तालिबानी दहाड़ में भेड़ होने की लाचारगी
एक लघुकथा है ‘भेड़’। चरवाहा भेड़ों को हांककर बाड़े में ले जा रहा था। उसने देखा कि एक भेड़ काफिले के साथ नहीं चल रही है बल्कि एक जगह खड़ी आसमान को ताके जा रही है। चरवाहे ने उसकी पीठ पर लाठी जमाई। भेड़ थोड़ी बिलबिलाई पर हिली नहीं। फिर तो चरवाहे ने एक के बाद एक कई लाठियां उसकी पीठ पर जमा दीं। भेड़ की देह पर कई जगह खून छलछला आया पर वह अपनी जगह से टस से मस नहीं हुई। चरवाहे ने लाठी एक तरफ रखी और ज़मीन पर बैठ गया। वह गहरी चिंता में डूबा था।
उसे चिंता इस बात की नहीं थी कि उसके रेवड़ में एक भेड़ कम हो जायेगी। उसके पास हजारों भेड़ें थीं। एक के कम हो जाने से क्या फर्क पड़ता है। उसे तो चिंता इस बात की थी कि इस भेड़ की देखा-देखी बाकी भेड़ों ने भी भेड़ होने से इनकार कर दिया तो…? लघुकथा इसी सवाल पर खत्म हो जाती है। चलो भेड़ों में कोई तो है जो भेड़ तंत्र से हटकर सोच रही है पर पूरी दुनिया में एक भी देश ऐसा नहीं है जो अफगानिस्तान की हरकतों पर, खून के खेल पर, आतंकियों की पनप रही नर्सरी पर लघुकथा में वर्णित भेड़ की तरह हट कर सोचे। सब भेड़ चाल चल रहे हैं। जो खुद को खूंखार भेड़िये समझा करते थे, वे भी भेड़ों के रंग में रंग गये हैं।
दुनिया के सभी देशों के शासकों, सेनाओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, समाजवाद और मानवतावाद के पक्षधरों को एक साथ सांप सूंघ गया है। यही हालत उस सभा की थी, जिसमें द्रौपदी का चीरहरण हुआ था। सब गूंगे हो गये थे। यही हालत उस समय की थी जब लाखों कश्मीरियों का श्रीनगर से जबरन पलायन करवाया गया था। यह चुप्पी कोरोना जैसी भयंकर महामारी है। कोरोना की तरह जानलेवा तो है ही, पर तालिबानी आतंकियों के आचरण और धर्मान्धता के सामने इज्जत, सम्पदा, निज धर्म और संस्कृति भी आंधियों में पत्तों के समान उड़ रही है।
आईएएस की परीक्षा में एक सवाल पूछा गया था कि यदि किसी बेड़े में बंद दस भेड़ों में से एक छलांग लगा कर भाग जाये तो कितनी बचेंगी? सही जवाब था कि एक भी नहीं क्योंकि भेड़ की प्रवृत्ति यही है कि वे पीछे-पीछे चलती हैं। आज सारी दुनिया एक -दूसरे के पीछे चल रही है, कोई भी शेर सी दहाड़ नहीं मार रहा है।
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एक बर की बात है अक नत्थू नैं रामप्यारी तै बूझी-हां ए मेरी फिल्ाम मैं काम करेगी के? बस तन्नैं धीरे-धीरे पानी मैं जाणा है। रामप्यारी बोल्ली-फिलम का नाम के है? नत्थू बोल्या-नाम है, गई भैंस पाणी मैं।