For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

पंजाब को चाहिए सर्वांगीण विकास का दृष्टिकोण

06:38 AM Jun 26, 2024 IST
पंजाब को चाहिए सर्वांगीण विकास का दृष्टिकोण
Advertisement

Advertisement

गुरबचन जगत
(मणिपुर के पूर्व राज्यपाल)
कुछ दिन पहले मैं किताबों की दुकान पर यह देखने गया कि नया क्या आया है। मैंने कुछ किताबें चुनीं और बाहर निकलने ही वाला था कि एक युवा महिला कहने लगी कि वह मुझ से कुछ बात करना चाहती है। मैं उसे और दिल्ली में उसके परिवार को बहुत अच्छी तरह जानता हूं। वह काफी उद्वेलित लग रही थी और उसने सीधे मुझसे सवाल दागा कि लोकसभा चुनाव में अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा की जीत के पंजाब के भविष्य को लेकर क्या मायने हैं। मैंने उसका डर दूर करने की कोशिश की, लेकिन पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाया। किताबों की दुकान जैसे सौम्य माहौल में हुई इस दोस्ताना बहस ने मुझे हिला दिया और अचानक शुरू हुए इस संवाद से पैदा हुई विचार प्रक्रिया को मैंने झटकने का प्रयास किया। मैं घर पहुंचा, तभी रिश्ते में अग्रज लगते भाई का फोन आया, जो सेना में ऊंचे ओहदे से एक सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और इन दिनों पंजाब में बसे हुए हैं। उन्होंने भी पूछा कि पंजाब में क्या चल रहा है। मैंने उन्हें भी नरमी भरी बातों से इस चिंता से निकालने की कोशिश की और सुझाव दिया कि वे और उनकी पत्नी कुछ दिनों के लिए कहीं घूम आएं। अगले कुछ दिनों तक मुझे पंजाब से रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों की अनेक फोन कॉल्स आईं, सब एक जैसे सवाल पूछ रहे थे, आधी गंभीरता, आधे उत्साह युक्त। पंजाब में एक दशक तक चली हिंसा की सुनामी के वक्त भी, सतह के नीचे, चिंता की तरंगें थीं। तो क्या गुजरा अतीत, वर्तमान और भविष्य बनने जा रहा है?
हिंसा की उस कहानी को पकने में कई साल लगे थे और मैं उनमें एक हूं जिन्होंने अपनी आंखों से इसे आगाज़ से अंत तक घटित होते देखा। आम धारणा के विपरीत, अंतिम काली छाया तक पहुंचने से पहले, इसने विकसित होने में कई साल लिए थे और इस बुरी कहानी के नाटकीय पात्र सर्वविदित हैं। शतरंज की बिसात पर मोहरे चलाने वाली राजनीतिक और सामाजिक शक्तियों के बारे में भी सबको पता है, लेकिन ग्रीक कहानियों में त्रासदी की नियति की भांति हम भविष्य के वक्त की चाल को देख तो सकते हैं लेकिन दखल देकर उसकी धारा को मोड़ नहीं दे सकते और त्रासदी है कि वह अपनी राह पर चलते हुए, रक्तरंजित अंजाम को पा जाती है। यह सब बहुत पहले की बात नहीं है और जनता की याद‍्दाश्त वैसे भी कमज़ोर होती है... तो क्या हम फिर पुनरावृत्ति की राह पर हैं? मैं यह तो नहीं कहना चाहूंगा लेकिन फिर सरकार चुप क्यों हैं? राजनीतिक दल क्यों चुप्पी साधे हुए हैं? मीडिया किसलिए मूक है और सिविल सोसायटी भी चुप क्यों हैं? कहां से आये हैं ये दो लोग और किस प्रकार संसद के सदस्य तक चुन लिए गये हैं? यही वक्त है ऐसे सवाल पूछने का और यही समय है जब सरकार और राजनीतिक दल इनके जवाब दें। आज की तारीख में लगता है राजनीतिक दलों का एक ही ध्येय है – संसद, विधानसभा, नगर निकाय और पंचायत के चुनाव लड़ना और जीत पाना। उनकी एकमात्र इच्छा सभी स्तरों पर ताकत हासिल करना है, बगैर किसी जवाबदेही के। सरकार को अब तक पता होना चाहिए था कि लोग चिंतित हैं, पंजाब में क्या हुआ, इन चुनावी नतीज़ों की व्याख्या करने को उसे मूल कारण तक गहरे उतरना चाहिए, यहां तक कि कंगना रनौत थप्पड़ कांड में भी।
पिछले दो दशकों में सरकारें बनीं और गईं, लेकिन उनमें किसी एक ने भी 1980 और 1990 के दशक में जो कुछ हुआ, उसकी वजहें जानने की कोशिश नहीं की, और न ही कोई सबक लिया। किसी सरकार ने युवाओं की शिक्षा, रोजगार, बुनियादी ढांचा विकास और उद्योग स्थापना के लिए बृहद योजना नहीं बनाई। कहने का अर्थ यह नहीं कि पंजाब में कोई विकास नहीं हुआ। हरित क्रांति और इसके बाद के सालों ने पंजाब को सुनहरे दिन दिए और भारत को अन्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया। एक आईआईटी, एक आईएमएम, एक उच्चकोटि का मेडिकल शिक्षा संस्थान और सड़क तंत्र जरूर बना है लेकिन यह बहुत कम और बहुत देर से हुआ और अधिकांश अंदरूनी ग्रामीण इलाका आज भी पुरानी पड़ चुकी कृषि अर्थव्यवस्था और बंटवारे के बाद छोटे होते खेतों से घटती कमाई के चक्र में फंसा हुआ है, जिससे किसान के सिर पर भारी कर्ज चढ़ जाता है और वे आत्महत्या तक कर लेते हैं। रोजगार के स्रोत जैसे कि सशस्त्र सेना में भर्ती भी सिकुड़ी है, लिहाजा विदेशी मुल्कों की ओर बड़े पैमाने पर युवाओं का पलायन हो रहा है। इसके चलते नौजवान और बड़ों में रोष सुलग रहा है जिसका दोहन अतिवादी तत्व कर सकते हैं। राजनेताओं की प्रवृत्ति झूठे वादे, मुफ्त की रेवड़ियां बांटने और मिथ्या आंकड़ों से बहलाने की होती है, इससे स्थिति और बिगड़ती है– वे किसे बेवकूफ बनाने का प्रयास कर रहे हैं? नशे का सेवन पूरे देश में आम हो चला है और देशभर में इसकी रोकथाम के रूप में महज यहां-वहां की जा रही छापेमारी है या छोटी मछलियां पकड़ी जाती हैं। नशा माफिया का एक भी बड़ा व्यापारी या इसमें पूंजी लगाने वाला गिरफ्तार नहीं हुआ है।
मुख्यधारा के राजनीतिक दल निरंतर धुर-दक्षिणपंथियों के लिए मैदान खाली छोड़ रहे हैं। हालिया लोकसभा चुनाव में, शिरोमणि अकाली दल का वोट शेयर घटकर 13.4 फीसदी रह गया। हालांकि 18.5 प्रतिशत वोटों के साथ भाजपा की कारगुजारी भी कोई बढ़िया नहीं रही। अकाली दल का प्रदर्शन 2022 के विधानसभा चुनाव में पाए 18.3 फीसदी वोटों से नीचे गिरा है। मैंने अकाली दल का नाम इसलिए लिया क्योंकि यह वह दल है जिसने कभी पंजाबी सूबा मोर्चा जैसे आंदोलन चलाए और कांग्रेस के बाद देश की दूसरी सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है। दिवंगत प्रकाश सिंह बादल पांच बार मुख्यमंत्री बने और