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पूरब और पश्चिम में बदलता शक्ति संतुलन

08:19 AM May 24, 2024 IST
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टीएन नाइनन

पश्चिमी जगत और बाकी की दुनिया के बीच बढ़ते जा रहे मुकाबले में, अब यह स्पष्ट है कि भले पश्चिम के हाथ में अभी भी अधिक ताकत हो किंतु वह कमजोर पड़ता जा रहा है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में, अमेरिका की नौसेना का रुख अब ‘दबदबे’ वाली भूमिका से बदलकर ‘प्रतिरोधक’ में तब्दील हो गया है। आर्थिक परिधि में भी, अमेरिका का रवैया आक्रामकता से (तकनीक पर प्रतिबंध, व्यापार पर रोक और आर्थिक नाकाबंदी) से बदलकर रक्षात्मक (अमेरिकी बाजार में आयातित वस्तुओं पर अतिरिक्त कर लगाना) हो गया है। और यूक्रेन को मिला पश्चिमी समर्थन रूस को नहीं रोक पाया। माओ ने शायद समय से पहले ही घोषणा कर दी थी : ‘एक दिन पूरब की हवा पश्चिमी वायुमंडल पर छा जाएगी।’ और अब यह होना शुरू हो गया है।
सालों तक, पश्चिमी विश्लेषकों और पत्रकारों ने चीन और रूस को पढ़ने में चूक की है। रूस को तो वे आर्थिक रूप से बहुत कमजोर मानते रहे और व्लादिमीर पुतिन को राजनीतिक रूप से चुनौती देने लायक समझते रहे। दशकों पहले चीन के भरभराकर ढहने की भविष्यवाणी भी की गई थी और हाल में उसे समस्याओं से घिरा बताते रहे। फिर भी रूस ने पश्चिमी प्रतिबंधों का अप्रत्याशित रूप से डटकर सामना किया, यूक्रेन में उसका हाथ ऊपर है और पुतिन ने एक बार फिर चुनाव में कार्यकाल अर्जित किया। इसी दौरान, तुलनात्मक आय स्तर वाली अर्थव्यवस्थाओं में चीन सबसे तेजी से बढ़ती आर्थिकी बना रहा।
अमेरिका द्वारा चीन से आयातित कुछ वस्तुओं पर लगाए करों में तीखी वृद्धि पूर्ण-स्तरीय व्यापार युद्ध को चालू करने का बायस नहीं बन पाई क्योंकि इसके निशाने पर वह वस्तुएं हैं जिनकी बिक्री चीन अमेरिका में ज्यादा नहीं करता। इसलिए यह प्रतीकात्मक कदम मुख्यतः राष्ट्रपति बाइडेन के घरेलू राजनीतिक हितों को साधने की गरज है। भले ही चीन निशाने पर ली गई इन वस्तुओं में बहुतों का बड़ा उत्पादक है लेकिन वह अपने माल के लिए अन्य मंडियां तलाश लेगा। बल्कि यह अमेरिकी आयातक हैं जिनके पास कुछ वस्तुओं को मंगवाने के वैकल्पिक स्रोत नहीं हैं, फिर चीन तीसरे देश में लगाए अपने कारखानों की मार्फत इन वस्तुओं को अमेरिका पहुंचा सकता है। इसी बीच, अमेरिकी उपभोक्ता महंगा माल खरीदने के लिए विवश रहेंगे।
इस प्रकार के रक्षात्मक खेल (जो कि भारी सब्सिडी देकर अमेरिकी उत्पादकता को फिर से जिंदा करने का दूसरा पहलू है) पहले अपनाए गए आक्रामक रुख के विपरीत है। उम्मीद यह थी कि उक्त आक्रामक कदम अमेरिका के दुश्मनों की घेराबंदी करेंगे। कोई शक नहीं कि प्रतिबंधों से चुभन होती है (जैसा कि हमेशा प्रतिबंधों के मामले में होता है) लेकिन इसका असर आंशिक रहा। रूस ने अपने तेल एवं गैस के लिए नए ग्राहक ढूंढ़ लिए जबकि पूरबी यूरोप को अपनी ऊर्जा जरूरतों के अहम स्रोतों के तौर पर सस्ती रूसी गैस से हाथ धोना पड़ा, जिससे जर्मनी जैसे मुल्क की भी आर्थिकी हिल गई। इसी बीच, रूसी अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी होती गई।
रूस और चीन, दोनों ने भुगतान का नया तरीका विकसित कर लिया और इससे डॉलर पर निर्भरता न रही (अब इनका 95 फीसदी व्यापार स्थानीय मुद्रा में हो रहा है), यहां तक कि एक अलग ‘स्विफ्ट’ नामक बैंकिंग संचार प्रणाली भी विकसित कर ली है। रूस के रिजर्व खजाने में आज डॉलर के मुकाबले चीनी मुद्रा रेनमीबिस का भंडार अधिक है। उधर चीन अपना धन सोने में बदल रहा है, जिसके लिए पिछले 18 महीनों में भारी स्वर्ण खरीदारी की है। भले ही पीपुल्स बैंक ऑफ चाईना का वर्तमान 2,250 टन सोना कुल रिजर्व भंडार का 5 प्रतिशत से भी कम है, लेकिन आज तक की तारीख तक यह मात्रा सबसे अधिक है।
जहां तक तकनीक का मामला है, किसी अन्य देश के मुकाबले चीन इस क्षेत्र में अधिक तेजी से तरक्की कर रहा है। स्वच्छ ऊर्जा, सौर ऊर्जा और लिथियम बैटरी से चालित वाहन या अन्य उपकरणों में प्रयुक्त इस विशेष जरूरत की आपूर्ति के मामले में चीन बाकी देशों से कहीं आगे है और कुछ मंडियों में अपनी धाक बना चुका है। अब वह इलेक्ट्रॉनिक्स, लाइफ साइंस और रक्षा उत्पादन क्षेत्र में नई खोज के बूते लंबी छलांग लगाने में सक्षम है।
उदाहरणार्थ, हुआवे ने हाल ही में 7 नैनोमीटर वाली चिप से युक्त अपने नए स्मार्ट फोन से पश्चिमी जगत को चौंका डाला और अब 5 नैनोमीटर वाली चिप तैयार करने पर काम चल रहा है। उसने अगले साल तक चिप निर्माण में 75 फीसदी आत्मनिर्भरता पाने का लक्ष्य रखा है। इसी बीच, पश्चिमी देशों की दवा उत्पादक कंपनियों ने भी शंघाई के निकट सुज़होऊ में बायो-बे जैसे विशालकाय नवोन्मेषण केंद्र में बायोफार्मा और लाइफ साइंस में हो रही तरक्की के बूते चीन की उभरती सरदारी को मान्यता दी है। रक्षा क्षेत्र में, चीन अपना चौथा विमानवाहक पोत बना रहा है जो शायद परमाणु ऊर्जा चालित होगा, यह एक अन्य तकनीक बाधा लांघने का प्रतीक है। सच्चाई यह है कि चीन के तकनीक विकास रथ को रोकने में बहुत देर हो चुकी है।
रक्षा मोर्चे पर, पश्चिमी टिप्पणीकारों को इस संभावित उलटफेर की चिंता सता रही है कि कहीं रूस यूक्रेन में अपने मंसूबों में सफल हो गया तो आगे बाकी अर्ध-बर्बाद देश को न कब्जा ले। यदि डोनाल्ड ट्रंप की वापसी बतौर राष्ट्रपति हो गई और उन्होंने नाटो संगठन से किनारा करने की अपनी पूर्व धमकी पर अमल कर डाला, तो हालात और बदतर हो सकते हैं। मानव संसाधन, उपकरण, युद्धक सक्षमता और उत्पादक क्षमता में अत्यधिक तंगदस्ती के चलते समूचा यूरोप शीतयुद्ध काल के बाद से लेकर आज के वक्त तक, एकाएक खुद को अधिक जोखिम में महसूस करने लगा है। यूरोपियन देशों का रक्षा बजट पिछले कुछ सालों से सकल घरेलू उत्पाद के तयशुदा ऊपरी अधिकतम स्तर यानी 2 फीसदी को छू गया है। लेकिन अमेरिकी मदद के आश्वासन के बिना यूरोप को व्यवहार्य रक्षा निर्भरता बनाने में कम से कम एक दशक का वक्त लगेगा– इसमें अमेरिका प्रदत्त परमाणु सुरक्षा चक्र का जिक्र नहीं है।
