केंद्रीय बजट से ही सुधरेगी किसान की दशा
कुछ दिन पहले की बात है, महाराष्ट्र के हिंगोली ज़िले के दस कर्जदार किसानों ने वहां के मुख्यमंत्री से एक अनोखी व अद्भुत गुजारिश की। जिसके तहत उन्होंने पैसा वसूली के लिए अपने शारीरिक अंगों की नीलामी करने की इच्छा जताई। जिससे वे राष्ट्रीयकृत बैंकों को भुगतान कर सकें।
उन्होंने अपने अंग बेचने का प्रस्ताव रखा, और असल में उन्होंने बाकायदा ‘रेट कार्ड’ भी तैयार कर रखा था- लीवर के लिए 90,000 रुपये, किडनी के लिए 75,000 रुपये और एक आंख के 25,000 रुपये। इस अजीबोगरीब प्रस्ताव से महाराष्ट्र विधानसभा में हंगामा अवश्य हुआ, लेकिन कुछेक दिनों बाद ही सब भुला दिया। त्रासदी यह है कि जो बात कृषि संकट को प्रकट करे उसे इतनी आसानी से अनदेखा कर दिया जाता है। यह भी ऐसे में जब बकाया कर्ज न चुका पा सकने वाले कार्पोरेट, यहां तक कि वे ऐसा करने की स्थिति में होते हैं, तो भी न केवल राजनीतिक नेतृत्व बल्कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) भी उनको सुरक्षा घेरा प्रदान कर देता है।
कुछ माह पूर्व की घटना है, 16,044 जानबूझकर डिफाल्टरों के साथ समझौता करने को लेकर आरबीआई ने रक्षा कवच की भूमिका निभाते हुए बैंकों को निर्देश दिया था जिन्हें बैंकों के 3.45 लाख करोड़ रुपये का बकाया वापस करने में असफल रहने के लिए किसी भी स्थिति में जेल भेजा जाना चाहिये था। बता दें कि जानबूझकर डिफाल्टर उन्हें कहा जाता है जो अदायगी में सक्षम होते हुए भी ऐसा करने से इंकार कर देते हैं। हकीकत तो यह है कि वे बैंकिंग प्रणाली के तहत जवाबदेही से जुड़े नियम-कानूनों को ठेंगा दिखाते हैं।
इसके बावजूद्, उनके प्रति आरबीआई नरमी बरत रहा है। बारह माह के कूलिंग पीरियड के बाद बैंकों को नए कर्ज देने की भी अनुमति दी गई है। विडंबना, इन जानबूझकर डिफाल्टरों को असल में जान-बूझकर भुगतान करने में असमर्थता के कारण माफ कर दिया गया है, और फिर भी उन्हें नए कर्ज दिए जा रहे हैं, जिससे वे फिर से चूक कर सकते हैं और वापस अदायगी करने से ना-नुकुर कर सकते हैं। अब एक मिसाल कायम होने के बाद, वे कुछ सालों के बाद फिर एक और कर्ज की रकम माफी की उम्मीद करेंगे। यदि केवल आरबीआई ने कर्ज न चुका सकने वाले किसानों पर भी बैंकों को नरमी बरतने को कहा होता तो मुझे पक्का यकीन है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) साल 2022 के लिए जो रिपोर्ट दी थी उसमें से अधिकतर किसानों और कृषि श्रमिकों द्वारा किये गये सुसाइड को आसानी से टाला जा सकता था।
साल 2021 में रिपोर्ट किये गये कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं के 10881 मामलों के मुकाबले, एनसीआरबी द्वारा साल 2022 में इस क्षेत्र में सुसाइड के 3.7 प्रतिशत मामले ज्यादा दर्ज किये गये जब कुल 11290 किसानों व कृषि श्रमिकों ने घातक रास्ता अख्तियार किया। साल 2022 में जिन कुल 5207 किसानों ने अपनी जान दी, उनमें 208 महिलाएं थीं। इसी तरह सुसाइड करने वाले 6083 खेत मजदूरों में 611 महिला श्रमिक थीं। रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें अधिकतर आत्महत्याएं महाराष्ट्र, कर्नाटक व मध्य प्रदेश में हुईं। अकेले महाराष्ट्र में कुल किसान-श्रमिक आत्महत्याओं में से 38 प्रतिशत यानी 4,248 आत्महत्याएं दर्ज की गईं। यदि पहले वर्णित की गयी घटना यानी हिंगोली जिले में कुछ किसानों द्वारा प्रस्तावित शरीर के अंगों की नीलामी की रिपोर्ट के हिसाब से देखा जाए, तो महाराष्ट्र में जारी संकट तत्काल नीतिगत कदम उठाने की जरूरत बताता है। ऐसा ही देश के बाकी हिस्सों के साथ भी है, जहां कृषि संकट गहराता जा रहा है।
महाराष्ट्र के वित्त मंत्री देवेन्द्र फड़नवीस पहले ही पीएम किसान स्कीम में आवंटन दोगुना करने की घोषणा कर चुके हैं। केंद्र द्वारा किसानों को हर वर्ष दिए जाने वाले 6,000 रुपये के अलावा, महाराष्ट्र भी उतनी ही राशि देगा, जिससे आवंटन बढ़कर 12,000 रुपये सालाना हो जाएगा। कुल 1.7 करोड़ से अधिक किसानों को 1 रुपये में फसल बीमा का लाभ दिया गया है, लेकिन यह कौन सुनिश्चित करेगा कि किसानों की फसल के नुकसान के लिए बीमा कंपनी उन्हें उचित मुआवजा देगी? हमने किसानों को फसल के खराबे की क्षतिपूर्ति के रूप में 15 रुपये, 100 रुपये, 200 रुपये आदि भुगतान की रिपोर्ट देखी है। फसल बीमा को किसानों के लिए एक बड़े लाभ के रूप में पेश किया जाता है, लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि 2016 में योजना शुरू होने के बाद से निजी बीमा कंपनियां 57,619 करोड़ रुपये का मुनाफा बटौर चुकी हैं। वास्तव में, पीएम फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) एक ऐसी बड़ी योजना लगती है जो बीमा कंपनियों के लिए बड़ा मुनाफा यकीनी बनाती है। फिर भी, इधर-उधर की बातों से काम नहीं चलने वाला। महाराष्ट्र को समुचित नीतियों और संबंधित प्रोत्साहनों के एक वैकल्पिक पैकेज की आवश्यकता है जो पुनर्जीवित कृषि का बीज बो सके। आख़िरकार, यदि गन्ने का मात्र 4 प्रतिशत क्षेत्र 70 प्रतिशत भूजल खींच सकता है, तो जब तक जल संतुलन ठीक नहीं हो जाता, तब तक खेती के पुनर्निर्माण में सहायता कैसे मिलेगी? लेकिन बड़ा सवाल यह है कि पानी की ज्यादा खपत वाले गन्ने के क्षेत्र को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की बात करने की राजनीतिक हिम्मत किसमें होगी? यह सिर्फ एक असंतुलन है जो किसी भी खेत की आर्थिक व्यवहार्यता से संबंधित है।
देशभर में ग्रामीण मजदूरी में गिरावट आई है, और यहां तक कि सकल कृषि मूल्यवर्धन (जीवीए) भी वित्त वर्ष 2012 के बाद से सबसे कम रहा है, जिससे ग्रामीण उपभोग में कमी आई है। हम जो आर्थिक तेजी देख रहे हैं वह शीर्ष के 10 फीसदी लोगों के हाथों में केंद्रित है। इसे ज़्यादातर ऑटोमोबाइल बिक्री के नजरिये से देखा जाता है। महानगरों में जहां चौपहिया वाहनों की बिक्री बढ़ रही है, वह भी लग्जरी सेग्मेंट में सबसे ज्यादा वृद्धि पर है, वहीं दोपहिया वाहनों की बिक्री अभी भी रफ्तार नहीं पकड़ रही है। आम तौर पर यह उम्मीद की जाती है कि ग्रामीण मजदूरी में वृद्धि के बाद ही ग्रामीण आबादी साइकिल से स्कूटर-मोटरसाइकिल की ओर स्थानांतरित होती है।
जैसा कि एनसीआरबी का मानना है, बढ़ती सुसाइड दर के मूल में कृषि संकट प्राथमिक कारण है। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्र की मांग सुस्त बनी हुई है। शायद बिगड़ते कृषि परिदृश्य का बेहतर प्रतिबिंब सबसे अमीर व्यापारिक ब्लॉक, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) की नवीनतम रिपोर्ट से मिलता है। ओईसीडी के 38 सदस्यों सहित 54 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में कृषि क्षेत्र के विश्लेषण में, अध्ययन से पता चलता है कि भारत में किसानों पर वर्ष 2000 से लगातार कर लगाया जा रहा है। हालांकि कुछ देश ऐसे हैं जहां कृषि नकारात्मक क्षेत्र में है लेकिन इन सभी देशों ने कृषि घाटे को बजटीय मदद से पूरा कर लिया है।
लेकिन भारत में बजट प्रदत्त मदद कृषि आय में लगातार जारी गिरावट को पूरा करने में असफल रही है। सरल तरीके से कहें तो इसका मतलब है कि जबकि वार्षिक बजट के जरिये जहां अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को भरपूर मदद प्रदान की गयी, केवल कृषि ही ऐसा क्षेत्र था जिसे भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। इसके साथ ही, अध्ययन स्पष्ट तौर पर यह स्थापित करता है कि सालों तक विभिन्न योजनाओं को लागू करने के बावजूद कृषि के लिए बजटीय मदद खेती करने वाले समुदाय को लाभदायक आय प्रदान करना यकीनी बनाने में असफल रही है। आर्थिक संजाल इतनी चतुराई से रचा गया कि किसान को अन्नदाता कहकर प्रचारित किया गया लेकिन उन्हें सहायता के रूप में जो मिलता है वह नाममात्र का होता है। यही प्रमुख कारण है कि कृषि का सभी समस्याओं से दो-चार होने का संघर्ष जारी है और हर बीतते साल के साथ केवल संकट का स्तर बढ़ता ही जाता है।
जैसे कि मैं बार-बार दोहराता हूं : किसानों को जुताई करते वक्त इस सच्चाई का कम ही अहसास होता है कि वे असल में घाटे के लिए खेती कर रहे हैं।
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।