साधना का सार
एक बार चार महिलाएं कुएं से पानी लेने जा रही थीं। कुएं के पास पहुंची तो देखा एक साधु पत्थर पर सिर रखकर सो रहा था। उसे देख पहली महिला बोली, ‘अहा! साधु हो गया, लेकिन तकिए का मोह नहीं गया, पत्थर का ही सही लेकिन रखा तो है।’ महिला की बात साधु ने सुन ली और उसने तुरंत पत्थर फेंक दिया। इसी पर दूसरी महिला बोली, ‘साधु हुआ लेकिन गुस्सा नहीं गया, देखो, कैसे पत्थर फेंक दिया।’ साधु सोचने लगा, अब वह क्या करे? इतने में तीसरी महिला बोली, ‘बाबा, यह तो पनघट है, यहां तो हमारी जैसी पनिहारी पानी लेने आती ही रहेंगी और कुछ न कुछ बोलती ही रहेंगी। उनके कहने पर आप बार-बार परिवर्तन करोगे तो साधना कब करोगे?’ लेकिन चौथी महिला ने बहुत ही सुंदर और अद्भुत बात कही। उसने कहा, ‘क्षमा करना बाबा, लेकिन मुझे लगता है कि तुमने सब कुछ छोड़ा लेकिन अपना चित्त नहीं छोड़ा। इसलिए अभी तक वहीं के वहीं बने हुए हो। दुनिया पाखंडी कहे या कुछ और, तुम जैसे भी हो, वैसे बने रहो। दुनिया वालों का तो काम ही है कुछ न कुछ कहना। सच्ची साधना, बाहरी दिखावे या परिवर्तनों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि अपने चित्त यानी मन की शुद्धता और स्थिरता पर निर्भर करती है।’
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी