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दर्शकों को बांधती हैं सस्पेंस वाली फिल्में

08:10 AM Jun 29, 2024 IST
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हेमंत पाल
यदि फिल्म के शौकीन कुछ दर्शकों से सवाल किया जाए कि उन्हें कैसी फ़िल्में पसंद हैं, तो ज्यादातर का जवाब होगा सस्पेंस वाली फ़िल्में। ऐसी फ़िल्में जिनका अंत चौंकाने वाला हो। इसका कारण है, इस तरह के कथानक पर बनी फ़िल्में दर्शकों को भी अपने साथ जोड़ लेती हैं। फिल्म के दृश्यों को देखने वाला सोचता रहता है कि अब क्या होगा। यही वजह है, इन फिल्मों की सफलता ज्यादा होती है। क्योंकि, इनके क्लाइमेक्स दर्शकों को हतप्रभ कर देते हैं। ऐसी फ़िल्में सिर्फ हिंदी में ही सफल नहीं रही, बल्कि हॉलीवुड में भी सस्पेंस, थ्रिलर वाली फिल्मों को ही ज्यादा पसंद किया जाता रहा। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर अल्फ्रेड हिचकॉक को तो ‘मास्टर ऑफ सस्पेंस’ ही कहा जाता रहा। सस्पेंस और थ्रिलर वाले कथानक शुरू से दर्शकों के प्रिय विषय रहे हैं। जिस फिल्म के अंत के बारे में उनका खुद का अनुमान गलत निकले, वो उन्हें ज्यादा पसंद। क्लाइमेक्स में ऐसा शख्स सामने आए, जिसका दर्शकों ने अनुमान नहीं लगाया हो। ऐसी फिल्में ही दर्शकों को बांधने वाली होती हैं। इन फिल्मों में जो सबसे ज्यादा शरीफ दिखता है, शातिर निकलता है। लेकिन यह अनुमान कई बार गलत भी हो जाता है और एक अलग ही थ्रिलर फिल्म का अंत दर्शक के सामने आता है। सस्पेंस का आशय डरावनी फिल्मों से नहीं। बल्कि सस्पेंस फ़िल्में अपने कसे हुए कथानक से दर्शक को बांधती हैं।

सस्पेंस, थ्रिलर और मिस्ट्री का फर्क

परदे पर अभी तक ऐसी फ़िल्में सीमित थीं। पर ओटीटी प्लेटफॉर्म आने के बाद लगने लगा कि दर्शक सस्पेंस, थ्रिलर और मर्डर मिस्ट्री ही देखना चाहता है। जबकि, ये तीनों ही अलग-अलग शैलियां हैं। थ्रिलर फिल्मों में एक्शन होता है, लेकिन सस्पेंस नहीं। उनमें जो सस्पेंस होता है, उसका राज़ धीरे-धीरे खुलता रहता है। लेकिन, सस्पेंस फिल्म में न तो रहस्य जरूरी है और न एक्शन। इनमे चौंकाने वाले सीन ज्यादा होते हैं, जो दर्शक को सोचने का मौका भी नहीं देते। मिस्ट्री और सस्पेंस थ्रिलर फ़िल्में एक जैसी नहीं होती। दोनों का ट्रीटमेंट अलग-अलग होता है। पर, मिस्ट्री फिल्मों में सिर्फ एक राज़ होता है, जिस पर से फिल्म के अंत में परदा उठता है। इस तरह की फिल्मों की पटकथा का ताना-बाना किसी हत्या के इर्द-गिर्द बुना जाता है। पूरी कहानी अनजान हत्यारे की खोज पर आधारित होती है। संदेह के लिए कई पात्रों को निशाने पर रखा जाता है। हत्यारे को पकड़ने के लिए पुलिस जो भी चाल चलती है, वही फिल्म का आकर्षण होता है। कभी फिल्म के नायक, नायिका या सबसे शरीफ पात्र के भी कातिल होने की स्थितियां निर्मित की जाती हैं। यानी दर्शकों को बांधने और उनका ध्यान बांटने के लिए कई हथकंडे रचे जाते हैं। देखा जाए तो दर्शकों को वही सस्पेंस फ़िल्में ज्यादा पसंद आती हैं, जो उन्हें हर सीन में चौंका दें। तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, क़त्ल और ‘गुप्त’ के बाद ‘दृश्यम’ सीरीज की दोनों फिल्मों ने दर्शकों को जिस तरह बांधकर रखा वही इन फिल्मों की सफलता रही।

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शुरुआत का श्रेय विजय आनंद को