वहीं इसके मुकाबले, रूस और चीन परस्पर सहयोग बनाने में अग्रसर हुए हैं और विश्व में अन्य जगहों पर राजनयिक रूप से नंबर बनाने में सफल हुए हैं। सीरिया में रूस ने सफलतापूर्वक अपना पत्ता चला है और अब वह ईरान से ड्रोन प्राप्त कर रहा है। पिछले साल चीन ने मध्यस्थता करके ईरान और सऊदी अरब के बीच रिश्तों को सामान्य बनवाया। जहां अफ्रीका में चीन इस महाद्वीप के मुल्कों की धन संबंधी जरूरत पूरा करने में अमेरिका से ज्यादा पैसा दे रहा है वहीं एक के बाद एक देश फ्रांसिसी और अमेरिकी सैनिकों को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं और उनकी जगह रक्षा के लिए रूसी सैनिकों को आमंत्रित कर रहे हैं। यहां तक कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में भी, वे मुल्क जिनकी अर्थव्यवस्था चीन से जुड़ी हुई है और इस रिश्ते में इजाफा हो रहा है, वे अमेरिका और चीन के बीच चुनाव करने में भेद नहीं करना चाहते। जैसा कि यूक्रेन को दिए जाने हथियारों के मामले में देखने को मिला, अमेरिका ने अपने रवैये से बार-बार दिखा दिया है कि वह एक गैर-भरोसे योग्य मददगार है।
पश्चिमी टिप्पणीकार इस तर्क से दलील देते हैं कि चूंकि लंबे अर्से से चीन का एकमेव ध्येय अपने व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति करना है और इसके लिए तगड़ी सरकारी सहायता देकर उद्योगों को बढ़ावा दे रहा है और अपनी मुद्रा की कीमत में इजाफा किए बगैर अन्य देशों के साथ बहुत बड़ा व्यापारिक आयात-निर्यात असंतुलन पैदा कर रहा है इसलिए देर से सही उसने पश्चिमी जगत को प्रतिरोधक उपाय करने को जगाया है। यह सही भी है। किंतु जो बात वे साथ नहीं जोड़ते वह यह कि चीन के पास अपनी अति प्रतिस्पर्धात्मक घरेलू मंडी है। उदाहरणार्थ, चीन के भीतर, इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाली और कुछ नहीं तो 135 कंपनियां हैं। जाहिर है जो सबसे योग्य होगा वह बचेगा, इसलिए दुनियाभर में बीवाईडी अग्रणी इलेक्ट्रिक कार कंपनी बनने काे अग्रसर है।
तथापि यदि माल खपाने के लिए बड़ी मंडियों से महरूम कर दिया जाए तो चीनी उत्पादक कंपनियों की क्षमता के लिए यह बाधा एक बड़ी चुनौती हो जाएगी। किंतु भारत का अनुभव बताता है, उच्च आयात कर की दीवार खड़ी करके भी चीनी माल को आने से नहीं रोका जा सकता। आज की दुनिया में, चाहे विषय रक्षा का हो या तकनीक की तरक्की का या फिर उत्पादकता एवं व्यापार की ताकत का या राजनयिक चतुराई– संक्षेप में कहें तो वैश्विक शक्ति संतुलन– पूर्वी हवा की ताब पहले से कहीं अधिक है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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