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पैरेंटिंग के दायित्व से मुक्त हाे सपने पूरे करने की ललक

08:39 AM Apr 30, 2024 IST
पैरेंटिंग के दायित्व से मुक्त हाे सपने पूरे करने की ललक
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सरस्वती रमेश
सृष्टि की शादी को दस साल बीत चुके हैं मगर उन्होंने अब तक बच्चा नहीं किया है। उनका कहना है, वह चाइल्ड फ्री कपल रहना चाहती हैं। यह उनकी मजबूरी नहीं, चॉइस है। सृष्टि ठाकुर नोएडा की एक कम्पनी में डायरेक्टर हैं। उन्होंने शुरू से ही अपने कैरियर पर फोकस किया और शादी के बाद भी 'चाइल्ड फ्री कपल' रहने का फैसला किया। अब वह 36 साल की हो चुकी हैं और अपनी जिंदगी को पूरी तरह एन्जॉय कर रही हैं। उन्हें समाज की परिपाटी से हटकर लिये गए अपने फैसले पर कोई पछतावा नहीं, उल्टे वह संतुष्ट हैं। यह आज सिर्फ सृष्टि की सोच नहीं। ऐसी बहुत महिलाएं हैं जो बच्चा करने के लिए तैयार नहीं। ऐसा वे किसी मजबूरीवश नहीं बल्कि अपनी मर्जी से कर रही हैं।
स्त्री है अपने आप में सम्पूर्ण
सदियों से हमारे समाज की यह सोच रही है कि मां बनकर ही एक स्त्री पूर्ण होती है। शादी के कुछ महीने बाद ही परिवार में हंसी-मजाक के जरिये बच्चे की डिमांड शुरू हो जाती है। ज्यादातर मामलों में बच्चा हो भी जाता है। लड़की गांव-कस्बे की हो या बड़े शहर की, मां बनने में कहीं न कहीं उसकी भी रजामंदी रहती आई है। देर- सबेर मां बनने के बाद वह पूरी तरह गृहस्थी में रम जाती है। पढ़ी-लिखी लड़कियां भी अपनी डिग्री और काबिलियत को ताक पर रख अपने सपनों से समझौता कर लेती हैं। कुछ महिलाएं बच्चे के साथ जॉब करना स्वीकार कर घर और बाहर संतुलन साधने में अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देती हैं। पर अब यह चलन तेजी से बदल रहा है। महिलाएं शादी के बाद भी अपने कैरियर और सपनों पर फोकस कर रही हैं और मां बनने की अनिवार्यता को खारिज कर रही हैं। बिना मां बने भी वह स्वयं को पूर्ण महिला मानती हैं। बाल-बच्चेदार महिलाओं से कहीं अधिक पूर्ण। गुड़गांव में रहने वाली गीता कहती हैं, ‘स्त्री अपने आप में सम्पूर्ण होती है। इसके लिए शादी, बच्चा या कोई और कंडीशन पूरी करना जरूरी नहीं होता। हर इंसान को अपनी सुविधा और इच्छा के अनुरूप जिंदगी जीने का हक़ है। परम्परा की दुहाई देकर किसी को मजबूर करना ठीक नहीं।’
दिल्ली की एक कम्पनी में एचआर के पद पर कार्यरत निकिता कहती हैं, ‘हर इंसान अपने आप में पूर्ण होता है। पूर्ण होने की कोई कंडीशन नहीं होती और न ही होनी चाहिए। असल में पूर्ण या अधूरा होना हमारे ही मन की सोच है। अगर आप अपने काम, कैरियर और जिंदगी से खुश हैं तो आप पूर्ण हैं और अगर नहीं तो बच्चे होने के बावजूद आपको अधूरापन महसूस हो सकता है। और यह सिर्फ स्त्री के साथ नहीं जुड़ा है। ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है।’
महिलाएं निकल रही हैं सामाजिक दबाव से
सोशल कंडीशनिंग स्त्रियों के जीवन में एक बहुत बड़ा प्रैशर है और अब तक इसकी वजह से उनके जीवन की दिशा और दशा तय होती रही है। बहुत हद तक उनका कैरियर भी इसी प्रैशर की भेंट चढ़ता रहा है। जिन घरों में उन्हें पढ़ने- लिखने और आगे बढ़ने की छूट मिली वहां भी फील्ड चुनने की आजादी नहीं मिली। पर अब महिलाओं ने घर-परिवार और समाज के प्रैशर को हैंडल करना सीख लिया है। वे बड़ी बेबाकी से समाज के सवालों का जवाब दे रही हैं।
जागरूक और समझदार है आज की नारी
अब तक जागरूकता के अभाव में अधिकतर महिलाएं प्रेग्नेंसी से जुड़ी मानसिक दशाओं से चाहे-अनचाहे जूझती रही हैं। मानसिक रूप से तैयार न होने के बावजूद उन्होंने मां बनना स्वीकार किया। पर अब वो ऐसी स्थिति से जान बूझकर जूझना नहीं चाहती। मां बनना एक जिम्मेदारी है और अगर वह इस जिम्मेदारी को उठाने में खुद को फिट महसूस नहीं करती तो खुशी-खुशी चाइल्ड फ्री रहना चूज़ करती हैं। अकसर पूछे जाने वाले चुभते सवालों, ‘अरे भई, मुन्ने का मुंह कब दिखाओगी’, ‘परिवार कब बढ़ाओगी’, ‘खुशखबरी कब सुनाओगी’, जैसे सवालों का जवाब हंसकर देना उन्होंने सीख लिया है।
पैरेंटिंग एक बड़ी जिम्मेदारी
चाइल्ड फ्री रहने के पीछे एक बड़ी वजह यह है कि आज की पीढ़ी पैरेंटिंग को बहुत बड़ी जिम्मेदारी मानती है, जिसके लिए समय और पैसा दोनों पर्याप्त मात्रा में चाहिए। पैसे होने के बावजूद समय का अभाव सालता है। वे अपने बच्चे को पूरा समय न देकर अपराध बोध से ग्रस्त नहीं होना चाहते हैं। इसलिए वे बच्चे न करने का विकल्प चुनते हैं।
फैसला लेना उनका अधिकार
जब जीवन महिलाओं का है तो फैसले लेने का अधिकार भी उन्हीं को मिलना चाहिए। बच्चा करना या न करना नितांत निजी मामला है। यह स्त्री की इच्छा, स्वास्थ्य व जरूरत पर निर्भर करता है। अच्छा हो ऐसे निजी फैसलों में परिवार का प्रैशर न आये। अपर क्लास सोसाइटी में काफी हद तक परिवार और समाज ऐसे फैसलों की अहमियत और फैसले के अधिकार को समझने लगा है। मगर मिडल क्लास सोसायटी में बदलाव के लिए काफी समय लग सकता है।

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