कद्दावर शख्सियत थे जिन्होंने राजनीतिक मुद्दों पर अपना अडिग रुख कायम रखते हुए अनेक बार जेलें काटी, इनमें इमरजेंसी से लेकर सतलुज-यमुना लिंक नहर को लेकर चलाए आंदोलन भी शामिल हैं। हालांकि अतिवादियों के दबदबे वाले 1980 और 90 के कालखंड में उनकी पार्टी ने भी अन्य मुख्यधारा दलों की भांति मूक-दर्शक बने रहना चुना था, जिससे कि सारा मैदान अतिवादियों के लिए खुला छूट गया। इससे आगे, आतंकवादियों के निर्देशों का पालन करते हुए उनकी पार्टी ने 1992 में हुए विधानसभा चुनाव का बहिष्कार किया था।
इसी प्रकार, हालिया इतिहास के सबसे बड़े किसान आंदोलन के वक्त कांग्रेस और उसका नेतृत्व नदारद रहा, जब दिल्ली में बनाई गई कृषि नीतियों के विरोध में पंजाबी किसानों ने मोर्चा लगाया। पंजाब जैसे कृषि प्रधान सूबे में इस किस्म की अनुपस्थिति दर्ज करवाकर कांग्रेस ने एक प्रकार से राजनीतिक आत्महत्या की है। बाद में, इसका सत्यापन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार के रूप में हुआ (आगे चलकर राज्यस्तरीय नेता भाजपा में चले गए)। उस समय पंजाबियों ने स्थापित राजनीतिक दलों और परिवारों को नकार दिया और आम आदमी पार्टी को मौका दिया। ‘आप’ हालांकि कोई विशेष प्रभाव नहीं बना पाई और इसका पता लोकसभा की 13 सीटों में केवल 3 पर मिली जीत से चलता है। इसका वोट शेयर 2022 के विधानसभा चुनाव में मिले 45 फीसदी मतों से घटकर लोकसभा चुनाव में 26 फीसदी रह गया। कहने का भाव यह कि मुख्यधारा के दल अपना जनाधार अमृतपाल जैसों के मुकाबले खोते जा रहे हैं, जिससे राजनीतिक बहसें तीखी और अतिशयी बन रही हैं। यह लगभग वैसा है जब अतिवादियों के फरमान का पालन करते हुए मुख्यधारा दलों को चुनाव का बहिष्कार करना पड़ा था। यह स्थिति सूबे और इसके लोगों के हित में नहीं है।
अब जबकि धुर दक्षिणपंथी अपने पुराने शबाब में लौटते दिखाई दे रहे हैं, पंजाब और भारत में सुरक्षा और शांति को खतरा बनेगा, नाना प्रकार की साजिश कथाएं फैलेंगी और अगर वक्त रहते सड़न को नहीं रोका तो जिस शांति को स्थापित करने में दशक लगे वह जाती रहेगी। इस सड़न के कारक हालांकि हकीकत से जुड़े हैं क्योंकि बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा के मुद्दों पर ध्यान देने से बचा जा रहा है। विकास सूचकांक में पंजाब काफी वर्ष पहले अपना अगुआई वाला स्थान गंवा चुका है और अब विकास एवं संवृद्धि के लगभग तमाम पैमानों पर निचली श्रेणी के सूबों के साथ अवस्थित है। राजनेता आग से खेल सकते हैं लेकिन किस कीमत पर? यही वक्त है जब मुख्यधारा के दल जोर लगाएं और लोगों को साथ जोड़कर अपनी गंवाई जमीन पुनः प्राप्त करें। परंतु आप लोगों को तभी जोड़ पाएंगे यदि आपके पास पूरे सूबे की भलाई के लिए दूरदृष्टि, ऐसा समावेशी नजरिया हो जो सभी नागरिकों के लिए तमाम मोर्चों पर नियोजित विकास करने वाला हो।

लेखक द ट्रिब्यून के ट्रस्टी हैं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement