दक्षिण एशिया अग्रणी अवसर का लाभ उठाये
वर्ष 1971 में, हमारा नज़रिया था कि जब पड़ोस में नागरिक नरसंहार का हमला झेल रहे हों, तब एक स्थाई राजनीतिक समाधान बनाने को हमारी जिम्मेवारी बन जाती है कि घिरे लोगों को साथ जोड़कर, उन्हें मुक्त करवाएं। यह दखलअंदाजी मानवीय आधार पर थी। उस वक्त पाकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण संयुक्त कमान के सामने था। मुक्ति दिलवाने के अलावा इस घटना ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर में समसामयिक संशोधन भी करवाया, जब संयुक्त राष्ट्र ने ‘बचाने की जिम्मेवारी’ सिद्धांत की नई व्याख्या जोड़ी। माइकेल वाल्ज़र के मौलिक लेखन कार्य ‘उचित और अनुचित युद्ध’ के मुताबिक देखें तो यह एक ‘उचित युद्ध’ था।
प्राप्त अनेकानेक रणनीतिक सबकों के बीच, जैसा कि द ट्रिब्यून अख़बार में 12 अगस्त को छपे लेख में असोक मुखर्जी ने विस्तार से और अच्छी तरह समझाया है, हमने जेनेवा संधि के अनुसार युद्धबंदियों से बरतने के नियमों पर अक्षरशः अमल करते हुए एक अनुकरणीय उदाहरण भी प्रस्तुत किया था। वैसे भी, टकराव वाली परिस्थिति में, सैन्य शासन से कहीं बेहतर विकल्प लोकतांत्रिक प्रशासन होता है, विशेषकर जब बर्बरता का सामना मानवीयता से करना हो– और यही हमारा मूल सिद्धांत है। इसके अलावा, दुनिया ने यह भी होते देखा कि धार्मिक अपवादिता के होते हुए भी, समानता और मानवीय गरिमा के लिए लड़ाई सर्वोपरि है, बाकी सब इससे नीचे। आधी सदी बाद, 2024 में, अब वक्त है इसको और विस्तार देने का क्योंकि संसार बदल चुका है। हमारे प्रधानमंत्री के कहे शब्द- ‘यह युग युद्धों का नहीं है’– की प्रतिध्वनि के अनुसार, वक्त है राह फिर से तय करने का। जिस पटल पर काम होना है वह बहुत विस्तृत हो चुका है। हमारे पास-पड़ोस के बड़े हिस्से की भांति बांग्लादेश का आंदोलन दक्षिण एशिया और विश्व के ज्यादातर हिस्सों के लिए नया मोड़ है।
दुनियाभर में घटित घटनाएं याद दिलाती हैं कि ‘सुरक्षा को खतरे’ की वेदी पर शांति, समृद्धि और विकास की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती, चाहे ‘खतरा’ वास्तविक हो या आभासीय। कोविड-19, पर्यावरणीय बदलाव और युद्ध पहले ही काफी नुकसान कर चुके हैं, इनमें आखिरी दो में प्रतिदिन बढ़ोतरी होती देखी जा रही है। सबसे बदतर स्थिति अभी आनी बाकी है।
प्रत्येक मामले में सबसे बड़ा घाटा नागरिकों का है। धुर केंद्र में नागरिक को रखकर उसके इर्द-गिर्द सुरक्षा आवरण बनाने की जरूरत है वरना तंत्र ढह जाएगा। भौतिक लाभ एवं क्षेत्र नागरिक को प्रमुख रखने की जगह नहीं ले सकते। बेशक, इलाका आत्म-सम्मान से जुड़ा है और इससे समझौता स्वीकार्य नहीं होता, लेकिन कोई समय कभी ऐसा भी होता है, जब नागरिक की प्रमुखता सबसे अधिक स्थान ले लेती है। वह वक्त अब है। प्रत्येक लोकतंत्र इस घड़ी का इस्तेमाल आत्मविश्लेषण करने के लिए करे, स्व-सुधार लागू करे और फिर ‘दुनिया एक है’ सिद्धांत को समझाने एवं उदाहरण प्रस्तुत करने वाली राह बनाने में सहायक हो। कुंजी है ‘अनेकता में एकता’ और नागरिक कल्याण, किसी भी अन्य चीज़ से ऊपर, जो एक निर्वाचित सरकार का पहला दायित्व है।
हम खुशनसीब हैं कि हमारी नींव की जड़ में विविधता है। हमने लोकतंत्र संजोकर रखा है। चूंकि इस इलाके में आकार एवं अर्थव्यवस्था के लिहाज से हम सबसे विशाल हैं, इस नाते हमारी जिम्मेवारियां भी बड़ी हैं। हमें इन पलों को आत्मसात करना होगा और दक्षिण एशिया को ‘ज्ञान का शक्तिकेंद्र’ बनाने में सहायक बनना होगा–सबकी भलाई के वास्ते, पहले देश के भीतर और फिर सीमाओं से परे योगदान। हर तरफ युवा इसे हाथों-हाथ लेंगे- बशर्ते उन्हें इसकी छुअन सभ्यात्मक लगे न कि व्यापारिक इरादे से सनी, किंतु यह सैद्धांतिक और मूल्यों पर आधारित हो। क्रांति के बजाय एक पुनर्जागरण की तरह, जैसे हम लहर को अपनी-पराई हर किश्ती को ऊपर उठाते देखते हैं।
आज हमारे तमाम पड़ोसी तिराहे पर खड़े हैं – इस क्षेत्र के कुल 200 करोड़ लोगों के हितों के आलोक में, हमारी जिम्मेवारी साझी है। यदि 140 करोड़ लोगों का देश भारत अगुवाई नहीं करेगा, तो दुनिया के सैन्य-औद्योगिक परिसर अपना स्थान बना लेंगे –और फिर दावत उड़ाएंगे– क्योंकि हम सभ्यात्मक स्तर पर एकता नहीं बना पाए।
अब हमें एक मंच बनाने की जरूरत है ‘दक्षिण एशिया शांति, समृद्धि, लोकतांत्रिक क्षेत्र’, जिसमें प्रत्येक सदस्य को हक हो कि यदि चाहे तो किसी अन्य संगठन की सदस्यता भी ले ले, लेकिन इस प्रावधान के साथ कि यह करना इलाके के लोकतांत्रिक हितों के विरुद्ध न हो। कोई ऐसा मंच बनाया जाए, जिससे कि दक्षिण एशिया में संवाद और सहयोग जड़ पकड़े, इस पर हमारी दुविधा रही है। वर्ष 1999 से भारत की ‘सीका’ (कांफ्रेंस ऑन इंटरएक्शन एंड कॉन्फिडेस-बिल्डिंग मेज़र्स इन एशिया) में भागीदारी इसी सोच पर आधारित थी। हमारी तरजीह द्विपक्षीय राजनयिक रिश्ते बनाने पर रही है, हालांकि कई बार इसका परिणाम नकारात्मक रहा, अगस्त 2021 में काबुल में जो अनुभव मिला, वही आगे चलकर श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और अब बांग्लादेश में भी पाया, इन सबने यही दर्शाया है। शायद एक दक्षिण एशियाई मंच उन पड़ोसियों में ‘चालबाज’ को बुलाने में सहायक हो, जो ‘कहीं और उपस्थिति जरूरी है’ वाली धमकी का इस्तेमाल औरों से खेल करने में करता है। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र और जल्दी ही संसार की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते, दुनिया के सामने आदर्श प्रस्तुत करने में हमारी जिम्मेवारी है कि दक्षिण एशिया का झंडा बुलंद करने में सहायक बनें।
‘दक्षिण एशिया शांति-समृद्धि-लोकतंत्र क्षेत्र’ मंच के संविधान में कम-से-कम निम्नलिखित अवयव शामिल हों :-
सबकी भागीदारी : उन नीतियों की वकालत जो असमानता घटाएं, सुनिश्चित करें कि आर्थिक विकास का लाभ इलाके के तमाम सामाजिक तबकों को मिले।
शिक्षा और नवोन्मेष : शिक्षा एवं तकनीकी नवोन्मेष की सहायता करके भारत दक्षिण एशिया को ज्ञान एवं रचनात्मकता के केंद्र में परिवर्तित करने में मददगार हो सकता है।
सांस्कृतिक कूटनीति : पड़ोसियों से संबंध मजबूत करने में भारत अपनी धरा की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहरों का फायदा उठा सकता है, इससे साझी क्षेत्रीय पहचान और एकता की भावना बनेगी।
साझी तरक्की : यह इलाका विश्व के सामने शांति, समृद्धि एवं सतत विकास के मामले में अनुकरणीय उदाहरण बने, इसके लिए सभी देश अपना योगदान करें।
संप्रभुता का सम्मान : एक-दूसरे की संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना,विवादों को सुलझाने में झगड़े की बजाय संवाद को प्रोत्साहन।
लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्धता : क्षेत्र में समान भागीदारी पर आधारित लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रोत्साहन, पड़ोसी देशों से मानवाधिकार बनाए रखने की अपेक्षा,मुक्त और ईमानदार चुनाव प्रक्रिया, पारदर्शी शासन सुनिश्चित करना और राजनीतिक प्रभाव मुक्त सेना।
सहयोग : ऐसी क्षेत्रीय परियोजनाओं में सहयोग, जिनका उद्देश्य साझी समृद्धि हो, मसलन, बुनियादी ढांचा विकास एवं स्वास्थ्य सेवाएं।
खेल : चूंकि भारत की नज़र 2036 ओलम्पिक की मेजबानी लेने पर है, हमारा साझा दृष्टिकोण हो कि दक्षिण एशिया के तमाम देशों के खिलाड़ी विजेता मंच पर खड़े दिखें, खेलों से अधिक एकता और कोई नहीं बनाता।
आपदा राहत : आपदाएं, चाहे प्राकृतिक हों या मानव-निर्मित, लगातार बढ़ती जा रही हैं, इनके लिए ऐसी राहत प्रणाली बने जो इलाके का 911 बने (अमेरिका में किसी भी किस्म की मदद पाने का टेलीफोन नंबर)।
माओ का एक कथन काफी मशहूर हुआ था : ‘पूर्व की हवा पश्चिमी पर हावी होने लगी है’और मौजूदा वैश्विक शक्ति संतुलन को लेकर टीएन नीनन का नज़रिया हैः ‘पूर्वी हवा पहले की अपेक्षा कहीं अधिक तेज होकर चल रही है’। तथापि, बतौर विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, पूर्वी हवा को अधिक प्रचंड बनाने में भारत को और अधिक योगदान करने की जरूरत है। हमारी सभ्यात्मक सोच का वैश्वीकरण हो–गैर-आक्रामक, नम्र, धमकी रहित रुख, साझेदारी एवं हमदर्दी, पूर्व एवं पश्चिम से समान दोस्ती–उस ज्ञान सहित, जिसकी प्रमाणिकता विधि मान्य है।
हमारा इतिहास गौरवशाली है। ज़ीरो के सिद्धांत के योगदान के साथ हमारी हवा पूर्व और पश्चिम, दोनों दिशाओं में चली थी। कल्पना करें कि इसके बिना संसार अब कहां होता। अब वक्त है अगली लहर उठाने का – ज्ञान-नीत। चहुं दिशाओं में छाने वाली पूर्वी हवा बनाने में दक्षिण एशिया का योगदान यह होना चाहिए कि विकास की दौड़ में जो बहुत पीछे छूट गए हैं, उन्हें हाथ पकड़कर बराबरी पर लाया जाए– भारत में, पास-पड़ोस में, संसार के दक्षिणी संभाग को भूले बिना।
* पश्चिमी सैन्य कमान के पूर्व कमांडर एवं पुणे इंटरनेशनल सेंटर के संस्थापक सदस्य
लेखक ‘द ट्रिब्यून’ के ट्रस्टी हैं।