अनुभव की कसौटी पर सत्य की परख
योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
बचपन में मां ने अकबर और बीरबल की कहानी सुनाते हुए बताया था कि सच और झूठ में ‘चार अंगुल’ का अंतर होता है। इसका मतलब यह था कि आंख और कान के बीच चार अंगुली का अंतर होता है यानी जो देखा जाए, वही सच होता है और जो सुना जाए, वह झूठ भी हो सकता है।
आज तो समाज में यही देखने को मिल रहा है कि कोई कुछ भी कह दे, तो हम बिना जांचे-परखे ही उस पर विश्वास कर लेते हैं और हमारे संबंधों में गहरी दरार आ जाती है। यहां तक देखा गया है कि पक्के मित्रों और रिश्तेदारों में किसी से सुनी हुई बात को लेकर ऐसी शत्रुता हो जाती है कि जीवन भर के लिए रिश्ते बिगड़ जाते हैं।
किसी शायर ने खूब जोरदार बात कही है :-
‘फासले बढ़े तो गलतफहमियां और बढ़ गईं,
फिर उसने वह भी सुना,
जो मैंने कभी कहा ही नहीं।’
सच भी यही है कि संबंधों में जब भी ‘अहंकार’ या ‘गलतफहमियां’ आ जाती हैं, तब बड़ी से बड़ी दोस्ती और भाईचारा पल भर में खत्म हो जाते हैं।
तब इस मनोवैज्ञानिक बीमारी से बचने का उपाय आखिर क्या है? आज जब इस बात पर विचार कर रहा था, तब एक प्रेरक कथा मुझे पढ़ने को मिली, जिसने मेरे अंतर्मन में जैसे सच्चाई का दीपक ही जला दिया है। कथा को पढ़िए :-
‘एक जौहरी के निधन के बाद उसका परिवार बड़े आर्थिक संकट में पड़ गया। उन्हें खाने के भी लाले पड़ गए। एक दिन उसकी पत्नी ने अपने बेटे को नीलम का एक हार देकर कहा, ‘बेटा, इसे अपने चाचा की दुकान पर ले जाओ। कहना इसे बेचकर कुछ रुपये दे दें।’ बेटा वह हार लेकर चाचा जी के पास गया। उसके चाचा ने नीलम के हार को अच्छी तरह से देख-परखकर कहा, ‘बेटा, जाकर अपनी मां से कहना कि अभी बाजार बहुत मंदा है। इसे थोड़ा रुककर बेचना, तब अच्छे दाम मिलेंगे।’
साथ ही चाचा ने उसे थोड़े से रुपये देकर कहा कि तुम कल से दुकान पर आकर बैठना। अगले दिन से वह लड़का रोज दुकान पर जाने लगा और वहां हीरों तथा रत्नों की परख का काम सीखने लगा। कुछ ही दिनों में जौहरी का बेटा रत्नों का बड़ा पारखी बन गया। लोग दूर-दूर से अपने हीरों और रत्नों की परख उसी से कराने के लिए आने लगे।
एक दिन उसके चाचा ने कहा, ‘बेटा, अपनी मां से वह नीलम का हार लेकर आना और कहना कि अब बाजार बहुत तेज है, हमें उसके अच्छे दाम मिल जाएंगे।’ चाचा की बात सुनकर बेटा घर गया और मां से वही हार लेकर जब उसने खुद परखा तो पाया कि वह नीलम का हार तो नकली है। इस पर वह उसे घर पर ही छोड़ कर दुकान लौट आया। जब उसके चाचा ने पूछा, ‘बेटा, वो हार नहीं लाए?’ तो बेटे ने कहा, ‘चाचाजी, वह हार तो नकली था।’
तब उसके चाचा ने कहा, ‘जब तुम पहली बार वह हार लेकर आये थे, तब अगर मैं उसे नकली बता देता, तो तुम मन में यही सोचते कि आज हम पर बुरा वक्त आया है, तो चाचाजी हमारी चीज़ को भी नकली बता रहे हैं। आज जब तुम्हें खुद ज्ञान हो गया, तो हार की परख कर के पता चल गया कि वह हार सचमुच नकली ही है।’
जीवन का बहुत बड़ा सच यही तो है कि सही ज्ञान के बिना हम इस संसार में जो भी सोचते, देखते और जानते हैं, वह सब गलत होता है; और ऐसे ही गलतफहमी का शिकार होकर हमारे रिश्ते बिगड़ जाते हैं। दुश्मनी पैदा हो जाती है, तलाक़ हो जाते हैं।
एक शायर ने बड़ी ही प्यारी बात कही है, जो हम सब को अवश्य ही याद रखनी चाहिए :-
‘ज़रा-सी गलतफहमी पर,
ना छोड़ो किसी का दामन,
ज़िंदगी बीत जाती है यहां,
किसी को अपना बनाने में।’
आखिर, जरा-जरा सी बात पर हम अपने संबंधों में जो खटास घोल लेते हैं, उससे हम स्वयं ही तो दुखी होते हैं और मनोवैज्ञानिक रूप से अवसाद के साथ ही दूसरी बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। याद रहे, मित्रता और सामाजिक संबंध आपसी विश्वास और प्रेम की नींव पर खड़े होते हैं, वहां गलतफहमियों को अगर आने दिया जाए, तो संबंध स्थिर नहीं रह सकते। मित्रता तो सुदामा-श्रीकृष्ण की सी होती है। किसी ने क्या खूब कहा है :-
‘हर खुशी से खूबसूरत तेरी शाम कर दूं।
अपना प्यार और दोस्ती तेरे नाम कर दूं।
मिल जाए अगर दोबारा ये ज़िन्दगी ऐ दोस्त,
हर बार ये ज़िन्दगी तुझ पे कुर्बान कर दूं।’
हमें संकल्प लेना चाहिए कि अपने संबंधों को परस्पर प्रेम और विश्वास की पूंजी से पालेंगे और गलतफहमियों को कभी रिश्तों के बीच नहीं आने देंगे।