूक फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) बनाई थी। पंजाब में सर्वप्रथम पन्ना लाल घोष ने एक लघु फिल्म ‘नक़ली मुद्रा’ (1920) बनाई। वर्ष 1924 में गोपाल कृष्ण मेहता ने यहां मूक फिल्म ‘डॉटर्स ऑफ टुडे’ का निर्माण आरम्भ किया । हिमांशु रॉय ने मोती सागर के साथ मिलकर ‘द लाइट ऑफ एशिया’ उर्फ ‘प्रेम संन्यास’ (1925) का निर्माण किया। फिर रोशनलाल शोरी और एआर कारदार ने यहां फिल्म निर्माण में योगदान दिया।

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मिर्जा साहिबां में लोक कलाकारों का अभिनय

बोलती फिल्मों के आरम्भ में आरएल शौरी ने पंजाब की प्रथम टॉकी ‘राधे श्याम’ (जुल्मे कंस) का निर्माण किया जो 2 सितम्बर 1932 को लाहौर में रिलीज हुई। अन्य क्षेत्रीय फिल्म निर्माताओं से प्रेरित होकर बॉम्बे की फिल्म कंपनी ‘हिंदमाता सिनेटोन’ ने पंजाबी भाषा की पहली बोलती फिल्म ‘इश्क-ए-पंजाब’ उर्फ ‘मिर्जा साहिबां’ (1935) का निर्माण किया। इसका निर्देशन जी.आर. सेठी ने किया था और पंजाब के लोक-गायकों भाई देसा, भाई छैला और मिस खुर्शीद ने भूमिकाएं निभाई थीं।

लोककथाओं पर आधारित फिल्मों का दौर

पंजाबी सिनेमा के पितामह कृष्ण देव मेहरा ने कलकत्ता में पंजाबी की दूसरी फिल्म ‘शीला’ उर्फ ‘पिंड दी कुड़ी’ (1936) बनाई। इसके पश्चात प्रेम व बलिदान उन्मुख लोककथाओं हीर सियाल, गुल बकावली, सस्सी पुन्नू, सोहनी महिवाल और दुल्ला भट्टी जैसी जुबली फिल्में प्रदर्शित हुईं। रूप के. शौरी की फिल्म ‘मंगती’ (1942) ने प्लैटिनम जुबली मनाई और यह रिकॉर्ड अटूट है। ‘शोरी-मेहरा-पंचोली’ की तिकड़ी ने पंजाबी सिनेमा के विकास की नींव रखी।

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विभाजन के दंश से उबरना

देश-विभाजन का पंजाबी फिल्म उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। स्टूडियो मालिक, निर्देशक, तकनीशियन और कलाकारों के पलायन से लाहौर में फिल्म निर्माण का माहौल बिगड़ गया। नव-निर्माण पर आधारित पंजाबी फिल्म ‘चमन’ लोकप्रिय हुई। विस्थापित फिल्म निर्माताओं ने लच्छी, छई, मदारी, पोस्ती, जुगनी जैसी रोमांटिक कॉमेडी फिल्में बनाकर पंजाबी सिनेमा के पुनरुत्थान में भूमिका निभाई। 1960 के दशक को पंजाबी सिनेमा का स्वर्ण युग माना जाता है। भाखरी बंधुओं ने फिल्म भांगड़ा (1959) से भांगड़ा गीतों का चलन शुरू किया।

धार्मिक फिल्में व कॉमेडी

चौधरी करनैल सिंह, जग्गा, सतलुज दे कंडे और सस्सी पुन्नू जैसी फिल्मों ने पंजाबी सिनेमा में नई कथाएं और शैलियां प्रस्तुत कीं। नानक नाम जहाज है (1969) ने सिख गुरुओं के जीवन और शिक्षाओं को दर्शाने वाली धार्मिक फिल्मों के लिए मंच तैयार किया। जबकि हास्य फिल्मों ने व्यंग्यात्मक चरित्रों के कारण लोकप्रियता पायी।

