दौलत नहीं परिश्रम से मिलती है सुख की राह
दरअसल, श्रम करने से जहां हमारी जीवनी शक्ति बढ़ती है, वहीं हम प्रसन्नता का भी अनुभव करते हैं। लगातार श्रम करते रहने से हमारी पाचन शक्ति भी दुरुस्त रहती है।
योगेंद्रनाथ शर्मा ‘अरुण’
बचपन में किताबों में पढ़ा था— ‘इफ़ वेल्थ इस लॉस्ट, नथिंग इज़ लॉस्ट; हेल्थ इज़ लॉस्ट, समथिंग इज लॉस्ट, करैक्टर इज़ लॉस्ट, एवेरीथिंग इज़ लॉस्ट’, लेकिन विडंबना देखिए कि आज तो समाज में बिल्कुल उल्टा ही देखने को मिल रहा है। चरित्र को तो जैसे हमने अंतिम मानकर भुला ही दिया है और पैसा सर्वोपरि हो गया है। इसका परिणाम धीरे-धीरे हमारे सामने आ रहा है। जिसके चलते समाज में जीवन मूल्यों का लगातार पराभव देखने में आ रहा है।
यही वजह है कि समृद्धि व संपन्नता के बावजूद हमारी सोच सकारात्मक नहीं रही। जिसके चलते हम तमाम तरह के मनोकायिक रोगों के शिकार हो रहे हैं। तरह-तरह के रोग हमारे शारीरिक श्रम करने से बढ़ने लगे हैं। जिसकी वजह से आज महानगर से लेकर नगरों और कस्बों से लेकर गांवों तक आज हमें ‘डाक्टर्स ही डाक्टर्स’ बड़े-बड़े हॉस्पिटल और नर्सिंग होम मिलेंगे। कैंसर, लीवर, गुर्दे, टीबी, हार्ट और मूत्र संबंधी रोगों के इलाज के बड़े-बड़े होर्डिंग्ज़ दिखाई देंगे। जाहिर है रोग बढ़ेंगे तो रोग उपचार के कारोबार भी बढ़ेंगे।
दरअसल, यहां डॉक्टरों की बढ़ती भीड़ चेता भी रही है और डरा भी रही है। आज से बीस-तीस साल पहले जहां ढूंढ़े से कोई डॉक्टर मिलता था, आज वहां भीड़ है। मेरा अंतर्मन कहता है कि हम सुख की तलाश ‘दौलत’ में करते-करते सबसे बड़े जीवन-मूल्य ‘परिश्रम’ को भूल बैठे हैं। जबकि यह एक हकीकत है कि पसीने से महकते किसान, जवान और श्रमिक कोई व्यायाम करने को नहीं कहता। उनका श्रमयुक्त जीवन अपने आप में व्यायाम है। वे स्वस्थ भी रहते हैं। यहां तक कि फिट सैनिक को जवान की संज्ञा दी जाती है। जवान यानी हमेशा फिट रहने वाला। आज बेचैन अंतर्मन को एक बेहद सार्थक और मार्मिक बोधकथा पढ़ने को मिली है, जो हमारे कई प्रश्नों के उत्तर दे देती है। आप भी इस प्यारी सी कथा को पढ़िए :-
‘पुराने समय में एक राजा था। राजा के पास सभी सुख-सुविधाएं और असंख्य सेवक-सेविकाएं थे, जो हर समय उसकी सेवा को उपलब्ध रहते थे। लेकिन उसके जीवन में श्रम की कोई जगह न थी। राजा को किसी चीज की कमी नहीं थी। फिर भी राजा अपने जीवन से सुखी नहीं था, क्योंकि वह अपने स्वास्थ्य को लेकर काफी परेशान रहता था। राजा सदा बीमारियों से घिरा रहता था। राजा का उपचार सभी बड़े-बड़े वैद्यों द्वारा किया गया, परंतु इसके बावजूद राजा को स्वस्थ नहीं किया जा सका। अपने राजा की बढ़ती बीमारी से राज दरबार चिंतित हो गया। वे राजा को स्वस्थ बनाने के तमाम उपायों पर विचार करने लगे।
राजा की बीमारी दूर करने के लिए दरबारियों द्वारा राज्य में ऐलान करवा दिया गया कि जो भी राजा का स्वास्थ्य ठीक करेगा, उसे असंख्य स्वर्ण मुहरें दी जाएंगी। यह घोषणा सुनकर एक वृद्ध भी राजा का इलाज करने राजा के महल में गया। वृद्ध ने राजा के पास आकर कहा, ‘महाराज, आप आज्ञा दें तो आपकी बीमारी का इलाज मैं कर सकता हूं।’
राजा की आज्ञा पाकर वह बोला, ‘आप किसी पूर्ण सुखी मनुष्य के वस्त्र पहनिए, आप अवश्य स्वस्थ और सुखी हो जाएंगे।’ वृद्ध की बात सुनकर राजा के सभी मंत्री और सेवक जोर-जोर से हंसने लगे। इस पर वृद्ध ने कहा, ‘महाराज! आपने सारे उपचार करके देख लिए हैं, यह भी करके देखिए! मेरा दावा है कि आप अवश्य ही स्वस्थ हो जाएंगे।’ राजा ने उसकी बात से सहमत होकर सेवकों को पूर्ण सुखी मनुष्य की खोज में राज्य की चारों दिशाओं में भेज दिया, परंतु उन्हें कोई पूर्ण सुखी मनुष्य कहीं भी नहीं मिला। यह सुनकर राजा भी गहरी सोच में डूब गया। अब राजा स्वयं किसी सुखी मनुष्य की खोज में निकल पड़ा। अत्यंत गर्मी के दिन होने से राजा का बुरा हाल हो गया और वह एक पेड़ की छाया में विश्राम हेतु रुका। तभी राजा को एक मजदूर इतनी गर्मी में भी मजदूरी करता दिखाई दिया। राजा ने उससे पूछा, ‘क्या, आप पूर्ण सुखी हो?’
मजदूर खुशी-खुशी और सहज भाव से बोला, ‘जी, भगवान की कृपा से मैं पूर्ण सुखी हूं!’ उसने मजदूर को ऊपर से नीचे तक देखा तो मजदूर ने सिर्फ धोती पहनी हुई थी और वह गाढ़ी मेहनत से पूरा का पूरा पसीने से तरबतर था। राजा यह देखकर समझ गया कि परिश्रम करने से ही एक आम मजदूर भी पूर्ण सुखी है। इस तरह राजा को सुखी रहने का मंत्र मिल गया था। राजा ने राजमहल लौटकर उस वृद्ध का उपकार मानते हुए उसे असंख्य स्वर्ण मुद्राएं दीं। अब राजा स्वयं आराम और आलस्य छोड़कर खूब परिश्रम करने लगे। कुछ ही दिनों में राजा पूर्ण स्वस्थ और सुखी हो गया।
मित्रो! इस बोधकथा का सार यही है कि आज हम भौतिक सुख-सुविधाओं के इतने आदी हो गए हैं कि हमारे शरीर की रोगों से लड़ने की शक्ति क्षीण होती जा रही है। दरअसल, श्रम करने से जहां हमारी जीवनी शक्ति बढ़ती है। लगातार श्रम करते रहने से हमारी पाचन शक्ति भी दुरुस्त रहती है। हमें नकारात्मक बातें सोचने का वक्त भी नहीं मिलता है। कहा भी है—
‘श्रम से बढ़कर कुछ नहीं, श्रम कर रे! इंसान।
धन-दौलत रहने यहीं, जीवन है पहचान।’