प्राकृतिक पूंजी की लूट से उपजा सभ्यता का संकट
अप्रैल के आखिरी सप्ताह में देहरादून में भारतीय वन सेवा (आईएफएस) अधिकारी प्रशिक्षुओं के 2022 बैच के दीक्षांत समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के भाषण के संपादित अंश पढ़े, तो मुझे आलोक शुक्ला की याद आ गई। जो एक अथक योद्धा और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक थे। आलोक शुक्ला ने एक सफल सामुदायिक अभियान का नेतृत्व किया था, जिसके तहत हसदेव अरण्य के प्राचीन जंगलों में 445,000 एकड़ जैव विविधता से समृद्ध जंगलों को बचाया।
दीक्षांत समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा था, ‘जब जंगलों की अहमियत समझने की बात आती है तो मनुष्य जानबूझकर खुद को भूलने के रोगियों में शामिल कर लेता है- यह जंगल की आत्मा है जो पृथ्वी को चलाती है।’और उसी भावना से जिस भाव से उन्होंने उस दिन उत्तीर्ण होने वाले सभी अधिकारियों को बधाई दी, मुझे लगता है कि यह स्वीकार करना उचित होगा कि आलोक शुक्ला भी‘समाज में प्रगति के प्रतीक हैं।’
अब इससे पहले कि आप मुझसे पूछें कि आलोक शुक्ला कौन हैं और उन्होंने जंगलों को बचाने के लिए क्या अभूतपूर्व योगदान दिया है, और वह भी ऐसे समय में जब उच्च आर्थिक विकास हासिल करने के लिए जंगलों की लूट को पूर्व-अपेक्षित क्षति माना जाता है, उन्हें 2024 के गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार से नवाजा गया है, जिसे 'ग्रीन नोबेल' भी कहा जाता है। वह इस वर्ष सम्मान पाने वाले छह महाद्वीपों के सात बहादुरों में से एक हैं। निडर और साहसी, सबसे शक्तिशाली आर्थिक ताकतों से लोहा लेने की उनकी अदम्य भावना ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्र में लगभग 4.5 लाख एकड़ के अमूल्य आदिम जंगलों में लाखों पेड़ों को बचाया है। हसदेव समुदाय ने न केवल उस विशाल जैविक संपदा की रक्षा के लिए सभी बाधाओं के खिलाफ संघर्ष किया है, बल्कि यह सामुदायिक प्रयास मानवता के हित में प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण में भी मदद करेगा।
यदि मैं पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के अर्थशास्त्र (टीईईबी) दृष्टिकोण को लागू करने वाले वास्तविक लेखांकन मानदंडों का उपयोग करके आर्थिक मूल्य का पता लगाने का प्रयास करूं, तो इसकी कीमत कई ट्रिलियन भारतीय रुपये होगी।
जब मैंने इससे पहले कहा कि आलोक शुक्ला बेहद शक्तिशाली आर्थिक ताकतों के विरुद्ध सक्रिय रहे (और अभी भी हैं) तो यह संदर्भ हसदेव अरण्य के जंगलों में अलॉट की गयी 21 नियोजित कोयला खदानों के संबंध में था। आदिवासी समुदायों की ओर से एक लंबी और सतत मुहिम के बाद, उन्होंने साल 2012 में जो हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति गठित की, उसने प्रतिरोध को इस तरह से संगठित किया कि वह प्रभावी बन गयी, और आखिरकार सर्वाधिक शक्तिशाली कॉर्पोरेशन में से कुछ को मिले 21 नियोजित कोयला खानों के परमिट रद्द करने के लिए सरकार को मजबूर करने में सफल रही। इस प्रक्रिया में, स्थानीय समुदायों द्वारा सतत संघर्ष, जिसमें अनगिनत धरने, गढ़वाल के पहाड़ों में विख्यात चिपको आंदोलन की तरह पेड़ों को लिपटना और राज्य की राजधानी रायपुर की ओर 166 किलोमीटर कूच, शामिल है। यदि किसी को इस संघर्ष, जारी रहे आंदोलनों और समुदायों के उत्पीड़न की कार्रवाई का एक दस्तावेज तैयार करना हो तो यह नेटफ्लिक्स, प्राइम और अन्य ओटीटी प्लेटफार्मों के लिए एक आकर्षक डॉक्युमेंटरी सीरीज होगी। यह निश्चित तौर पर हाथी की फुसफुसाहट नहीं थी बल्कि ये अति आधुनिक आरा मशीनें थी जिनका आदिवासियों को सामना करना था।
गोल्डमैन पर्यावरणीय पुरस्कार भी ऐसे समय पर आया है जब चिपको आंदोलन अपनी 50वीं वर्षगांठ बना रहा है। डाउन टू अर्थ पत्रिका के 16-30 अप्रैल, 2024 अंक में वर्णित है कि चिपको आंदोलन ने देशव्यापी पर्यावरण चिंताओं को प्रेरित किया था और नीति निर्माण पर प्रभाव डाला था। उस परिवर्तन का नेतृत्व करने वाले चंडी प्रसाद भट्ट याद करते हैं, ‘जब ठेकेदार और मजदूर साल 1973 में मार्च माह की एक सुबह रैणी गांव के जंगल को काटने के लिए पहुंचे, तो गांव में कोई आदमी नहीं था। चंडी प्रसाद आगे बताते हैं कि ‘गौरा देवी, जो उस समय महिला मंडल की मुखिया थीं, अन्य महिलाओं को जंगलों में ले गयी और पेड़ों से लिपट गयी।’ बाकी आगे सब इतिहास है।
चिपको आंदोलन को याद करना इसलिए महत्वपूर्ण है कि हसदेव के जंगलों में भी महिलाओं को पेड़ों से लिपटना पड़ा था। लेकिन गढ़वाल क्षेत्र में लकड़ी काटने आने वाले लकड़ी व्यवसायियों के उलट यहां छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार से मदद और शह प्राप्त शक्तिशाली कंपनियां थीं। इसलिए शायद छत्तीसगढ़ को पेड़ों को बचाने के लिए कुछ ज्यादा करने की जरूरत थी, और यही बात थी कि वहां सामुदायिक प्रतिरोध जरूरी हो गया था।
पर्यावरणीय संरक्षण के साथ आर्थिक विकास का संतुलन बनाने की बात अकसर की जाती है लेकिन जब मानवता के लिए जंगलों को बचाने का मामला होता है, खासकर मौसम में उबाल के वक्त, हमेशा अर्थशास्त्र को ही प्राथमिकता दी जाती है। जबकि यह ज्ञात है कि दुनिया के कुछ सबसे बड़े उद्योग हर साल अनुमानित 7.3 ट्रिलियन डॉलर मूल्य की प्राकृतिक पूंजी को निगल जाते हैं जो स्पष्ट रूप से पृथ्वी ग्रह को सभ्यता के संकट की ओर ले जा रहा है। यह भी कि जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों की लूट की इजाजत दी जा रही है, उसमें कहीं जरा भी पछतावा नजर नहीं आता। जंगलों के कटान की वजह से वातावरण में वैश्विक जलीय चक्र सूख रहे हैं। जैसे कि येल विश्वविद्यालय की स्टडी बताती है, जंगल स्थानीय वातावरण को ठंडा करके स्थानीय जलवायु को नियंत्रण में रखते हैं।
यहीं आलोक शुक्ला ने देश को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से आगे की बात सोचने की राह दिखाई है। हमें अपने ग्रह को विनाश से बचाने के लिए अलग प्रकार के आर्थिक सिद्धांतों की जरूरत है। हम पुराने पड़ चुके ग्रोथ मॉडल के साथ और ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकते हैं।
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।