हिंदी में मर्डर मिस्ट्री और सस्पेंस फिल्मों की शुरुआत का श्रेय विजय आनंद को जाता है। उन्होंने ‘तीसरी मंजिल’ और ‘ज्वेल थीफ’ उस दौर में बनाने की हिम्मत की, जब दर्शकों को ऐसी कहानियों का अंदाजा भी नहीं था। इन फिल्मों में पैसा लगाना भी एक तरह ही जुआ ही था। पर, विजय आनंद की कई फ़िल्में पसंद की गईं। इसी तरह रामगोपाल वर्मा की ‘कौन’ को हिंदी की बेस्ट साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म कहा जा सकता हैं। यह फिल्म घर में बंद एक लड़की (उर्मिला मातोंडकर) की कहानी है, जो अजनबी (मनोज बाजपेयी) से बचने की कोशिश में रहती है। लेकिन, फिल्म का क्लाईमैक्स दर्शकों के होश उड़ा देता है। इसी तरह की फिल्म ‘फोबिया’ भी थी, जिसमें राधिका आप्टे ने काम किया।

कहानियों में सस्पेंस की विविधता

बॉबी देओल, काजोल और मनीषा कोइराला की ‘गुप्त’ बेहतरीन सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। इसमें अंत तक किसी का ध्यान नहीं जाता और खलनायिका काजोल निकलती है। विद्या बालन की ‘कहानी’ और ‘कहानी-2’ दोनों ही फ़िल्में दर्शकों को अंत तक कुर्सी से बांधकर रखती हैं। किसी दर्शक को अंदाजा नहीं होता कि आखिरी में क्या होगा। फिल्म ‘नैना’ एक अंधी लड़की की कहानी थी, जिसकी आंखें ट्रांसप्लांट की जाती हैं। लेकिन, इसके बाद उसे अजीब सी चीजें दिखाई देने लगती हैं। ‘बदला’ को हाल के दौर की बड़ी मर्डर मिस्ट्री फिल्म माना जाता है। ये पूरी फिल्म सस्पेंस से भरी है। जबकि, आज के दौर की सस्पेंस फिल्मों में ‘दृश्य म’ और इसका सीक्वल सबसे अच्छा उदाहरण है। इसमें अपराधी सामने होता है, लेकिन न तो पुलिस उसे पकड़ पाती है और न दर्शकों को समझ आता है कि उसने ये सब किया कैसे होगा। इस फिल्मम में कोई मारधाड़ नहीं थी और न रहस्यक। हत्यारा सबके सामने होते हुए अपनी चतुराई से बचता रहता है। इसमें सस्पेंस और इमोशन का ऐसा घालमेल किया जाता है, कि फिल्म देखने वाले भी हत्यारे के पक्ष में नजर आते हैं। कानून, गुमनाम, मेरा साया, इत्तेफाक, धुंध, अपराधी कौन, कब क्यों और कहां, खिलाड़ी, गुप्तम, वह कौन थी, डिटेक्टर व्यो मकेश बक्शी , मनोरमा सिक्स फीट अंडर, भूल भुलैया, एक चालीस की लास्टष लोकल, बदला, जानी गद्दार, अगली, तलवार, अंधाधुन, क़त्ल, दृश्य म और ‘कहानी’ ऐसी ही फ़िल्में हैं, जिनका जादू दर्शकों पर जमकर चला।

अंत की गोपनीयता पर जोर

कुछ साल पहले तक फिल्म के अंत को गोपनीय बनाए रखने की हिदायत भी इसीलिए जाती थी कि फिल्म देखने आने वाले दर्शकों में सस्पेंस बना रहे। इसलिए कि ऐसी फिल्मों के अंत में कुछ ऐसा होता था, जो देखने वालों को चौंका देता था। फिल्म का कथानक कुछ इस तरह गढ़ा जाता था, कि दर्शक कहानी के ट्विस्ट की असलियत देख नहीं पाते थे और जब राज़ खुलता तो ऐसा पात्र संदेहों से घिरा मिलता, जिस पर किसी की नजर नहीं जाती। सस्पेंस फिल्मों में चौंकाने वाले अंत का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ। बस, दर्शकों को ये हिदायत देना बंद कर दिया गया कि फिल्म का अंत किसी को न बताएं। ऐसी फ़िल्में सिर्फ कलाकारों के अभिनय से ही दर्शकों को नहीं बांधती, इनकी पटकथा लेखन और डायरेक्शन में भी कुछ नयापन होता है।
अब तक कई थ्रिलर फिल्में आई, लेकिन सभी दर्शकों को बांध नहीं पाई। याद वही रहीं, जिन्होंने अपनी पटकथा और डायरेक्शन का जादू दिखाया। पुरानी फिल्मों में तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, इत्तेफ़ाक़, गुमनाम और आज के दौर की ए वेडनस डे, बदला, हमराज़, 100 डेज के बाद आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘अंधाधुंन’ और अजय देवगन की ‘दृश्यम’ ऐसी ही ऐसी फ़िल्में हैं।
-सभी फोटो लेखक

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