जांच की आंच
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद हुई हिंसा में जघन्य अपराधों की बाबत राज्य सरकार की उदासीनता के बाद कलकत्ता हाईकोर्ट के दखल के बाद सच्चाई सामने आने की उम्मीद जगी है। कलकत्ता हाईकोर्ट ने चुनावी हिंसा के जघन्य मामलों की जांच सीबीआई को सौंपी है तो अन्य हिंसा व आगजनी के मामलों की जांच के लिये राज्य पुलिस को एसआईटी गठन का आदेश दिया है। इस जांच की अंतरिम रिपोर्ट छह सप्ताह के भीतर अदालत को सौंपने के आदेश दिये गये हैं। दरअसल, गत मई में विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद तृणमूल कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में लौटी। लेकिन दो मई को व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई, जिसमें दूसरे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को निशाना बनाया गया। इसमें जहां चौदह लोगों की हत्या हुई, वहीं महिलाओं से दुराचार जैसे जघन्य अपराध होने के आरोप लगे। राज्य सरकार का रवैया इस मामले पर पर्दा डालने वाला ही रहा। इसके बाद कलकत्ता हाईकोर्ट ने मामले का संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी एनएचआरसी को मामले की पड़ताल के लिये जांच कमेटी भेजने को कहा था। विडंबना यह रही कि जांच कमेटी पर भी हमले हुए। राज्य पुलिस का रवैया शुरू से ही राजनीतिक दबाव के चलते मामले पर पर्दा डालने वाला ही रहा। अपराधियों को दंडित करने के लिये जो साक्ष्य उपलब्ध थे, उन्हें भी नहीं जुटाया गया। राज्य सरकार के ढुलमुल रवैये के चलते कई बार राज्यपाल जगदीप धनकड़ को सख्त टिप्पणियां करनी पड़ीं। निस्संदेह आरोपों-प्रत्यारोपों के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं, जिसमें भाजपा की हार की हताशा भी शामिल है लेकिन यदि किसी के साथ राजनीतिक दुराग्रह के चलते अन्याय हुआ है तो उसे न्याय दिलाना राज्य सरकार का दायित्व भी है। राजनीतिक रंजिश के चलते दूसरे दल के समर्थकों व कार्यकर्ताओं को निशाना बनाना लोकतंत्र की भावना के खिलाफ ही है। असल बात तो यह है कि इस घटनाक्रम की जांच व कार्रवाई का मामला इतना लंबा नहीं खिंचना चाहिए था।
जाहिरा बात है कि अदालत द्वारा मामले की जांच सीबीआई से करवाने के आदेश से राज्य सरकार नाखुश होगी। दरअसल, सीबीआई पर केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने का आरोप लगता रहा है। तृणमूल कांग्रेस के नेता दलील दे रहे हैं कि कानून-व्यवस्था राज्य सरकार का मामला है, इसमें केंद्रीय एजेंसियों को दखल नहीं देनी चाहिए। बहुत संभव है कि राज्य सरकार इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे। यानी पीड़ितों को न्याय मिलने में और विलंब होगा जो कि दुराचार जैसे जघन्य अपराधों से पीड़ितों के साथ अन्याय ही होगा। न्यायिक प्रक्रिया से इतर इस मामले में कई गंभीर सवाल भारतीय लोकतंत्र के सामने भी हैं। आखिर आजादी के सात दशक के बाद भी किसी दल की हार-जीत के बाद हिंसा क्यों होती है। हिंसा को कौन बढ़ावा देता है? सरकारें उस पर पर्दा डालने की कोशिश क्यों करती हैं? पश्चिम बंगाल में निकाय चुनावों से लेकर आम चुनावों तक इतनी राजनीतिक हिंसा क्यों होती है? इसमें राजनीतिक दलों की क्या भूमिका होती है। निस्संदेह हिंसा का मतलब लोकतांत्रिक मूल्यों व परंपराओं को नकारना ही है। इसके अलावा कलकत्ता हाईकोर्ट द्वारा सीबीआई जांच के आदेश के बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया राजनीतिक दलों द्वारा दिखायी जा रही है, वह भी अनुचित ही है। अभी जांच के आदेश ही हुए हैं, जांच के परिणाम नहीं आये हैं। इसलिये पश्चिम बंगाल सरकार को निशाने पर नहीं लिया जा सकता। निश्चय ही इस विवाद के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। लेकिन राजनीतिक हिंसा में शामिल लोगों को बचाने की किसी भी राज्य सरकार की कोशिश को भी कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। हालांकि, इस जांच के विरोधाभासी परिणाम भी सामने आ सकते हैं क्योंकि एक जांच केंद्रीय एजेंसी करेगी, वहीं दूसरी जांच राज्य सरकार के अधीन आने वाली पश्चिम बंगाल पुलिस। बहरहाल, केंद्रीय एजेंसी व राज्य पुलिस को अपनी विश्वसनीयता बनाये रखते हुए पीड़ितों को न्याय दिलाने की दिशा में काम करना चाहिए।