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असमानता दूर करना हो सुधारों का लक्ष्य

12:35 PM Aug 18, 2021 IST

देविंदर शर्मा

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ऐसे वक्त पर जब वर्ष 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों को लाने की 30वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है तो काफी महिमामंडन के साथ अपनी पीठ थपथपा कर उसे याद किया जा रहा है। ठीक इसी उक्त सुधारों के मुख्य पुरोधा मनमोहन सिंह का वक्तव्य आया है– ‘यह समय खुशियां मनाने और वाहवाही करने का नहीं है बल्कि आत्मनिरीक्षण और मनन करने का है। आगे की राह 1991 के मुकाबले और ज्यादा कठिन होने वाली है।’

यह बयान ऐसे समय पर आया है जब मौसम बदलावों पर आई एक वैश्विक रिपोर्ट– इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज- के छठवें आकलन की पहली कड़ी में मौजूदा पर्यावरणीय हालातों को मनुष्यता के लिए ‘कोड रेड’ श्रेणी वाला यानी खतरनाक बताया है। साथ ही, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुट्रस ने भी बिना लाग-लपेट के कहा है– ‘सबूत अकाट्य हैं, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन हमारे ग्रह को जकड़ चुका है और करोड़ों लोगों की जिंदगी खतरे में है।’ जिस महत्वपूर्ण अवयव की यह रिपोर्टें सामने लाने में विफल रही हैं, वह यह कि नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों ने, जिसके अंतर्गत सकल घरेलू उत्पादकता (जीडीपी) को विकास का पैमाना माना जाता है, पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि कर दी। वरना इसका क्या जवाब है विश्व के सबसे विकसित माने जाने वाले देश, जिनकी संख्या 1 फीसदी है, वहां से इतना अधिक उत्सर्जन होता है, जितना बाकी की आधी दुनिया कुल मिलाकर करती है।

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यह चेतावनी इस बात को सुनिश्चित करवाने को लेकर आई है कि पृथ्वी का औसत तापमान अगले 20 सालों में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की ऊपरी सीमा से ज्यादा न बढ़ने पाए। लेकिन यह जानने के बाद कि पहले ही तापमान में 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी हो चुकी है, मुझे नहीं मालूम कि बाकी बचे 0.4 डिग्री सेंटीग्रेड जुड़ने में कितने साल लगेंगे। खैर, जिस कदर पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हुई है और जिसके परिणामस्वरूप औद्योगिक विकास-काल के दौरान मौसम एकदम अप्रत्याशित बन गया है, यह दर्शाता है कि आर्थिक विकास के लिए जो रूपरेखा अपनाई गई है, उसमें कुछ जन्मजात खामियां हैं।

विश्व आर्थिक मंच पर अंतर्राष्ट्रीय भलाई संस्था ‘ऑक्सफैम’ द्वारा प्रस्तुत अध्ययन ने साफ बताया है कि कैसे अमीर और अधिक अमीर और गरीब और ज्यादा गरीब होते जा रहे हैं– यह सुधारों पर तुरंत पुनर्विचार करने की जरूरत का प्रामाणिक सूचकांक है। यदि भारत में चोटी के 1 फीसदी अमीरों के पास देश की 73 फीसदी आबादी के पास कुल पैसे से चार गुणा ज्यादा दौलत है, ऐसे में आर्थिक असमानता में इतने बड़े अंतर के लिए जिस उदारवाद की भूमिका है, उसका महिमामंडन करना कहां तक उचित है। अमेज़ॉन के मालिक जेफ्फ बैज़ोस, जिन्होंने हाल ही में अंतरिक्ष यात्रा की है, उनकी एक दिन की कमाई 8 बिलियन डॉलर है, लेकिन कर (टैक्स) फिर भी एक स्टेनोग्राफर से कम चुकाते हैं, यह बताता है कि किस तरह आर्थिक सुधारों के वैश्विक मॉडल ने अत्यंत अमीरों को और दौलतवान बनाने में मदद की है। भारत में भी, अन्य मुल्कों की तरह, आसान पैसा और सरकार द्वारा दिए जाने वाले आर्थिक प्रोत्साहन अतंतः स्टॉक मार्किट में चले जाते हैं। कोई हैरानी नहीं कि स्टॉक मार्किट ऐसे समय में फल-फूल रही हैं जब दुनियाभर की आर्थिकी हांफ रही है।

आय में असमानता का मतलब है खराब अर्थव्यवस्था नीति, चंद लोगों के हाथ में अकूत धन-दौलत इकट्ठा होना साफ दर्शाता है कि विकास के लिए अपनाए नुस्खे में अनेकानेक कमियां जड़ से हैं। जैसा कि ‘पब्लिक सिटीज़न’ नामक एडवोकेसी समूह हमें बताता है कि अमेरिका की चंदेक बड़ी तकनीकी कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के पास वर्ष 2021 में कुल मिलाकर 651 बिलियन डॉलर की दौलत है। इतने धन से न सिर्फ पूरी दुनिया से भूख और मलेरिया से निजात, पृथ्वी के तमाम इंसानों को कोविड वैक्सीन और अमेरिका के सभी घर-विहीन लोगों के सिर पर छत मुहैय्ाा करवाई जा सकती है, बल्कि इसके बाद भी इन धन-कुबेरों के पास जी-खोलकर खर्चने लायक धन बाकी बचेगा।

