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समकालीन समाज का जटिल स्वरूप

08:12 AM Oct 13, 2024 IST
समकालीन समाज का जटिल स्वरूप
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डॉ. चन्द्र त्रिखा

पुस्तक : त्रिशंकु की शंका और समकालीन भारत, 1950-2023 लेखक : दीपक कुमार प्रकाशक : आकार बुक्स, दिल्ली पृष्ठ : 300 मूल्य : रु. 795.

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एक बुद्धिजीवी के लिए यह स्वयं को और अपने परिवेश को परिभाषित करने का समय है। कुछ दशक पूर्व एक ‘आत्म-परिभाषा’ गढ़ी गई थी, जिसका निचोड़ यही था, ‘हम ‘पैन’ पूंजी और ‘प्रेस’ की गिरफ्त में हैं।’ अब एक प्रबुद्ध लेखक एवं विचारक, दीपक कुमार ने ‘समकालीन भारत 1950-2023’ के कालखंड को पौराणिक पात्र त्रिशंकु के माध्यम से परिभाषित करने का प्रयास किया है।
लगभग 300 पृष्ठों वाली इस कृति के माध्यम से लेखक ने ‘समकालीन भारतीय जीवन की परतों को उजागर’ करने का भरसक प्रयास किया है। विचार-प्रधान इस लेखक ने एक ‘ड्रोन’ की तरह इस कालखंड (1950-2023) की ‘शब्दोग्राफी’ की है। ‘शब्दोग्राफी’, वीडियोग्राफी और रिकार्डिंग का नया रूप है। इन 10 आलेखों में ‘मुफस्सिल का आनंद’, ‘बदलाव की आंधी’, ‘ज्ञान की अवहेलना’, ‘महानगरीय विषमताएं’, ‘वर्तमान 2014-23’ आदि विशेष रूप से पठनीय और विचारणीय हैं।
इस कृति की प्रस्तावना में अपने विशिष्ट मकसद को लेखक ने स्पष्ट किया है। ‘अपनी सभ्यता के सम्पूर्ण विकासक्रम में भारत ने प्रत्येक सरलीकृत श्रेणीकरण को खारिज किया है। यह लचीलापन हमेशा हमारी महान शक्ति रहा है और प्रायः असंख्य समस्याओं के लिए जिम्मेदार भी। न केवल उपनिषदों में, बल्कि हमारी सभ्यता के मिथकीय संसार में भी हम ऐसी परिस्थितियों का विवरण पाते हैं, विशेष रूप से मिथकीय राजा त्रिशंकु की कहानी, जिसका शरीर स्वर्ग और धरती के बीच लटका रहता है, रूपक के रूप में विचारणीय हो सकती है।’
कुल मिलाकर, दीपक कुमार की शैली इस कृति के अवलोकन एवं पाठ को दिलचस्प बनाती है। यद्यपि पुस्तक का मूल्य कुछ अधिक है, लेकिन इसे पढ़ना आवश्यक ‘सा’ लगता है।
नियंत्रण, ‘पैरवी’ और ‘अतिरिक्त’ के अलावा एक और तत्व लोकप्रिय हुआ—काम (किसी भी तरह) निकालना है। घर हो या बाहर, हर जगह इस नई प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। यह प्रवृत्ति कई बार डर का रूप ले लेती है। लोग हमेशा चिल्लाते हैं—‘पहचान का इस्तेमाल करो’, ‘मौके का फायदा उठाओ’, ‘काम निकालो’ इत्यादि। अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए लोग हर तरह के आधे सच, आधे झूठ और पूरे झूठ का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन कभी पूरे सच का साथ नहीं लेते।
इस संकलन के आलेख ‘मुफस्सिल का आनंद’ में लेखन ने एक समसामयिक तथ्य की ओर इशारा किया है। कुल मिलाकर, यह एक पठनीय एवं चिंतनशील कृति है।

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