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बेरुखी छोड़कर किसानों की सुनवाई करे हुकूमत

07:48 AM Apr 16, 2024 IST

देविंदर शर्मा

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पंजाब और हरियाणा में, जो किसानों के विरोध का केंद्र है, आंदोलित किसान गांवों में सत्ताधारी पार्टी के उम्मीदवारों के प्रवेश को रोक रहे हैं, जिससे भाजपा उम्मीदवारों को वोट मांगने में मुश्किल पैदा हो रही है। वे अक्सर कहते हैं- ‘अगर आपने नई दिल्ली जाने का हमारा रास्ता रोका, तो हम अपने गांवों में आपकी एंट्री रोक देंगे।’
इतना ही नहीं, हरियाणा में भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाने वाली जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के पूर्व उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला की माता नैना चौटाला ने किसानों से गुजारिश की कि उन्हें उनके बेटे के गांवों में प्रवेश को नहीं रोकना चाहिए। वहीं उन्होंने किसानों से कहा, ‘भाजपा राज्य और केंद्र दोनों में सत्ता पर काबिज है। इसके अलावा, दुष्यंत ने लगातार कृषक समुदाय की वकालत की है, यहां तक ​​कि हिसार से सांसद के रूप में अपने पिछले कार्यकाल के दौरान भी।’ साथ ही नैना चौटाला ने मसले को हल करने के लिए बातचीत में शामिल होने के लिए उनका स्वागत किया। हिसार के नारा, गामरा, खानपुर और सिंधर गांवों में प्रचार करने पहुंचे दुष्यंत चौटाला को किसानों के गुस्से का सामना करना पड़ा। मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि भाजपा के हिसार से उम्मीदवार रणजीत सिंह चौटाला को किसानों के एक समूह से भिड़ने के बाद एक गांव में एक सभा बीच में ही छोड़नी पड़ी और चुनाव संबंधी एक अन्य कार्यक्रम भी रद्द करना पड़ा। सिरसा से चुनाव लड़ रहे अशोक तंवर को भी अपने प्रचार के दौरान किसानों के गुस्से का सामना करना पड़ा है।
बीजेपी सांसद और रोहतक से उम्मीदवार अरविंद शर्मा को कोसली विधानसभा क्षेत्र के एक गांव से कार्यक्रम छोड़कर जाना पड़ा क्योंकि स्थानीय लोगों ने उनकी बात सुनने से इनकार कर दिया। उनके दौरों के कई वीडियो में दिखाया गया है कि किस तरह से ग्रामीणों ने नेताओं के साथ धक्का-मुक्की और कटाक्ष किये, जिसके बाद तीखी नोकझोंक हुई और कई स्थानों पर उम्मीदवारों को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। मिसाल के तौर पर, सोनीपत से उम्मीदवार मोहन लाल बडोली को जींद जिले में कुछ स्थानों पर इसी तरह का विरोध झेलना पड़ा। वहीं वीडियो क्लिप से पता चलता है कि कैसे गुस्साए किसानों की रणजीत चौटाला के साथ तीखी बहस हुई। कई नेताओं ने तो ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्र के उन गांवों को नजरअंदाज कर दिया जहां उन्हें विरोध होने का डर है।
पड़ोसी पंजाब में, भाजपा उम्मीदवार हंस राज हंस को बठिंडा के पास रामपुरा फूल में किसानों की नाराजगी का सामना करना पड़ा। जहां पुलिस ने किसानों को रोकने के लिए बैरियर लगाए थे, वहीं पुलिस के साथ झड़प हो गई। इसी तरह पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह की पत्नी प्रणीत कौर को भी किसानों के विरोध का सामना करना पड़ा। अमेरिका में पूर्व राजदूत तरनजीत सिंह संधू, जो अब अमृतसर सीट से भाजपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं, को भी अपने चुनाव अभियान के दौरान नारेबाजी करने वाले किसानों का सामना करना पड़ा। वास्तव में, समाचार रिपोर्टों में कहा गया है कि किसानों ने करीब 60 गांवों में भाजपा उम्मीदवारों के प्रवेश को रोक दिया है। किसान नेताओं का कहना है कि उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों से उन वायदों के बारे में सवाल करने को कहा है जो अधूरे रह गए। उनका दावा है कि इस तरह के विरोध प्रदर्शन पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्सों और कुछ हद तक राजस्थान में हो रहे हैं। कई गांवों में तो भाजपा प्रत्याशियों के प्रवेश पर प्रतिबंध के बोर्ड लग गए हैं।
जहां भाजपा इन विरोध प्रदर्शनों के आयोजन के लिए कांग्रेस और आम आदमी पार्टी यानी आप को जिम्मेदार ठहरा रही है, वहीं आप उम्मीदवारों को भी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। फसल में हुए नुकसान का मुआवजा न मिलने पर किसान आम आदमी पार्टी के बठिंडा शहरी विधायक के आवास के बाहर धरने पर बैठ गए। जबकि भाजपा इन विरोध प्रदर्शनों को कमतर आंक रही है, लेकिन उसे चिंता हो रही है कि यहां बन रही खिलाफत की गति यदि इन विरोध प्रदर्शनों को अन्य राज्यों तक फैलाती है, तो क्या यह सत्तारूढ़ पार्टी की जीत की संभावनाओं को रोकने में मददगार बनेगी।
