For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

पर्यावरणविदों के सुझावों की अनदेखी से उपजा संकट

06:30 AM Aug 09, 2024 IST
पर्यावरणविदों के सुझावों की अनदेखी से उपजा संकट

जयसिंह रावत

Advertisement

वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के 11 साल बाद 31 जुलाई की रात एक बार फिर केदार घाटी में जलप्रलय जैसा माहौल पैदा हो गया। केदार धाम से लेकर नीचे घाटी में फंसे 15 हजार से अधिक तीर्थयात्रियों को सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, डीडीआरएफ और वाईएमएफ सहित थल और वायुसेना के साझा बचाव अभियान के तहत सुरक्षित निकाला जा सका। तीन यात्रियों के शव भी मलबे में बरामद हुए। केदारनाथ क्षेत्र की विशिष्ट भौगोलिक और भूगर्भीय स्थिति ऐसी है कि वहां भूस्खलन, भूकम्प और बादल फटने जैसी प्राकृतिक घटनाओं के साथ चलने की कला सीखनी ही होगी। अगर हमने प्रकृति के प्रतिकूल जिद नहीं छोड़ी तो भगवान केदारनाथ के कोप का बार-बार भाजना बनना ही होगा।
इसरो ने 2023 में देश के भूस्खलन संवेदनशील 147 जिलों का जोखिम मानचित्र तैयार किया था। इसमें सबसे ऊपर रुद्रप्रयाग जिले को रखा था, जहां 31 जुलाई को आई आपदा के कारण इन दिनों हजारों तीर्थयात्रियों की जानें संकट में फंसी रही। दूसरे नम्बर पर उत्तराखंड का ही टिहरी जिला अत्यंत जोखिम की श्रेणी में रखा गया था। वहां भी गत 26 एवं 27 जुलाई की रात को भूस्खलन से तिनगढ़ गांव तबाह हो गया। इसरो के जोखिम मानचित्र पर पश्चिमी घाट पर्वत श्रेणी से लगे केरल के वायनाड सहित सारे 14 जिले शामिल किये गये थे।
वर्ष 2013 की आपदा के बाद, शासन स्तर पर केदारनाथ में डॉप्लर राडार लगाने की बात कही गई थी, जिससे मौसम का सटीक पूर्वानुमान मिल सके और इस तरह की मुश्किलों से निपटने के लिए पहले से इंतजाम किए जा सकें। लेकिन एक दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी केदारनाथ क्षेत्र में अर्ली वार्निंग सिस्टम स्थापित नहीं हो सका। विशेषज्ञों का कहना है कि केदारनाथ में डॉप्लर राडार स्थापित होता तो बीते 31 जुलाई को पैदल मार्ग पर बादल फटने के बाद उपजे हालात से निपटने के लिए शासन, प्रशासन को इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती।
भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग, उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र तथा गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिकों ने केदार घाटी, जो कि सबसे संवेदनशील मुख्य केन्द्रीय भ्रंश (एमसीटी) के दायरे में आती है, तथा केदारनाथ धाम, जो स्वयं एक मलबे पर स्थित है, वहां भारी निर्माण की सख्त मनाही कर रखी है। वहां फिर भी सौंदर्यीकरण और सुरक्षा के नाम पर बहुत भारी निर्माण कर दिया गया। यही नहीं, सन‍् 2013 में चोराबाड़ी ग्लेशियर पर बादल फटने और ग्लेशियर झील के टूटने के कारणों की अनदेखी की गयी। दरअसल, योजनाकार ही नहीं बल्कि आपदा प्रबंधक भी जलतंत्र की अनदेखी करने की भूल कर रहे हैं। हिमालय पर ऊपर चढ़ते समय बादल स्थाई हिमाच्छादित क्षेत्र में बारिश की जगह बर्फ बरसाते हैं। लेकिन 2013 में ऐसा नहीं हुआ जो कि जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत था। केदार घाटी बहुत तंग है और उसके अंत में 3,583 मीटर ऊंचा केदार पर्वत या केदार डोम है। जिसे अलकनन्दा घाटी की ओर से चले बादल पार नहीं कर पाते हैं, इसलिए वहीं बरस जाते हैं। तंग घाटी होने के कारण बादलों का वेग अधिक होता है जिससे पहाड़ से टकराकर बादल फटने जैसी स्थितियां पैदा हो जाती हैं। इसीलिये इस घाटी में निरन्तर बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं।
एक स्वैच्छिक संगठन की याचिका पर सुप्रीमकोर्ट ने 2018 में केदारनाथ की बेहद सीमित धारण क्षमता को अनुभव करते हुए वहां प्रतिदिन 5000 से कम यात्रियों के जाने की सीमा तय की थी। लेकिन सरकार पर यात्रियों से ज्यादा हितधारकों और राजनीतिक दबावों के चलते इस साल सीमा को बढ़ाकर बदरीनाथ के लिये प्रतिदिन 20 हजार, केदारनाथ 18 हजार, गंगोत्री 11 हजार और यमुनोत्री के लिये 9 हजार यात्री कर दिया गया। इससे भी दबाव कम नहीं हुआ तो सरकार ने जून में सारी सीमाएं हटा दीं।
गौर करने वाली बात यह है कि पहले बदरीनाथ जाने वाले यात्रियों की संख्या केदारनाथ से बहुत अधिक रहती थी। बदरीनाथ के लिये सीधे वाहनों से जाया जाता है जबकि केदारनाथ के लिये लगभग 21 किमी की कठिन पैदल यात्रा भी है। लेकिन अब केदारनाथ में बदरीनाथ से अधिक भीड़ जा रही है। उत्तराखंड राज्य गठन से पूर्व पूरे सीजन में केदारनाथ के यात्रियों की संख्या औसतन 1 लाख तक और बदरीनाथ जाने वालों की संख्या 9 लाख तक होती थी। पिछले साल केदारनाथ में 19,61,277 तक तीर्थयात्री पहुंच चुके थे। यात्रियों का यह सैलाब है जो कि केदारनाथ की धारण क्षमता से अत्यधिक होने से आपदा का एक कारण बन रहा है।
यही नहीं, बहुत संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र वाले इन धामों में वाहनों की बाढ़ लगातार बढ़ती जा रही है। अति संवेदनशील गोमुख में भी इस साल अब तक 6,309 यात्री पहुंच गये जिनमें ज्यादातर कांवड़िये ही थे। प्रकृति के साथ अगर ऐसा ही खिलवाड़ होता रहेगा तो मानवीय संकट को टाला नहीं जा सकेगा।
बेशक आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास की अत्यन्त आवश्यकता है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम प्रकृति के साथ इतनी छेड़छाड़ कर दें कि अपने ही नागरिकों को जान के लाले पड़ जायें। इन आपदाओं के लिए हर बार वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के सुझावों और चेतावनियों की अनदेखी को जिम्मेदार माना जा सकता है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement
×