आत्मघात का कोटा
बीते रविवार फिर दो छात्रों ने कोचिंग नगरी कोटा में आत्महत्या कर ली। दूर-दराज के शहरों से अपने सपनों व परिवार की उम्मीदों को परवान चढ़ाने आए ये मासूम क्यों आत्मघाती कदम उठा रहे हैं, इसकी गंभीर पड़ताल अभी बाकी है। यह भयावह ही है कि डॉक्टरी व इंजीनियरिंग में प्रवेश की गारंटी देने वाले कोटा में जनवरी से अब तक 24 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। यह महज एक आंकड़ा नहीं है, उन परिवारों के दुख को महसूस करने की जरूरत है जिन्होंने अपने बच्चे खोये हैं। सवाल यह है कि खेलने-खाने की उम्र में ये बच्चे मौत को गले क्यों लगा रहे हैं? कहते हैं कि कुकरमुत्तों की तरह उग आए कोचिंग संस्थान लगातार परीक्षाओं का दबाव बनाते हैं और कम नंबर आने पर छात्र अवसादग्रस्त हो जाते हैं। तभी राजस्थान सरकार ने अगले कुछ समय के लिये कोचिंग संस्थानों में परीक्षाएं लेने पर रोक लगाई है। दरअसल, देश में कोचिंग संस्थानों का ऐसा मकड़जाल फैला है कि उसका कोई आदि-अंत नहीं है। महंगी फीस तथा तरह-तरह के शुल्क अभिभावकों की कमर तोड़कर रख देते हैं। सुनहरे सपनों की आस लेकर कोटा आए बच्चे इस बात को महसूस करते हैं कि उनके परिजन उन्हें अपना पेट काटकर पढ़ा रहे हैं। एक ईमानदार नौकरीपेशा या सामान्य आदमी की इतनी बचत कहां होती है कि कोचिंग संस्थानों की लाखों की फीस भर सके। मध्यम व निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के ये छात्र छोटी-छोटी परीक्षाओं में विफलता से घबरा जाते हैं कि वे परिवार को क्या जवाब देंगे। उनके सुनहरे सपनों का क्या होगा। दूर-दराज के कस्बों और गांवों से आये छात्र लगातार इस दबाव में पढ़ाई करते हैं। कहीं न कहीं इस गलाकाट स्पर्धा के दौर में ये छात्र खुद को समायोजित नहीं कर पाते और टूटकर बिखर जाते हैं। दूसरे हिंदी व अन्य भाषीय माध्यमों से आने वाले बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों से आये प्रतियोगियों का मुकाबला नहीं कर पाते। अपनी ऊर्जा उन्हें पहले अंग्रेजी सीखने में खर्च करनी पड़ती है। वे खुद को पिछड़ा महसूस करने लगते हैं।
दरअसल, इस विकट समस्या को जिस तरह सतही तौर पर निबटाया जा रहा है, वह समाधान कदापि नहीं है। संवेदनहीन राजनीति के बेतुका बयान स्थिति को जटिल ही बनाते हैं। रविवार की घटना के बाद राजस्थान के शीर्ष राजनेता का कहना था कि यह समस्या कोटा की नहीं, देशव्यापी है। दूसरी तरफ आत्महत्याओं को रोकने के लिये छात्रावासों व पीजी के कमरों में स्प्रिंग-लोडेड पंखे और बालकनियों में लोहे के जाल लगाना बेतुका उपाय कहा जायेगा। इस समस्या को संवेदनशील ढंग से देखने की जरूरत है। दरअसल, भारतीय समाज में इंजीनियर व डॉक्टर बनने की ऐसी भेड़चाल है कि मान लिया जाता है कि जो ये न बन सका उसका जीवन व्यर्थ है। इस भेड़चाल के चलते अब छात्र मानवीकीय विषयों से परहेज करने लगे हैं। दरअसल, कला के विषय छात्रों का सर्वांगीण विकास करते हैं। उनके व्यक्तित्व विकास में सहायक होते हैं। उन्हें जीवन के व्यापक अनुभव इन विषयों से मिलते हैं। हमें मनोवैज्ञानिक तौर पर छात्रों को तैयार करना चाहिए कि वे किसी बात पर हताश होकर आत्मघाती कदम न उठायें। उन्हें मनोवैज्ञानिक ढंग से समझाने की जरूरत है कि परीक्षा में असफल होना जीवन का अंत नहीं है। बल्कि उनके सामने तमाम विकल्प हैं। यह भी कि जीवन से महत्वपूर्ण कोई परीक्षा नहीं होती। कोटा के प्रशासन को यहां पढ़ने आने वाले छात्रों को लगातार परामर्श देना चाहिए ताकि वे तनाव से बिखरकर टूटे नहीं। साथ ही देश में सरस्वती के मंदिरों के कारोबार के केंद्रों में तब्दील होने की पूरी पड़ताल होनी चाहिए। इनके पाठ्यक्रम व फीस का नियमन होना चाहिए। किसी भी संस्थान को विशुद्ध व्यापारिक रवैया अपनाकर परिजनों के जीवन की पूंजी और छात्रों के जीवन से खिलवाड़ की अनुमति कदापि नहीं दी जानी चाहिए। दरअसल, इस समस्या का समाधान शासन-प्रशासन, अभिभावकों तथा कोचिंग संस्थानों को मिलकर निकालना होगा। समस्या के सामाजिक, मानसिक व आर्थिक पक्षों पर सूक्ष्म स्तर पर विचार जरूरी है।