किसी भी हालत में, भारती किसान यूनियन (बीकेयू) के विभिन्न गुटों ने, जिन्होंने 2020-21 में नई दिल्ली की सीमाओं पर साल भर चले विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया था, जिसके परिणामस्वरूप तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लिया गया था, उन्होंने किसानों से उम्मीदवारों का विरोध करने की अपील की है। वे उनके द्वारा उठाए गए विभिन्न मुद्दों के जवाब मांग रहे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने पंजाब के किसानों से भाजपा नेताओं के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने और अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं के समक्ष सवाल उठाने की अपील की है।
सबको मालूम है कि कृषि क्षेत्र लगातार गहरा रहे खेती के संकट से जूझ रहा है। लेकिन किसानों का गुस्सा काफी हद तक काहिली और निष्ठुरता के परिणामस्वरूप पैदा उदासीनता को लेकर है। हर चुनाव - चाहे राज्य स्तर पर हो या केंद्र स्तर पर - किसानों को लुभाने के लिए बहुत सारे वादे किए जाते हैं। साल 2014 में, यह आम तौर पर स्वीकार किया जाता है कि जब नरेंद्र मोदी ने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देने का वादा किया था, तो किसानों ने भाजपा के पक्ष में भारी मतदान किया था। उन्होंने स्वामीनाथन आयोग द्वारा सुझाए गए एमएसपी नुस्खे का पालन करने की आवश्यकता पर स्पष्ट रूप से बात की थी। लेकिन, किसान यूनियनों का कहना है कि एक बार सत्ता में आने के बाद, सरकार ने वास्तव में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया था जिसमें कहा गया कि एमएसपी को कानूनी बनाना संभव नहीं है क्योंकि यह बाजारों की व्यवस्था बिगाड़ देगा।
जिस तरह से तीन कथित 'काले' कृषि कानून पेश किए गए और फिर संसद के जरिये पारित किए गए, उससे भी किसान समुदाय नाराज है। लंबे समय तक चले विरोध के बाद आखिरकार कानूनों को वापस ले लिया गया। लेकिन अभी भी पिछले दरवाजे से इन कानूनों को वापस लाने की कोशिश की जा रही है। इससे भी बदतर, नई दिल्ली तक किसानों के मार्च को रोकने के लिए हाईवे की किलेबंदी के हालिया प्रयास, और आंदोलनकारी किसानों पर आंसू गैस के गोले फेंकने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल करने से किसानों की पीड़ा बढ़ गयी है। गांवों में नेताओं की एंट्री रोककर किसान समूहों द्वारा की गयी प्रतिक्रिया उनके साथ हो रहे अनुचित व्यवहार पर बढ़ते आक्रोश का प्रतिबिंब है।
जबकि चुनाव प्रचार अभियान के लिए आने वाले उम्मीदवारों से सवाल करना एक वैध लोकतांत्रिक तरीका है लेकिन इसके लिए बलप्रयोग का निश्चित तौर पर समर्थन नहीं करना चाहिये। किसानों को ही अकेले दोषी नहीं ठहराया जा सकता है जब सरकार ने भी जुलूस के रूप में नयी दिल्ली जा रहे किसानों के रास्ते में बैरिकेड लगा दिये थे। यह केवल भारत में ही है कि किसानों को हरियाणा के बॉर्डर्स पर बलपूर्वक रोका गया जबकि यूरोप के 24 देशों में आंदोलनरत किसानों को राजधानियों तक बिना किसी रोक-टोक जाने की अनुमति दी गयी। किसानों द्वारा आधिकारिक इमारतों पर खाद बिखेरने और हाईवे पर कीचड़ डालने के बावजूद किसी जगह उन पर पुलिस बर्बरता करती नजर नहीं आई। यहां तक कि यूरोप में देश के प्रमुख भी आंदोलनकारी किसानों से मिले और सार्वजनिक तौर पर कहा कि किसानों को प्रदर्शन का अधिकार है, सुने जाने का हक है। यूरोपियन कमीशन ने असके उपरांत उन पर्यावरणीय नियमों में बदलाव किये जिनके किसान खास तौर से खफा थे। फ्रांस समेत कई देश किसानों को न्यूनतम कीमत प्रदान कराने की संभावनाएं जांच रहे हैं जिससे नीचे कोई लेन-देन नहीं होगा।
भारत में भी किसानों की सुनवाई करने की आवश्यकता है। केवल किसान समुदाय के विरोध में मौजूद राजनीतिक उदासीनता की वजह से उनसे फासला बनाकर नहीं रखा जा सकता है। किसान एक गारंटीशुदा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मांग कर रहे हैं और ऐसा करने के लिए एक मैकेनिज्म विकसित करने की जरूरत है। आखिरकार, कितनी देर तक हम किसानों को संरचना के निचले तल पर रख सकते हैं।

लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।

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