समानांतर सिनेमा का उदय

पहली मल्टीस्टारर पंजाबी फिल्म ‘पुत्त जट्टां दे’ ने युवाओं के दिलों पर राज किया। इस दौर में दर्शकों की बदलती प्राथमिकताओं और सामाजिक गतिशीलता को पहचान मिली। उड़ीकां, मुगलानी बेगम, चन्न परदेसी और मढ़ी दा दिवा जैसी फिल्मों ने पॉलीवुड में समानांतर सिनेमा के उदय को चिह्नित किया। 1980 के दशक में हिंसा, बदला और अश्लीलता का बोलबाला रहा। वीरेंद्र की फिल्म ‘जट्ट ते ज़मीन’ (1988) की शूटिंग के दौरान हत्या के कारण पंजाबी फिल्म निर्माण में गिरावट आई।

बदलाव की बयार

वर्ष 1999 में मनोज पुंज की ‘शहीद-ए-मोहब्बत बूटा सिंह’ और जसपाल भट्टी की ‘माहौल ठीक है’ के साथ बदलाव की बयार चली। मनमोहन सिंह ने ‘जी आयां नूं’ (2002) और ‘असां नूं मान वतनां दा (2004) जैसी सिनेमाई उत्कृष्ट कृतियों द्वारा मृतप्राय पंजाबी फिल्म उद्योग पुनर्जीवित हुआ। अनुराग सिंह द्वारा निर्देशित ‘जट्ट एंड जूलियट’ (2012) की सफलता से सीक्वल और फ्रेंचाइज़ फिल्मों का रुझान हुआ। ‘चार साहिबजादे’ (2014) कई मायनों में अग्रणी अवधारणा थी।

पंजाबी सिनेमा की वैश्विक अपील

स्पेन सहित 30 देशों में स्पेनिश उपशीर्षकों के साथ ‘कैरी ऑन जट्टा 3’ की सफल रिलीज, पंजाबी सिनेमा की वैश्विक अपील को दर्शाती है। मेल करादे रब्बा, जिन्हे मेरा दिल लुटिया, पंजाब 1984, अंबरसारिया, शड़ा जैसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा दी। चन्नो, गेलो, निधि सिंह, गुड़िया पटोले, अरब मुटियारां, अफसर और सौंकन सौंकने जैसी कई महिला-केंद्रित फिल्मों ने व्यावसायिक सफलता हासिल की।
प्रमुख प्रोडक्शन हाउसों द्वारा मनोरंजन उद्योग से जुड़ना, पुष्टि करता है कि निवेश बढ़ रहा है। कई युवा निर्देशकों ने पंजाबी सिनेमा का कद बढ़ाने में भूमिका निभाई। वहीं पंजाबी फिल्मों जैसे चौधरी करनैल सिंह, जग्गा, सतलुज दे कंडे, नानक नाम जहाज है, चन्न परदेसी, मढ़ी दा दीवा ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रशंसाएं अर्जित की हैं।
‘वारिस शाह-इश्क दा वारिस’ ऑस्कर (सामान्य श्रेणी) में नामित हुई जबकि ‘अन्हे घोड़े दा दान’, ‘चौथी कूट’ और ‘नाबर’ को अंतर्राष्ट्रीय प्रशंसा मिली है। लाहौर से शुरू हुए पंजाबी सिनेमा ने एक उल्लेखनीय यात्रा तय की है। चुनौतियों के बावजूद, पंजाबी सिनेमा अपने उत्साही फिल्म निर्माताओं, प्रतिभाशाली कलाकारों/तकनीशियनों और समर्पित दर्शकों के माध्यम से निरन्तर आगे बढ़ रहा है।
नब्बे वर्षीय जीवंत ‘पंजाबी सिनेमा’ अब केवल भारतीय पंजाब तक सीमित नहीं बल्कि ‘वैश्विक-पंजाब का सिनेमा’ बनकर उभरा है।

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