भारत में भी, चोटी के 1 प्रतिशत धनाढ्यों के पास जो दौलत है, उसका महज छोटा-सा अंश देश से गरीबी और भूख का इतिहास मिटाने को काफी है। अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला ने कुछ समय पूर्व कहा था कि केवल 48000 करोड़ रुपयों से भारत में एक साल के भीतर गरीबी हटाई जा सकती है। अगर यह सच है और यह मानकर कि भूख अत्यंत दारूणता का चिन्ह है, फिर क्या वजह है कि 107 देशों की सूची में भारत शोचनीय 94वें पायदान पर है। वह भी ऐसे समय पर जब देश में पिछले कई सालों से खाद्यान्न भंडार लगातार फटने की कगार तक ठुंसे पड़े हैं। इस कठिनाई में आगे जुड़ जाती है बेरोजगारी, निरंतर चलता कृषि संत्रास, जिसकी गूंज इन दिनों दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन में सुनाई दे रही है। यह वक्त आर्थिक नीतियों में गहरे सुधार करने का नहीं है बल्कि ऐसे मानव-भलाई कार्यक्रम में बदलाव लाने का है, जिससे जनता की बढ़ती जरूरतें जैसे कि स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पर्यावरणीय सुरक्षा और आर्थिक असमानता में कमी लाने को उपाय हो सके।

एक स्वस्थ एवं गरिमामय जिंदगी कई अवयवों पर निर्भर होती है, इसमें स्वस्थ एवं वातावरण भी एक हैं। पर्यावरणीय कारगुजारी सूचकांक-2020 (ईपीआई) के मुताबिक 180 देशों में भारत 168वें स्थान पर आता है। यह रिपोर्ट बताती है कि जो देश ऊपरी पायदानों पर हैं, उन्होंने अपनी जनता के स्वास्थ्य, प्राकृतिक स्रोतों की रक्षा और ग्रीन हाउस उत्सर्जन में कमी लाने को सतत प्रयास और प्रतिबद्धता रखी है। ऐसा नहीं कि अमीर मुल्कों ने भी उन पर्यावरणीय और स्वास्थ्य ध्येयों को पूरी तरह पा लिया हो, जितना करने की जरूरत है। गौरतलब है, अध्ययन बताता है कि केवल 90 कंपनियों का संयुक्त प्रदूषण इतना है जो औद्योगिक क्रांति के आगाज से लेकर आज तक हुए का 63 फीसदी है। भारतीय आर्थिक एवं अन्य नीति निर्धारकों के लिए एक टिकाऊ और सबको साथ लेकर चलने की राह बनाने में केवल यही तथ्य काफी है। यही वह अवयव हैं जिन्हें पिछले आर्थिक सुधारों के लिए छाती ठोककर खुद पर मान करने वालों को ध्यान में रखना चाहिए था, परंतु सुधार की अधकचरी समझ, जिसमें सिर्फ निजीकरण करने का उत्साह था– इसने हमारे देश को भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष नीति के तहत गलत वैश्विक आर्थिक दुष्चक्र में फंसा डाला। इसकी बजाय, नीतियां ऐसी बनतीं, जिनसे समाज के मध्य और निम्न वर्ग में आते लोगों की वास्तविक आमदनी में इजाफा होता, जिससे आगे ग्रामीण क्षेत्र में विशाल उपभोक्ता मांग पैदा होती और इस प्रक्रिया से ग्रामीण अंचल की आर्थिकी को पुनर्जीवन मिलता।

भारत के नीति-निर्माताओं ने अमेरिका द्वारा अपनाई ‘वाशिंगटन कन्सेन्सेस’ नामक योजना से परे न देखकर ऐतिहासिक चूक की है, जबकि अपने देश के हालातों के मुताबिक आर्थिक सुधारों का ऐसा देशी मॉडल करते, जिसमें विकास की मंजिल पाने में कृषि क्षेत्र को दूसरा सबसे अहम इंजन माना जाता। कृषि से तौबा करवाने वाली नीतियां बनाने की बजाय देश में सबसे ज्यादा रोजगार मुहैया करवाने वाले इस क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर इसे आर्थिक विकास का पॉवर हाउस बनाने पर जोर दिया जाता।

यह करना अभी भी संभव है। विगत के इस विध्वंस से सबक लेते हुए कि अमीर देशों में अपनाई गई औद्योगिकीकृत-कृषि और वैश्विक मुक्त मंडी बनाने की नीतियों के नतीजों ने किस कदर वहां का कृषि परिदृश्य बदल डाला है और बहुत बड़ा कृषि संत्रास पैदा कर दिया है। हमें आर्थिक नीतियों का पुनर्निधारण करने में आर्थिक रूप से व्यवहार्य, मुनाफा प्रदत्त और पर्यावरण मित्र टिकाऊ खाद्य कृषि तंत्र बनाना होगा ताकि जहां किसान को वादा-मूल्य के उपाय से एक सुनिश्चित आय मिले, वहीं उपभोक्ता को सुरक्षित एवं स्वास्थ्यवर्धक भोजन प्राप्त हो।

लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।

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