जलवायु संकट की अनदेखी
आज ग्लोबल वार्मिंग संकट दुनिया के तमाम देशों के दरवाजे पर दस्तक देकर रौद्र रूप दिखा रहा है। ऐसे में बाकू में संपन्न कॉप-29 सम्मेलन में दुनिया की आबोहवा बचाने की दिशा में ठोस निर्णय न हो पाना दुर्भाग्यपूर्ण ही है। दरअसल, विकसित देश विगत में की गई अपनी घोषणाओं से पीछे हट रहे हैं। वे गरीब मुल्कों को ग्लोबल वार्मिंग संकट से निपटने के लिये आर्थिक मदद देने को तैयार नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि दुनिया पर जलवायु संकट के गंभीर परिणामों से विकसित देश वाकिफ नहीं हैं। अमेरिका से लेकर स्पेन तक मौसम के चरम का त्रास झेल रहे हैं। लेकिन इसके घातक प्रभावों को देखते हुए भी सभी देश समाधान निकालने को लेकर सहमति क्यों नहीं बना पा रहे हैं। कहना गलत न होगा कि विकसित देशों द्वारा अक्सर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन हाथी के दिखाने के दांत साबित हो रहे हैं। दशकों से चले आ रहे सम्मेलनों के बावजूद जलवायु संकट दूर करने के लिये सभी देशों की हिस्सेदारी व जिम्मेदारी तय नहीं हो पा रही है। यही वजह है कि कॉप-29 में विकासशील देशों की चिंता व नाराजगी को भारत ने आवाज दी है। भारत ने सम्मेलन में ग्लोबल साउथ देशों का नेतृत्व करके धनी देशों को आईना दिखाया। यह हकीकत है कि धनी देशों के रवैये के चलते विकासशील देश खुद को छला महसूस कर रहे हैं। अपने विकास की कीमत पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने पर सहमत हुए गरीब मुल्क इसके मुकाबले के लिये धनी देशों की मदद की तरफ देख रहे हैं। यह विडंबना है कि अजरबैजान में कॉप-29 सम्मेलन का समापन तल्ख बयानों व असहमति के बीच हुआ। आखिर धनी व गरीब मुल्कों के बीच सम्मेलन के बाद भी अविश्वास का वातावरण क्यों बना हुआ है। निश्चित रूप से यह स्थिति भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिये साझा प्रयासों की संभावना को ही खत्म करेगी।
विगत में विकसित देशों ने वायदा किया था कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के प्रयास में होने वाले खर्च की पूर्ति के लिये 1.3 ट्रिलियन डॉलर सालाना मदद दी जाएगी। लेकिन अब ये देश मामूली रकम देने को ही तैयार हैं। इससे पर्यावरणीय क्षति को रोकने के प्रयासों हेतु आर्थिक संसाधन जुटा पाना संभव न होगा। वहीं दूसरी ओर इस दिशा में निर्धारित लक्ष्य अपर्याप्त ही हैं। इस गंभीर मुद्दे पर व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत है। दूसरी विकसित देश सीमित मदद को सीधे देने के बजाय ऋण के रूप में देने की बात कर रहे हैं। जाहिर है कर्ज के साथ शर्तें भी कठोर हो सकती हैं। दरअसल, अपनी पिछली पारी में पर्यावरण संकट पर बेरुखी दिखाने वाले नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को लेकर भी दुनिया के मुल्क असमंजस में हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि दुनिया की महाशक्ति अमेरिका क्लाइमेट चेंज प्रभाव को रोकने के लिये धन उपलब्ध कराने में ना-नुकर कर सकता है। भले ही संकट से निपटने के लिये पर्याप्त धन न जुटाया जा सके,लेकिन यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि इस मुद्दे में दुनिया के देशों में सहमति बन सके। निस्संदेह, मतभेद मनभेद में न बदलें और दुनिया के तमाम देश जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से मुकाबले के लिये एकजुट होने का संकल्प लें। यही वजह है कि भारत ने टूक शब्दों में कहा कि जलवायु संकट से निपटने की जिम्मेदारी सिर्फ विकासशील देशों की ही नहीं है। निस्संदेह, धनी मुल्कों को जवाबदेही से भागने से बचना चाहिए। हालांकि, बाकू में जलवायु संकट पर गंभीर मंथन तो हुआ पर समस्या की गहराई को समझने की ईमानदार कोशिश नहीं की गई। यदि जलवायु वित्त पैकेज पर सहमति बनती तो इससे जुड़े मुख्य मुद्दों के समाधान की राह खुलती। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया। यह निर्विवाद सत्य है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिये विकासशील देशों को अपने विकास को धीमा करना पड़ेगा। लेकिन औद्योगिक क्रांति के जरिये प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने वाले विकसित देश अपने आर्थिक लक्ष्य हासिल करने के बाद विकासशील देशों को ऐसा करने से रोक रहे हैं।