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वैदिक शिक्षा व गुरुकुलों की  पुन: प्राण-प्रतिष्ठा के सूत्रधार

09:15 AM Feb 19, 2024 IST

चेतनादित्य आलोक
राष्ट्र की एकता, अखंडता, सामाजिक पुनर्निर्माण, सांस्कृतिक पुनरुत्थान, वैदिक शिक्षा प्रणाली की पुनर्स्थापना तथा स्वतंत्रता में स्वामी श्रद्धानंद जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे दलितों को उनका अधिकार दिलाने और पश्चिमी शिक्षा प्रणाली की देश से विदाई करने आदि जैसे अनेक महत्वपूर्ण लक्ष्यों के लिए सतत प्रयासरत रहे। राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर देने वाले महान विभूति स्वामी श्रद्धानंद महाराज के योगदानों को नहीं भुलाया जा सकता।
स्वामी जी के व्यक्तित्व का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विलक्षण पहलू उनका हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच समान रूप से लोकप्रिय होना और उनका सर्वमान्य नेता बने रहना था। ध्यान रहे कि उस दौर में देश के विभिन्न समुदायों विशेषकर हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच एकता, प्रेम और भाईचारे की मिसाल कायम करना एक असंभव-सा प्रतीत होने वाला कार्य था, जिसे स्वामी श्रद्धानंद ने अपने सहज, स्नेहिल एवं संयमित व्यक्तित्व के माध्यम से संभव कर दिखाया था।
स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म 22 फरवरी, 1856 को पंजाब के जालन्धर जिलांतर्गत तलवान ग्राम के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता लाला नानकचन्द ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स यानी आज के ‘उत्तर प्रदेश’ में एक पुलिस अधिकारी के रूप में कार्यरत थे। उनके बचपन का नाम ‘वृहस्पति’ और ‘मुंशीराम’ था। वृहस्पति की तुलना में मुंशीराम नाम अधिक सरल होने के कारण सहज ही प्रचलित हो गया। पिता का स्थानांतरण अलग-अलग स्थानों पर होते रहने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा बाधित रही। काशी विश्वनाथ मंदिर में जन साधारण के लिए प्रवेश निषेध होने, जबकि रीवा की रानी के लिए मंदिर के कपाट खोले जाने तथा एक पादरी के व्यभिचारों को देख मुंशीराम का धर्म से विश्वास उठ गया था। उसी दौरान आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे।
पुलिस अधिकारी नानकचन्द अपने पुत्र मुंशीराम के साथ उनका प्रवचन सुनने पहुंचे, जहां स्वामी दयानन्द के तर्कों और आशीर्वाद का मुंशीराम पर अत्यंत चमत्कारी प्रभाव हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप मुंशीराम के मन में वैदिक धर्म एवं परमात्मा के प्रति दृढ़ विश्वास जागा। मुंशीराम का विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ संपन्न हुआ, लेकिन उन्हें पत्नी का साथ अधिक दिनों तक नहीं मिल पाया। सन‌् 1891 में महज 35 वर्ष की आयु में ही श्रीमती शिवा देवी का देहांत हो गया। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। मुंशीराम श्रीराम भक्त हनुमान जी के भक्त थे। अपने गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित होकर उन्होंने आजादी और वैदिक-धर्म के प्रचार हेतु प्रचंड रूप में आंदोलन खड़ा किया। स्वामी श्रद्धानंद का विचार था कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं चरित्रवान‌‌‌् नहीं होते उसकी दशा अच्छी हो ही नहीं सकती। उनका कहना था कि हमारे यहां शिक्षक हैं, प्रोफेसर हैं, प्रधानाचार्य हैं, उस्ताद हैं, मौलवी हैं, पर आचार्य नहीं हैं। ‘आचार्य’ से उनका तात्पर्य ‘आचारवान‌् व्यक्ति’ होना था।
सन‌् 1897 में उन्होंने अपने पत्र ‘सद्धर्म प्रचारक’ द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्धार का प्रबल आन्दोलन आरम्भ किया। 30 अक्तूबर, 1898 को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, 1898 में पंजाब स्थित केंद्रीय संगठन ‘आर्य प्रतिनिधि सभा’ ने गुरुकुल प्रारंभ करने का प्रस्ताव स्वीकार किया। उसके बाद दुःसाध्य परिश्रम, अनवरत उद्योग एवं एकमेव निष्ठा के बल पर मुंशीराम ने गुरुकुल प्रारंभ करने हेतु अपेक्षित 30 हजार रुपये इकट्ठा करने का असंभव प्रतीत होने वाला कार्य महज आठ महीने में ही पूरा कर लिया। तत्पश्चात‍् 16 मई, 1900 को सभा की ओर से पंजाब के गुजरांवाला में एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना की गयी, किन्तु मुंशीराम जी को यह स्थान उपयुक्त नहीं लगा। दरअसल, वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र ‘उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत‌्’ (26.15) से प्रेरित होकर नदी एवं पर्वत के सान्निध्य में गुरुकुल की स्थापना करना चाहते थे।
उसी समय बिजनौर के एक धनाढ्य मुंशी अमन सिंह ने मुंशीराम को उक्त कार्य के लिए 1200 बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम और 11 हजार रुपये भी दान में दिये। हिमालय की उपत्यका में गंगा तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि मुंशीराम को गुरुकुल के लिए आदर्श प्रतीत हुई। जिसके उपरांत चार मार्च, 1902 को होली के दिन गुरुकुल को गुजरांवाला से कांगड़ी लाकर पुनर्स्थापित किया गया। उसके बाद से मुंशीराम लगातार कांगड़ी में ही रहे। कांगड़ी उस समय बिजनौर में था, किंतु आज वह हरिद्वार जनपद का हिस्सा है। उनके लगन और परिश्रम के बल पर ही 1907 में गुरुकुल का महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ और सन‍् 1916 में गुरुकुल कांगड़ी फार्मेसी की भी स्थापना हुई। 13 अप्रैल, 1917 को संन्यास ग्रहण कर वे मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानन्द बन गये।
स्वामी श्रद्धानन्द ने अपने स्तर पर देशभर में सामाजिक समरसता का वातावरण निर्मित करने के उद्देश्य से ‘सामाजिक समरसता अभियान’ चलाया। हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच एकता, प्रेम और भाईचारे की स्थापना के उद्देश्य से उन्होंने कई जनसभाएं कीं। उन्होंने तर्कों और संदर्भों के आधार पर यह प्रामाणित कर बताया कि भारत में रहने वाले सभी नागरिकों के पूर्वज एक ही हैं। वे अकेले ऐसे विद्वान थे, जिन्होंने दिल्ली स्थित जामा मस्जिद के प्रांगण में पवित्र वैदिक ऋचाओं से अपना संबोधन प्रारंभ और ‘अल्लाह हो अकबर’ के उद्घोष से समापन किया। 1920 में स्वामी श्रद्धानन्द ने शुद्धीकरण कार्यक्रम आरंभ किया, जिसके बाद उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और पंजाब आदि राज्यों में हजारों लोगों की सनातन धर्म में ‘घर वापसी’ हुई। इससे कुछ कट्टरपंथी नाराज हो गये और योजना बनाकर उनमें से एक धर्मांध युवक ने 23 दिसम्बर, 1926 को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।

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