बीते बिना टलै नहीं समय और कर्म के भोग...
सोनीपत, 23 जनवरी (हप्र)
सूर्य कवि पंडित लख्मीचंद के नाममात्र से हरियाणवी लोगों खासकर ठेठ देहातियों के कानों में उनके सर्वकालीन सांग और रागनियां गूंज उठती हैं। सोनीपत के गांव जाटी कलां में किसान पंडित उदमी राम के घर जन्म लेने वाले पंडित लख्मीचंद की 22 जनवरी को 122वीं जयंती पर उनके पैतृक गांव में भव्य समारोह का आयोजन किया गया। समारोह में भाजपा प्रदेशाध्यक्ष मोहन लाल बड़ौली बतौर मुख्यअतिथि शामिल हुए। विभिन्न लोक गायकों ने पंडित लख्मीचंद की रागनियों की प्रस्तुति से उन्हें श्रद्धांजलि दी।
हरियाणा के शेक्सपियर के नाम से मशहूर पंडित लख्मीचंद के लोक गायक बनने की कहानी काफी उतार-चढ़ाव भरी है। वे अपने पिता की दूसरी संतान थे। बाल्यावस्था में उन्हें पशु चराने के लिए खेतों में भेज दिया जाता था। पशु चराते-चराते करीब 7 वर्ष की उम्र से ही उनका झुकाव लोक गीतों की ओर होता चला गया। वह हमेशा कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते। इसी बीच उनका दाखिला स्कूल में कराया गया मगर करीब दो घंटे बाद ही स्कूल में दाखिला करवाकर वापस लौटे उनके पिता पंडित उदमी राम को शिक्षक ने दोबारा बुलाकर कहा कि बच्चे लख्मी को पढ़ाई-लिखाई की जरूरत नहीं है। यह तो सर्वज्ञानी हैं। इसके बाद पंडित लख्मीचंद कभी स्कूल में नहीं गए। मान्यता है कि उनके कंठ में साक्षात सरस्वती का वास था।
अब चौथी पीढ़ी के हाथों में पड़दादा की विरासत
पंडित लख्मीचंद अनमोल विरासत छोड़कर गए हैं। उनकी इस विरासत को आगे बढ़ाने में उनके बेटे पंडित तुलेराम की खास भूमिका रही। पंडित तुलेराम की मृत्यु के बाद तीसरी पीढ़ी में उनके बेटे पंडित विष्णु दत्त और चौथी पीढ़ी में विष्णु के बेटे चेतन कौशिक उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। मगर उन्हें इस बात का अफसोस है कि आज की नयी पीढ़ी हरियाणावी संस्कृति से दूर होती जा रही है। यही वजह है कि सांग और रागनियों में उनकी रूचि नहीं। उनकी सरकार से मांग है कि इस कला को बढ़ावा देने के लिए ठोस कदम उठाएं।